Friday, March 9, 2007

विश्वामित्र स्वपच संवाद



महाभारत-5/141 में मन्मर्षि श्रीकष्ण द्वैपायन बादरायण ‘वेदव्यास’ जी के शब्दों को श्री गणेश्वर जी ने लेखनीबद्ध किया है कि त्रेता-द्वापर संधिकाल में बारह वर्षों तक वर्षा हुई ही नहीं। बड़े-बड़े नदियों का जल प्रवाह अत्यंत क्षीण हो गया और छोटी-छोटी नदियां अदृश्य हो गयीं । बड़े-बड़े सरोवर, सरिताएं, कूप तथा झरने श्रीहीन हो गये और छोटे-छोट जलाशय सर्वथा सूख गये। जलाभाव के कारण प्याऊ बंद हो गये। कृषि व्यवसाय चौपट हो गये। अकाल, भूखमरी के कारण क्षुधातुर प्राणी परस्पर घात-प्रतिघात करने लगे। भयानक उपद्रव के कारण त्राहि-त्रहि मच गया। बच्चे-बूढ़े, मवेशी तथा अन्य प्रजाति महामारी के कारण प्रायः विलुप्त हो गये । सर्वत्र हड्डियों के ढेर लग गये। वसुधा का बहुत बड़ा भाग उजाड़ तथा लगभग निर्जन बन गया। फल-फूल, जड़-मूल, वनस्पति तथा औषधियां भी नष्ट हो गयीं। ऐसे भयंकर समय में धर्म का नाश हो जाने के कारण भूख से व्याकुल मनुष्य एक दूसरे का भक्षण करने लगे। सर्वत्र हाहाकार व्याप्त हो गया। भूतल पर यज्ञ और स्वध्याय का लोप हो गया। अग्नि के उपासक ऋषिगण भी यम-नियम और अग्निहोत्र त्याग अपने आश्रम को छोड़कर खाद्यान्न-जल के लिए इधर-उधर भटकने लगे।

इन्हीं दिनों भूखे-प्यासे ब्रह्मर्षि विश्वामित्र अपने गृहस्थ आश्रम को त्यागकर क्षुधा शांति हेतु भक्ष्य-अभक्ष्य कुछ भी ग्रहण करने के विचार से यहां-वहां विचरने लगे । एक दिन वे किसी वनांचल में वधिक एवं हिंसक चाण्डालों की बस्ती में जा पहुंचे । चाण्डाल द्वारा अपने कुटिरों को सर्प की केचुलों की मालाओं से विभूषित एवं चिन्हित किया गया था। अर्थी और मूर्दों के ऊपर से उतारे हुए फूल-मालाओं से विभूषित एवं चिन्हित किया गया था ।अर्थी और मूर्दों के ऊपर से उतारे हुए फूल-मालाओं से उन चाण्डालों के घर सजे हुए थे और वहीं उतारे गये कपड़े चारों ओर फैलायें गये थे उसी बस्ती में घुसकर भूखे ब्रह्मर्षि घर-घर घूमकर भिक्षा मांगने लगे लेकिन फिर भी वहां कहीं भी किसी के भी हाथ से उन्हें अन्न-जल, फल-फूल, जड़-मूल, सूखी मांस-मछली इत्यादि कोई भी खाद्य अथवा अखाद्य पदार्थ उपलब्ध न हो सका। भूखे, थके हारे ब्रह्मर्षि विश्वामित्र अत्यन्त दुर्बलता के कारण लड़खड़ाते हुए ‘श्वपच’ नामक चाण्डाल के घर के सामने धरातल पर गिर पड़े।
महामुनि मन-ही-मन विचार करने लगे कि अब मैं क्या करू ? क्या उपाय किया जाय, जिससे अन्न के बिना भूख के कारण मेरी व्यर्थ मृत्यु न हो सके। इतने में ही उन्होंने देखा कि चाण्डाल के घर में कुछ ही समय पूर्व शस्त्र द्वारा मारे हुए कुत्तें की जांघ के मांस का एक बड़ा भाग पड़ा हुआ है। तब महामुनि ने सोचा कि मुझे यहां से इस मांस की चोरी करनी चाहिए, क्योंकि इस समय मेरे लिए अपने प्राणरक्षार्थ अन्य कोई उपाय नहीं है। शास्त्र का यह निश्चित विधान भी है कि विपत्तिकाल में प्राण रक्षा के लिए ब्राह्मण को श्रेष्ठ, समान तथा हीन मनुष्य के घर से चोरी करना कोई अनुचित बात नहीं। व्यक्ति को पहले हीन पुरुष के घर से भक्ष्य पदार्थ की चोरी करनी चाहिए। यदि वहां से कोई प्राप्ति न हो सके तो अपने समकक्ष व्यक्ति के घर से घाद्य पदार्थ ले लेना चाहिए । यदि वहां से भी अभिष्ट सिद्धि न हो सके तो अपने से विशिष्ट धर्मात्मा पुरूष के यहां से भोज्य पदार्थ की चोरी कर लेनी चाहिए । अतएव इस चाण्डाल के घर से यह कुत्ते की जांघ को चुरा लेनी चाहिए, क्योंकि इस चोरी में मुझे किसी के यहां दान लेने से अधिक दोष नहीं दिखाई दे रहा है। इस कारण अब मैं इसकी चोरी अवश्य करूंगा । ऐसा निश्चय करके महामुनि चाण्डाल के घर के समक्ष ही गली में चूपचाप कमर सीधी करने लगा।

