Friday, March 9, 2007

लेखक-परिचय

गौतम पटेल

जन्म
12 अक्टूबर 1948

जन्म- स्थान
मु.पो.-सालर
तहसील-रायगढ़
छत्तीसगढ़

शिक्षा
एमए, बीजे, कोविद, ज्योतिर्विद

उपाधि
ज्योतिष मर्मज्ञ

प्रकाशन
अग्रदूत, रौद्रमुखी, समवेत शिखर, महाकौशल, अमृत-संदेश, दैनिक भास्कर, नवभारत, जनसत्ता, संडे-मेल, हरिभूमि, नई दुनिया, पर्यावरण उर्जा टाइम्स, छत्तीसगढ़ी मानस हिंदी धारा, राष्ट्रीय न्यूज सर्विस(फीचर), रायगढ़ संदेश, जनकर्म, प्रखर समाचार, पहचान यात्रा, सृजनगाथा, आदि दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक पत्रिका में शताधिक रचनाओं का प्रकाशन

विशेष लेख
फ्यूचर समाचार, भारतीय प्राच्य दर्पण, ज्योतिष मंथन, ज्योतिष सागर, तंत्र-मंत्र

पुस्तकें
0 अमृत तुल्य स्तनपान (मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित)
0 हिरण्यगर्भ (शोध)
0 आत्महत्या (लघुशोध)

इंटरनेट पर ऑनलाइन कृति
0 हिरण्यगर्भ (http://hiranyagarva.blogspot.com/)

अप्रकाशित
0 हिंसा और अहिंसा
0 चौंसठ कर्म कलाकृति
0 लग्न कुंडली-योग मंडली

पदाधिकारी
राज्य प्रचार सचिव
छत्तीसगढ़ राज्य की महत्वपूर्ण संस्था - सृजन-सम्मान

संप्रति
छत्तीसगढ, शासन राजस्व विभाग में अधिकारी

संपर्क
पेंशनवाड़ा, रायपुर
छत्तीसगढ़
000000000000

प्रकाशक की ओर से

विदेह से सदेह की ओर गमनागमन । दूसरे शब्दों में आत्महत्या से आत्मरक्षा की ओर प्रस्थान । इसे हम यों भी कह सकते हैं कि जीवन- मरण से जीवन-भरण की ओर रवानगी । सम्पूर्ण संसार का सर्वाधिक हृदय विदारक महामारी यदि कोई कोई है तो वह है –‘आत्महत्या’।
इन दिनों अमेरीका,श्रीलका, इंग्लैण्ड, हालैण्ड भारत, पाकिस्तान, चीन और जापान में ही नहीं आखिल विश्व के कोने-कोने में आत्महत्या करने वालों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। ऐसा कोई दिन नहीं है जिस दिन के समाचार-पन्नों में आत्महत्या संबंधी समाचार प्रकाशित न हुआ हो । मरने के कारणों की सूची में आत्महत्या तमाम रोगों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। दुःख, कष्ट, व्यथा और व्याकुलता प्रत्येक युग में रहा है और रहेगा । लेकिन आत्महत्या किसी समस्या का समाधान किसी भी युग में न कभी रहा है और रहेगा । सभी धर्मो में ‘आत्महत्या’ को पाप माना गया है । सभी विधानों में ‘आत्महत्या को दण्डनीय अपराध माना गया है । इसके बावजूद इस दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं हे जो आत्महत्या जैसे घृणित निर्णय बड़ी आसानी से ले लेते हैं । इस शोध परक कृति में भागीरथ प्रयास किया गया है कि एन-केन-प्रकारेण आत्महत्या की हद तक बढ़ा हुआ व्यक्ति पुनः जीवन धारा की और कौट सके ।


