Friday, March 9, 2007

कृतघ्न


अन्यों की हत्या करने वाले हत्यारे तो पश्चाताप अथवा यथायोग्य सजा काटकर प्रायश्चित कर सकते हैं किन्तु आत्म-हत्यारों को तो प्रायश्चित करने का मौका भी नहीं मिलता । माना कि किसी ने उन पर अत्याचार किया हो किन्तु उनके सभी अनेक सम्बन्धियों की कृपा उन पर बनी रहती है। उनके द्वारा की गई कृपा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का मौका उन्हें नहीं मिलता। इस कारण वे सदा-सर्वदा के कृतघ्न बने रहते हैं।

एक समय था जब वनग्रामों में ही जीवन था। सही मायने में ग्रामीण अंचलों में ही परस्पर जुड़ाव था, लगाव था, मिलन था अन्यत्र कहीं भीं नहीं । सम्पूर्ण ग्राम्य जीवन एक सामूहिक जीवन दर्शन था । अस्त-वयस्त नहीं मस्त-मस्त था। ग्राम्य प्रमुख की एक व्यवस्था होती थी और ग्रामीणों का जीवन व्यवस्थित होता था। किसी भी समस्या का समाधान केवल साथ मिलकर ही करते थे । सम्पूर्ण ग्राम एक परिवार होता था ।संयुक्तीकरण, समन्वय और सामंजस्य स्थापित करना इनका प्रमुख कर्त्तव्य होता था। केवल समर्पण भाव का ही राज्य था। केवल युक्ति युक्त भक्ति भाव का ही गान था। निरन्तर सेवा भाव का ही प्रचलन थी। प्रागैतिहासिक काल के प्रारम्भिक चरण में जब किसी गाँव की कोई महिला गर्भवती होती थी तब उस गाँव के दूधारू गाय का स्वामी उस गर्भिणी महिला के घर निःशुल्क दूध पहुँचाना अपना कर्त्तव्य समझता था। क्योंकि ग्रामीण आपस में भावनात्मक रूप के जुड़े हुए थे।

धीरे-धीरे नवजात शिशु को जब दूध की आवश्यकता हुई तब उसके लिए निःशुल्क दूध पहुँचाना गोस्वामी अपना कर्त्तव्य समझने लगा । इसका मात्र एक ही कारण था समस्त ग्रामीणों का आपस में भावनात्मक रूप से जुड़ा होना । यही कारण था समस्त ग्राणीणों का आपस करने की प्रवृत्ति देखने-सुनने की भी नहीं मिलती थी। धीरे-धीरे शुल्क सहित शुद्ध दूध मिलने लगा। तदुपरान्त क्रमशः न्यूनाधिक रूप से कृत्रिम दूध भी नसीब नहीं। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि आज भाँति-भाँति के रासायनिक दूध का बाजार गर्म है। इसी गर्म जोशी में दूध दूषित होने के कारण लोगों की भावनाएँ भी दूषित हो गयी है और आत्महत्या न करने की प्रकृति दूषित होकर आत्महत्या करने की ओर तेजगति से अग्रसर हो रही है।

कृषि का व्यवसायीकरण कृषकों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रहा है। कृषि आज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का साधन नहीं है। आज सरकार किसानों के साधारण जीवन शैली से सन्तुष्ट नहीं है। आज शासन अधिक अन्न उपजाओ का नारा देकर ऋण के ऊपर ऋण घर-घर पहुँचा रहा । आज किसानों को अपने पेट भरने के लिए अन्न-उत्पादन करने की आवश्यकता नहीं, अपितु राष्ट्र के नागरिकों के पेट भरने के लिए अधिक अन्न अत्पादन करने की आवश्यकता है। इस कारण शासन कृषकों को हरेक प्रकार के साधन उपलब्ध कराने के लिए कृत संकल्प है। फलतः कृषि के क्षेत्र में प्रत्येक साधन के लिए ऋण क्रमशः ऋण पर ऋण; कभी न समाप्त होने वाले ऋण । आज लगभग प्रत्येक कृषक का प्रत्येक अंग ऋण ग्रस्तता का शिकार है।