जब प्रगाढ़ अन्धकार से युक्त आधी रात हो गयी और चाण्डाल के परिवार के सभी सदस्य सो गये तब विश्वामित्र धीरे से उठे और चाण्डाल की कुटिया में घुस गये । वह चाण्डाल पूर्णतः निद्रावस्था में नहीं था। श्वान निद्रा में लीन था। वह विश्वामित्र के घुसने की आहट को सुन लिया। साथ ही यथाशीघ्र पलटकर उन्हें देख भी लिया। विकराल स्वरूप और हिंसक, कूर तथा उग्र स्वभाव वाला वह चाण्डाल कड़ककर बोला- “अरे मूर्ख प्राणी। वैसे तो मेरे परिवार के सभी सदस्य सो गये हैं पर मैं सोया नहीं हूं, मैं जाग रहा हूं। तू कौन है तथा क्यों मुझ वधिक के घर में घूसा है? अब निश्चित रूप से अपने आपको तू मारा गया जान।” इस कर्कश घुड़की से डरकर विश्वामित्र का मुखड़ा मलिन हो गया और लज्जा से सर झुक गया। वे कातर स्वर में बोले- “भूखा-प्यासा,दीन-हीन, दुःखित-पीडित,आशक्त-असहाय, उपेक्षित तथा हतोत्साह-मैं विश्वामित्र तुम्हारे घर में घुसकर यह श्वानजंघा ले जाने की चेष्टा कर रहा हूँ ।” श्वपच पूर्व में ही विश्वामित्र के तपोबल, प्रताप और शाप के संबंध में सुन चुका था। वह घबराकर अपनी शय्या से उठा और उनके पास जाकर बड़े आदर के साथ हाथ जोड़कर उनसे कहने लगा – “ब्रह्मर्षे। इस रात के समय आपकी यह कैसी चेष्टा है ? आप यह क्या करने जा रहे हैं ? आप यह क्यों अनर्थ करना चाहते हैं ?”