जयप्रकाश मानस
सृजन सम्मान,रायपुर,छत्तीसगढ़

लेखकीय

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित एक प्रतिवेदन के अनुसार दस से पचपन वर्ष के उम्र में मरने वाले व्यक्तियों में जो पाँच प्रमुख कारण माने जाते है, उनमें से एक यही ‘आत्महत्या’ है। 1974 में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार सम्पूर्ण विश्व में प्रतिदिन 1000 व्यक्ति ‘आत्महत्या’ के माध्यम से अंतिम प्रस्थान करते हैं । 1983 के सर्वेक्षण के अनुसार यह संख्या बढ़कर प्रतिदिन 2400 व्यक्ति हो गया और विद्यमान 1993 के सर्वेक्षण के अनुसार यह संख्या बढ़कर प्रतिदिन 6000 व्यक्ति हो गया है । दूसरे शब्दों में प्रत्येक घंटे 250 व्यक्ति अथवा प्रत्येक मिनट 4.17 व्यक्ति ‘आत्महत्या’ करते हैं । यह संख्या किसी भी प्रकार की बीमारी ,दुर्घटना, प्राकृतिक प्रकोप तथा महामारी से मरने वालों की संख्या से अधिक है। इसे हम कालों का काल नहीं, कालों का महाकाल कहें तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।

जीते-जागते रहने का नाम है जीना और जीते जी मर जाने का नाम है आत्महत्या । प्राणधार अथवा प्राणाधारण करने वाले को ही बने रहना अथवा प्राण धारण किये रहना ही प्राणी का परम कर्त्तव्य है। दूसरे शब्दों में हर हाल में जीवन के दिन बिताना ही जीना है। इसमें अगर-मगर,किन्तु-परन्त, लेकिन, फिर भी के लिए कोई स्थान नहीं । निष्कर्ष यही कि हमें हर हाल में जीना है। मत्स्य नियम अर्थात बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। यह नियम तब भी था अभी भी है और आगे भी रहेगा । इसे हम किसी भी कीमत पर बदल नहीं सकते । जंगली विधान अर्थात् बड़े वृक्षों के नीचे छोटे वृक्ष नहीं पनप सकते । अतीत में भी नहीं, वर्तमान ममें भी नहीं और भविष्य में भी नहीं । यह एक प्राकृतिक विधि है। इसममें परिवर्तन प्रकृति को भी मान्य नहीं मवेशी कानून अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस । इसका अस्तित्व सदैव रहा है और रहेगा प्रत्येक युग में, प्रत्यंक मन्वन्तर में; प्रत्येक कल्प में। किसी भी सूरत में हम इससे मुकर नहीं सकते । इस कारण हमें चाहिए कि हम इन मत्स्य नियम, जंगली विधान और मवेशी कानून से प्रत्येक लड़ें-भिड़ें नहीं । इन पर हर हाल में मर-मिटें नहीं, अपितु प्रत्येक देश, काल और परिस्थिति में इनसे खुल्लमखुल्ला मुकबला करना चाहिए।

यहाँ एक पाशविक नियति का उल्लेख करना नितांत प्रासंगिक है। कहते हैं लोग कि शेर पीछे से वार नहीं करता, लेकिन वास्तविकता यह है कि शेर पीछे से ही वार करता है। हाँ, निश्चित रूप से वह धोखा नहीं देता । शेर कपटी, विश्वासघाती तथा धोखेबाज नहीं होता । वह कोई माया-जाल से नहीं अपनी चाल-चलन, चहल-कदमी से, संयमित पंजों के बल, नियंत्रित पंजों के बल हिरणीय झुण्ड के समीप पहुंचता है । शेरागमन की आहट को हिरण न सुन सके तो इसमें बेचारे शेर का क्या कसूर ? इनता ही नहीं वह अपने आक्रमण से पूर्व एक दहाड़ मारकर मानों ढिढोंरा पीटता है कि भागो, श्रवण-श्रोत से तुम्हें सूचना मिल चुकी कि अब तुम अपनी मौत करो । इसके तुरंत पश्चात जो हिरण अपने झुण्ड से पृथ्क, अलग, भिन्न अथवा अन्य दिशा की और भागता है शेर उसी का पीछा करता है। उसी को दौड़ाता है। अपेक्षाकृत तीब्र गति से सरपट दौड़ता है, छलांग लगाता है; झपटता है और अन्ततः अपने शिकंजे में दबोचता है। अब पछताये क्या होत है जब चिड़िया चुग गयी खेत । हिरण को काफी देर बाद अपने जीवन के अंतिम क्षणों में समझ में आया कि यदि मैं भी अपने झुण्ड के साथ मिलकर भागता तो निश्चित रूप से अपने साथी अनेक हिरणों से आगे रहता और आज मुझे अपनी जान से हाथ धोना नहीं पड़ता, क्योंकि शेर अपने सभी शिकार को भागने का, दौड़ने का पूरा-पूरा मौका देता है अवसर देता है, समय देता है और जो पीछे रह जाता है अथवा पीछे हो जाता है उसी को अपने शिकंजे में दबोचता है। यदि कोई वद्ध है, शावक हो, गर्भिणी है, आलसी अथवा निकम्मा हो तो भी इस शिकारी शेर-शिकार नियति के अन्तर्गत इस बेचारे शेर का क्या कसूर ? इसका सांकेतिक अभिप्राय यह है कि हमें तेज और तेज, आगे और आगे भागता है, दौड़ना है, निकलना है, कम से कम आक्रमक पंजों से आगे, प्रतिस्पद्धी पंजों से आगे, प्रतिद्वंदी पंजों से आगे ।