जहाँ तक फसल बीमा का सवाल है - कृषक के तमाम खेतों के लिए फसल बीमा नहीं किया जाता । जहाँ सिंचाई का साधन है वहीं का फसल बीमा किया जाता है। केवल 60 प्रतिशत उत्पादन को 100 प्रतिशत उत्पादन माना जाता है। फसल बीमा युक्त खेत पर फसल न होने से फसल बीमा का मुआवजा नहीं मिलता अपितु तहसील स्तर पर यदि वह तहसील अकाल ग्रस्त होने की स्थिति में मुआवजा मिलता है। केवल एक कृषक ही नहीं, बल्कि गाँव के समस्त कृष्कों का सकल खेत भी सूख कर राख हो जाय तो भी इसका हर्जाना केवल उन कृषकों को ही भुगतना पड़ता है। शासन का इससे कोई लेना देना नहीं । किसान चाहे माथा फोड़े अथवा सर कटाये, फाँसी चढ़े या फिर जहर खाये।

देश के विकास में हाथ बटाने के लिए भारतीय कृषक अधिकाधिक अन्न उत्पादन हेतु ऋण पर ऋण लेने के कारण कभी-कभार उस पर भारी हीन हीं बहुत भारी ऋण हो जाता है और फसलों के दाम गिर जाने अथवा फसल चौपट हो जाने के कारण एक स्थिति बन जाती है कि गन्ना कटाई अथवा फसल कटाई यहाँ तक फसल तोड़ाई (मिर्ची, मूँग,टमाटर) का खर्च भी वसूल नहीं हो पाता। इस स्थिति में लागत व्यय का सवाल तो कोसों दूर की बात है। इन परिस्थितियों में मुनाफा प्राप्ति की तो सपना भी नहीं देख सकते। और कोई चारा न रहने के कारण किसान खेत बेचने पर मजबूर हो जाता है। जब शत-प्रतिशत खेत से दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव नहीं थी तब कुछ कम खेत से पूर्ति कैसे सम्भव है ? फलतः निरन्तर खेत विक्रय की प्रकृति और अन्ततः सब-कुछ समाप्त होने के पश्चात् इस पिण्ड की आहूति या पिण्डत्याग अथवा आत्महत्या ।

इस धरातल पर ईश्वर प्रदत्त श्रेष्ठत्तम अधिकार यदि कोई है तो वह है शरीरी रहना अथवा तन धारण करना। देह धारण कर आजीवन जीवन-यापन करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के शब्दों में जिस प्रकार स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। जीना हमारा हक है। हमें अपने हक को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जिस प्रकार हम अपने घर-गृहस्थी, मकान-दूकान, खेत-खलिहान का एक टुकड़ा भी छोड़ना परंद नहीं करते ठीक उसी प्रकार हमें अपने शरीर को भी छोड़ना पसंद नहीं करना चाहिए । जान है तो जहान है। आज तिथि तक जीतने भी आत्महत्या विषयक मौत के मुँह से बच कर नई जिन्दगी शुरु किये हैं उनमें से लगभग सभी को पछताना है कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यो किया ?

लोकनायक जयप्रकाश नारायण के शब्दों में जिस प्रकार समग्र क्रान्ति का नारा है - भावी इतिहास हमारा है, ठीक उसी प्रकार हमें भी समग्र संघर्ष का नारा देना है । असफलता का एक मात्र कारण है प्रयास में कमी । हमें भरसक प्रयास करना है मुँह मारने वालों को मुँहतोड़ जवाब देने के लिए। थोड़ा सा मुस्करा दोगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा ? मुस्करा दिए। थोड़ा सा हँस दोगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा ? हँस दिए और हँसे कि फँसे । फाँसी पर चढ़ने से पूर्व का यही एकमात्र मूल मंत्र है। आ बैठ मेरे पास और थोड़ा था मुखड़ा देखने दोगी तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा ? इतना कह देना मात्र बहुत दूर की बात हो गई । अब हम हाँ कहें या नहीं । इससे फर्क नहीं पड़ता । प्रथम चरण में मुस्कराना ही फँसना-फँसाना है। मुखड़ा ही नहीं मुखड़े के बोल भी हर हाल में आक्रामक होना चाहिए, केवल आक्रामक, संघर्षमय, क्रान्तिकारी । तभी हम इस बेदर्दी ज़माने से लोहा ले सकते हैं। अन्यथा जीवन अँधकारमय । घुटन-ही घुटन। पछतावा-ही पछतावा।