विश्वामित्र बोले भाई। मैं बहुत भूखा हूं। क्षुधा से मेरी श्रवण शक्ति क्षीण, चेतना शून्य और नाड़ी लुप्त होती जा रही है। मैं दुबला-पतला और निर्बल हो गया हूं और मेरे प्राण शिथिल हो रहे हैं। जिस प्रकार अग्निदेव सर्वभक्षी हैं उसी प्रकार मैं भी सर्वभक्षी बनना चाहता हूं । अब मुझे भक्ष्य और अभक्ष्य में कोई अन्तर दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए मैं यह श्वानजंघा ले जाने आया हूँ । ब्रह्मर्षि । मनीषी पुरूष कहते हैं कि कुत्ता सियार से भी अघम होता है और कुत्ते के शरीरांगों से उसकी जांघ अधम होता है। इस कारण आपने जो निश्चय किया है, यह ठीक नहीं है। चाण्डाल के धनराशि को और उसमें भी विशेष रूप से अभक्ष्य पदार्थ की चोरी धार्मिक दृष्टकोण से अत्यंत निंदित है। अतएव आप धर्म का त्याग न कीजिए । आपके द्वारा धर्मसंकरता का प्रचार नहीं होना चाहिए। आप वेदविहित धर्म से पूर्णतः भिज्ञ हैं । आप धर्मात्माओं में श्रेष्ठ समझे जाते हैं।इसलिए आप अपने जीवन की रक्षा के लिए कोई अन्य श्रेष्ठ उपाय सोचिए।

भाई। भोजन की खोज में इधर-उधर भटकते हुए मेरा एक लम्बा समय व्यतीत हो चुका है, लेकिन फिर भी जावन रक्षा हेतु अब तक कोई निदान मेरे हाथ नहीं लगा है। जो भूख से मर रहा हो, उसे जिस किसी भी उपाय अथवा जिस किसी भी कर्म से सम्भव हो, अपने जीवन की रक्षा करना चाहिए। जिस किसी भी साधन से जीवन सुरक्षित रहे, उसकी अवहेलना नहीं करना चाहिए। मरने से जीवित रहना श्रेष्ठ है, क्योंकि जीवित व्यक्ति पुनःधर्माचरण कर सकता है। जिस प्रकार ग्रहराज सूर्य अस्ताचल के पश्चात समय आने पर पुनः उदित होकर अंधकार का नाश कर देते हैं उसी प्रकार मैं भी विद्या-बुद्धि-विवेक, तप और साधना सिद्धि द्वारा जब अपने आप को सबल और समर्थ कर लूंगा तब सकल अशुभ कर्मों का नाश कर परम पद को प्राप्त कर लूंगा । इसी उद्देश्य से मैने किसी भी देश, काल और परिस्थिति में जीवित रहने का दृढ़ संकल्प लेकर इस अभक्ष्य का भी भक्षण करने का निर्णय समझ- बूझकर लिया है। इसलिए तुम्हें भी इसका अनुमोदन करना चाहिए।

ब्रह्मर्षि । कुत्ता द्विजों के लिए अभक्ष्य है। अतः अभक्ष्य-भक्षण की ओर आपका चित्त नहीं जाना चाहिए । इसका भक्षण कर कोई दीर्घायु प्राप्त नहीं कर सकता । इससे न तो प्राणशक्ति प्राप्त होती है और न ही अमृत के समान तृप्ति होती है। इस कारण आप कोई अन्य भिक्षा मांगने की ओर प्रवृत्त हों । भाई। सारे देश में भीषण अकाल पड़ा हुआ है। इधर भूख से मेरा अंतकाल सन्निकट है। मेरे पास किसी प्रकार की कोई धनराशि भी नहीं जिससे मैं खाद्य पदार्थ क्रय कर सकूं । पर्याप्त समय तक भिक्षाटन करने के उपरान्त भी सूखे मांस-मछली तक प्राप्त करने में मैं पूर्णतः असमर्थ रहा हूं। मैं बिल्कुल निराश्रय, निराश, अशक्त और थकाहारा हूं । मैं यह समझने के लिए विवश हूं कि मुझे श्वान मांस भक्षण में ही षड् रस भोजन का आनन्द भली-भांति प्राप्त होगा ।