आत्महत्या से पूर्व लिखे गये पत्रों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से यद्यपि पूर्वाग्रह विद्रोही, विषयी, व्यभिचारी, कृत, विचलित, असंयमी, नियंत्रित, निराश, हताश, उदास, निकम्मा और अकर्मण्य छटपटाहट की बू आती है, तथापि निर्विवाद रूप से इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बहुतायत तंत्र, बहुसंख्यक तंत्र, घोटाला तंत्र, स्वार्थ तंत्र, अभाव तंत्र, चोर तंत्र लुटेरे तंत्र डकैत तंत्र, झूठ तंत्र, फरेब तंत्र, विश्वासघात तंत्र, घात तंत्र, हिंसा तंत्र, व्यभिचार तंत्र, अनाचार तंत्र, अत्याचार तंत्र, आलसी तंत्र, सुस्त तंत्र, निठल्ला तंत्र, अन्य न्यायमूर्ति तंत्र, अन्य व्यवस्थित न्याय व्यवस्था तंत्र, अन्य पीढ़ी न्याय तंत्र, अपमान तंत्र, अवहेलना तंत्र, अवमानना तंत्र, विवाह उपरांत तंत्र, सेवाकाल तंत्र, मरणोपंरात तंत्र, इत्यादि का अखण्ड साम्राज्य विद्यमान है। माना की जीने के अधिकार में मौत का अधिकार सम्मिलित नहीं है, पर जीवन के प्रति मोह को आर्थिक, मामाजिक, राजनीतिक और न्यायिक विसंगतियाँ समाप्त कर दें, यह अपने आप में भयानक तथ्य है, शर्मनाक तथ्य है, निन्दनीय तथ्य है, चिंतनीय तथ्य है, विचारणीय तथ्य है।