जहाँ तक वस्त्राभूषण का सवाल है - वस्त्र के रूप मे केवल एक लंगोटी नुमा परिधान और आभूषण के रूप में मात्र एक लाठी। एक महान अधिवक्ता के जुबान में केवल राम-राम अधिक हुआ तो ‘रघुपति राघव राजा राम’ । इससे और कम क्या हो सकता है ? हम में इन सबसे तो अधिक है ही। फिर काहे की चिन्ता ? ध्यान रहे चाह ही दुःख का कारण है। यह हुआ तो वह और वह हुआ तो पुनः वह। इस वह-वह की चाह कभी पूर्ण नहीं होती। इसलिए न चाहना ही ठीक। यह भी नहीं और वह भी नहीं।कोई चाह नहीं तो फिर दुःख काहे का । कोई दुःख नहीं, कोई कष्ट नहीं, कोई घुटन नहीं, कोई टूटन नहीं तो फिर फाँसी का फँदा कैसे ? कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी जर्जर अवस्था में भी जीवन की कामना करते हैं। उन्हीं के शब्दों में –

इस सुन्दर सृष्टि से विदा लेकर मैं मरना नहीं चाहता, मानवों के बीच रहते हुए मैं और “जीना चाहता हूँ।”

सुभाष चन्द्र बोस का एक नारा आज भी विद्यमान है- “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा।” यह केवल खून और आजादी से सम्बन्धित नारा नहीं है। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार इसका भावार्थ अथवा तत्त्वार्थ समझना चाहिए । न केवल इसी नारे का अपितु लगभग सभी महापुरुषों के नारों का भी केवल शब्दार्थ ही नहीं, अपितु तथ्यार्थ भी समझना चाहिए ।

विषयान्तर्गत अभी हम केवल सुभाष बाबू के ही शब्दों को लेते हैं। कुछ क्षण के लिए हम मान भी लेते हैं कि हम खून नहीं दे सकते और हमें आजादी नहीं चाहिए। तो फिर हम किसी को दो मिर्ची तो दे सकते हैं। दो नहीं सिर्फ एक सही । एक तुलसी पत्ता तो दे सकते हैं। एक पुदीना पत्ता तो दे सकते हैं। एक मीठी नीम की पत्ती तो दे सकते हैं। दे के तो देखें । हमें इतना सकून मिलता है कि हम उसका बखान नहीं कर सकते । मात्र एक मुट्ठी चावल किसी पात्र को देकर तो देखें। हमें इतना चैन मिलता है कि हमारे पास वे शब्द नहीं जिससे हम उसका वर्णन कर सकें। केवल एक मुट्ठी दाना बिखेर कर तो देखें । चिड़ियों के चुगने पर हमें कितना आनन्द मिलता है ? आजमायें तो सही। परखना तो सीखें । परीक्षण तो करें। अधिक दिन प्रतीक्षा दिन प्रतीक्षा करने की आवश्यकता बिल्कुल नहीं । निकट भविष्य में ही हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि मात्र एक-एक पत्ता और केवल एक-एक मुट्ठी दाना ने मूलतःहमारी प्रवृत्ति बदल दी है। हमें देने का अभ्यास हो गया हो गया है। अब हम केवल देना ही जानते हैं। लेना बिल्कुल नहीं। अब हम केवल प्राण देना ही जानेंगे प्राण लेना बिल्कुल नहीं चाहे वह अपने आपका भी क्यों न हो। अब हम जीवन जीना ही जानेंगे जीवन लेना कदापि नहीं, कथमपि नहीं; हरगिज नहीं।

धरा हमसे सम्पूर्ण भार लेकर आधार देती है,
सूरज खुद तपकर हमें जीवन दायिनी शक्ति देता है,
जल जल-भुनकर बदली बनकर जल आगार देता है,
वृक्ष अंगार ओढ़कर बाँह पसारे छाँह देता है,
तब हमें इन सबको मात्र बाँह पसारे राह क्यों नहीं देना चाहिए
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