ब्रह्मर्षि । ब्राम्हण, क्षत्रीय और वैश्य के लिए केवल पांच प्रकार के पंचनखा प्राणी ही विपत्तिकाल में भक्ष्य बताये गये हैं। यदि आप वेद को प्रमाण मानते हैं तो इस अभक्ष्य पदार्थ की ओर मन को गति प्रदान मत कीजिए । भाई । श्वान और मृग दोनों ही पशु होने के कारण समान हैं । जीवात्माओं में भेद करना उचित नहीं । भूखे महर्षि अगस्त ने भी तो वातापि नामक दानव का भक्षण किया था । मैं भी तो भूखमरी के कारण भारी विपत्ति में पड़ गया हूं। इसी कारण श्वानजंघा को भी मैं पवित्रभोजन के समान ही खाद्य पदार्थ मानता हूं । ब्रह्मर्षि । महर्षि अगस्त ने ब्राम्हणों की रक्षा के लिए विशेष प्रार्थना करने पर विशेश परिस्थिति में ही वातापि राक्षस का भक्षण किया था । इससे वहुत से ब्राम्हणों की रक्षा हो गयी थी अन्यथा वह असुर उन सब ब्राह्मणों को कच्चा चबा जाता । वेदज्ञ गुरू होते हैं । अतएव हर संभव उनकी तथा उनके धर्म की रक्षा करनी चाहिए । इस कारण महर्षि का वह कर्म वस्तुतः धर्म ही थ । भाई । यदि महर्षि अगस्त ने ब्राम्हणो की रक्षा के लिए वह कार्य किया था तो में भी इस ब्राम्हण (वेदज्ञ राजर्षि) शरीर की रक्षा के लिए यह कार्य करुंगा । यह ब्राम्हण शरीर ही इस भव सागर में मेरे लिए परम प्रिय तथा आदरणीय है। इसी को जीवित रखने के लिए मैं यह श्वानजंघा ले जाना चाहता हूं ।

ब्रह्मर्षि । विद्वान पुरूष अपने प्रणों का परित्याग भले ही कर दें, लेकिन फिर भी वे कभी अभक्ष्य–भक्षण का विचार नहीं करते । प्राण का परित्याग करके भी वे अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेते हैं । अतः आप भी उपवास द्वारा ही अपनी मनोकामना की पूर्ति कर लीजिए । भाई । यदि उपवास करके प्राण दे दिया जाय तो मरने के बाद क्या होगा ? यह संदेहास्पद बात है, किन्तु निःसंदेह आशा करने से पुण्य कर्मों का विनाश होगा, क्योंकि शरीर ही धर्माचरण का मूल है। मैं जीवन रक्षा उपरान्त पुनः प्रतिदिन नियमित रूप से शम, दम, व्रत, तप इत्यादि द्वारा संशययुक्त कर्मो का प्रायश्चित कर लूंगा । विद्यमान परिस्थिति में तो इस शरीर की रक्षा करना ही धर्म का मर्म है । वेद विहित तथा धर्ममूलक है । धर्म के मूल अर्थ के स्त्रोत, कर्म के कारक, काम के उपभोक्ता और ज्ञान तथा मोक्ष प्राप्ति के साधन इसी शरीर की सुरक्षा में ही पुण्य है, यह बात स्वतः स्पष्ट हो जाती है । प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता ?