आत्महत्या की ओर उद्धत मानसिकता की सहायता के लिए “समारिटन” नामक एक समाज सेवी संस्था आगे आई है। इस संस्था के कार्यकर्ताओं का कहना है कि वे लोग दूरभाष के माध्यम से ऐसे व्यक्तियों की सहायता करते हैं । इस सहायता के लिए यह संस्था कोई शर्त नहीं रखती । “लायंस क्वब ऑफ मुम्बई पूर्व” द्वारा भी ऐसी ही सहायता प्रद्त्त कराई जा रही है। इस सम्बन्ध में “फादम्बिनी” नामक मासिक प्रकाशन सितम्बर 2005, वर्ष-45, अंक 11 वनशेष प्रशंसनीय है जिसके अन्तर्गत आत्महत्या के विरूद्ध व्यापक सामग्री उपल्ब्ध है। इसमें प्रकाशित कुछ भाव को यहाँ भी उजागर किया गया है। इस प्रकार और भी अनेकानेक संस्थाएँ दलित, शोषित पीड़ित, तापित, शापित, कंपित, लाचार, विवश, विक्षिप्त,आहत, घायल, अनाथ, असहाय, निराश्रित, अंगहीन, अपाहिज और अस्वस्थ व्यक्तयों की सेवा के लिए कापी लम्बे समय से उपना योगदान देती आ रही है। जिस काम को शासन शारकीय तौर-तरीके से नहीं कर पाती अथवा रका पाती उस काम को अशासकीय संस्थाएँ बखूबी कर लेतीं अथवा रका लेतीं हैं । चूँकि आत्महत्या महज एक शासकीय समस्या नहीं है, सिर्फ एक चिकित्सकीय समस्या नहीं है, केवल एक राष्ट्रीय समस्या नहीं है, मात्र एक सामाजिक या फिर सार्वजनिक संस्थाओं को ही नहीं अपितु प्रत्येक व्यक्ति को विशेष कर प्रबृद्ध वर्ग को व्यक्तिगत रूप से सामने आना चाहिए । महात्मा गाँधी के शब्दों में- “विचार पूर्वक किया हुआ श्रम उच्च से उच्चत्तम प्रकार की समाज सेवा है ।”
********

कर्त्तव्य कर्म


कर्म का आशय है-प्रारब्ध, भाग्य, काम, कार्य, कृत्य, क्रिया-कलाप, किसी सिद्धि के निमित्त किया जाने वाला प्रयत्न, जीविका, व्यवसाय, सेवा इत्यादि । इस जन्म में व्यक्ति आजीवन अग्रांकित कुल प्रमुखतः आठ प्रकार के कर्म का फल का स्वाद चखता है-

1 पूर्व जन्म का कर्म :
पूर्व जन्म के अंत मे अथवा अंतकाल के समय या फिर मृत्यु पूर्व जो अभिलाषाएं, इच्छाएं अथवा साकेतिक अभिप्राय यह है कि पूर्व जन्म का उक्त कर्म फल जीवात्मा को इस जन्म में भोगना ही पड़ता है। पूर्व जन्म की अपूर्ण अभिलाषाओं, इच्छाओं अथवा मनोकामनाओं को पूर्ण करने के मार्ग में जो-जो कठिनाईयां, परिशानियों और अवरोधक तत्व सामने आते हैं उन्हें पार करने हेतु व्यक्ति को अनेकानेक अत्यंत कठोर परिश्रम करना ही पड़ता है। इसे पूर्व जन्म का कर्म कहते हैं।

2. आनुवांशिक कर्म :
यह शरीर परदादा-परदादी, दादा-दादी, नाना-नानी और पिता-माता इन सबके रक्त के मेल से बना हुआ होने के कारण उन सबके कर्मों का प्रभाव अपने शरीर पर दृष्टिगोचार होता है जो व्यक्ति पुण्य कर्म और पाप कर्म करके भी उसके अच्छे तथा बुरे फल को नहीं भोगता तो भी वे कर्म फल नष्ट नहीं होते । उन कर्म फलों को उसके पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्रों को भोगना पड़ता है। इस कर्म को आनुवाशिक अथवा वंश-परम्परागत कर्म कहते है।

3. पितृ कर्म :
इसमें उन कर्मों को समावेश रहता है जो पिता द्वारा किये जाते हैं और जिसका फल सन्तान को भोगना पड़ता है। इसे पितृ कर्म कहा गया है।

4 . मातृ कर्म :
इसमें उन कर्मों का समावेश रहता है जो माता द्वारा किये जाते हैं और जसका फल सन्तान को भोगना पड़ता है। इसको मातृ कर्म कहा गया है ।

5. विरूद्ध लिंगीय कर्म :
इसमें पति-पत्नी अथवा प्रेमी-प्रेमिका संबंधी जो-जो अच्छे-बुरे कर्म पूर्व जन्म में अपने हाथों, हुए उन सब कर्मों का फल इस जन्म में भोगना पड़ता है। इसे विरूद्ध लिंगीय कर्म कहते हैं ।