ब्रह्मर्षि । में तो आपका हितैषी बनकर ही यह धर्माचरण की सलाह दे रहा हूं । जो अयोग्य स्थान से, अनुचित कर्म से तथा निंदित पुरूष से कोई निषिद्ध वस्तु लेना चाहता है, उस विद्वान को उसका सदाचार ही वैसा करने से रोक सकता है। आपको तो ज्ञानी और धर्मात्मा होने के कारण स्वतः ऐसे निंदित कर्म से दूर रहना चाहिए । यदि प्राण देने की अपेक्षा अभक्ष्य-भक्षण ही श्रेष्ठ है तब तो आपके विचार से न वेद प्रमाण है, न धर्म और न ही श्रेष्ठ पुरूषों के आचार-विचार । जहां तक मैं समझता हूं जो श्वानजंघा को भक्षणीय बताकर उसका आदर करे उसके लिए इस संसार में कोई भी वस्तु त्याज्य नहीं है। भाई। विपत्ति काल में एक बार किये हुए किसी सामान्य दुष्कर्म से किसी के जीवन भर किये हुए पुण्य कर्म का नाश नहीं होता। यद्यपि अभक्ष्य-भक्षण निषिद्ध कर्म हौ ताथापि महापातक नहीं । अभक्ष्य-भक्षक को ब्रह्महत्या आदि के समान महापाप लगता हो ऐसा कोई शास्त्रीय वचन नहीं है। हाँ मद्यप को महापाप लगता है ऐसा शास्त्र वाक्य स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है । इसलिए मद्यपान अवश्य त्याज्य है । मैं अपने धर्म को जानता हूं । तुम्हें धर्मोपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है । जैसे मेढ़कों के टर्र-टर्र करते रहने पर भी गौएं जलाशयों से जल पीती ही हैं । वैसे ही तुम्हारे बारम्बार मना करने कर भी मैं तो यह अभक्ष्य-भक्षण करुंगा और उपवास रहकर प्राण नहीं त्यागूंगा । यदि तुम मेरे हितैषी हो तो इस विपत्ति से मेरा उद्धार करो । तुम यह श्वानजंघा मुझे दे दो ।

ब्रह्मर्षि । मैं महान पापी तथा ब्राह्मणेतर होने पर भी आपको बारम्बार उलाहना दे रहा हूं वास्तव में इस प्रकार धर्म का उपदेश देना मेरे लिए धूर्ततापूर्ण चेष्टा ही है । आप बारम्बार अत्यन्त आग्रह करके श्वानजंघा भक्षण करने जा रहे हैं इसलिए इसका जो भी दण्ड होका आप ही को सहन करना पड़ेगा । इसमें मेरा कोई दोष नहीं है । आप स्वेच्छा से यह श्वानजंघा ले जाइये । ऐसा कहकर श्वपच ब्रह्मर्षि को मना करने के कार्य से निवृत्त हो गया । जीवित रहने की दृढ़ इच्छा शक्ति वाले ब्रह्मर्षि तो उसे लेने का निश्चय पूर्व में ही कर चुके थे । इस कारण वे उसे ले ही गये । इसी बीच उनके मन में यह विचार उठा कि में श्वानजंघा को विधिपूर्वक पहले देवताओं को अर्पण करूंगा, और उन्हें संतुष्ट करने के उपरान्त अपनी इच्छानुसार उसे खाऊंगा । ऐसा सोचकर ब्रह्मर्षि ने वेदोक्त विधि से अग्नि की स्थापना कर स्वयं ही चरु पकाकर तैयार किया । तदुपरान्त अग्नि आदि देवताओं का आवाहन करके उनके लिए क्रमशः विधिपूर्वक पृथक भाग ज्यों ही अर्पित किया त्यों ही देवयोग से बड़ी भारी वर्षा के साथ ही साथ खाद्यान्न, फल-फूल, जड़-मूल, औषधियां उत्पन्न हो गयीं और समस्त जीव-जन्तु तथा जन-समुदाय को जीवनदान मिल गया । ब्रह्मर्षि दीर्घकाल तक निराहार व्रत एवं तपस्या करके अपने सारे पाप दग्ध कर ही चुके थे । इस कारण तत्समय उन्हें अत्यन्त अद्भुत सिद्धि प्राप्त हुई । उन ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने विधि पूर्वक समर्पण कर्म करके उस हविष्य का आस्वादन किये बिना ही समस्त देवताओं को संतुष्ट कर दिया और उन्हीं की कृपा से पवित्र भोज्य पदार्थ प्राप्त करके उसके द्वारा अपने जीवन की रक्षा की । अतएव मानव मात्र को दीनचित्त न होकर प्रत्येक देश, काल और परिस्थिति में सदैव जीवित रहने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि जीवित रहने वाला व्यक्ति ही पुण्य कर्म का अवसर पाता है और कल्याण कारी कर्मफल का भागीदार बनता है ।
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1 comment:

DEV said...

Ye kahani beete vaqt ki ek sachchayi ko bayan karti hai.