6. पारिवारिक कर्म :
इसमें उन कर्मों का समावेश रहता है जो जनक-जननी तथा संतति द्वारा परस्पर किये गये कर्मों का फल एक-दूसरे को भोगना पड़ता है। इसको पारिवारिक कर्म के नाम से सम्बोधित किया जाता है ।

7. संसर्ग कर्मः
इसमें अपने मित्र-शत्रु, सज्जन-दुर्जन, संबंधी-विरोधी द्वारा परस्पर किये गये कर्मों का फल एक-दूसरे को भोगना पड़ता है। इसे संसर्ग कर्म अथवा कर्म का नाम दिया गया है।

8 . जन्म-भूमि कर्म :
इसमें अपने जन्म-स्थली, आस-पड़ोस, ग्राम्य-नगर, देश-परदेश द्वारा किये गये कर्मों का फल प्यक्ति को भोगना पड़ता है। इसे जन्म भूमि कर्म अथवा भू-कर्म कहा गया है।

यहाँ यह नितांत स्मरणीय बात है कि मनुष्य को इस जीवन में इन सब कर्मों का फल यथासमय भोगना ही पड़ता है। इसलिए मानव मात्र को आगन्तुक सर्वसम्बंधित शारिरिक कष्ट, हार्दिक दुःख और मानसिक वेदना को किसी भी देश-काल और परिस्थिति में झेलने हेतु सदैव तत्पर रहते हुए अपनी जीवन नैया को इस भवसागर से पार उतारना चाहिए ।
*********

शास्त्र निर्देश


जहाँ धर्म-अधर्म, अर्थ-अनर्थ, कर्म-अकर्म में संदेह उत्पन्न हो जाए वहाँ शास्त्रों से सहायता लेने सम्बंधी निर्देश भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के सोलहवें अध्याय में निम्नानुसार दिया है-

“यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।।23।।”


जो लोग शास्त्र विधि की अवहेलना करके स्वच्छानुसार मनमाने ढंग से आचरण करते हैं, वे न तो अन्तःकरण की शुद्धि को प्राप्त करते है, न सांसारिक सुख को प्राप्त करते हैं और न परम गति को ही प्राप्त करते हैं । चूंकि वे स्वेच्छाचारिता के कारण आन्तरिक भावों और सिद्धांतों को समझने में असमर्थ रहते हैं । इस कार वाह्य आडम्बरों को ही श्रेष्ठ समझते है। जिस प्रकार रोगी अपनी दृष्टि से तो अखाद्य पदार्थो का त्याग और खाद्य पदार्थों का सेवन करता है, लेकिन वह वास्तव में आशक्तितवश खाद्य पदार्थों को छोड़कर अखाद्य पदार्थों का सेवन कर लेता है। फलतः वह अपेक्षाकृत और अधिक अस्वस्थ हो जाता है। ठीक उसी प्रकार मन के छः शत्रु-काम, क्रोध, लोभ मोह, मद, मत्सर-से ग्रसित लोग अपनी दृष्टि से तो यज्ञ, परोपकार इत्यादि अच्छ-अच्छे कार्य करते हैं, अरंतु वास्तव में शास्त्रविधि को छोड़कर स्वनिर्मित विधि के अनुसार काम करने लग जाते हैं, परिणाम स्वरूप वे पूर्व की अपेक्षा और अधिक पतन के गहन गर्त में डूब जाते हैं । चूँकि अहंकार के कारण वे भीतर से द्वेष, घृणा, दुर्गुण, दुर्भाव तथा दुराग्रह से प्रेरित रहते हैं और बाहर से विख्यात, त्यागी, तपस्वी तथा महात्मा बनना चाहते हैं, इस कारण उनका, त्याग-राग में, उनकी महिमा निन्दा में, उनके गुण-अवगुण में परिवर्तित हो जाते है और आगे चलकर वे अधोगति की ओर चले जाते हैं । आसुरी सम्मत जो लोग शास्त्र विधि को त्याग कर अशुभ कर्म करते है, उनको धनधान्य, मान-सम्मान आदि के रूप में कुछ प्रसिद्धि तो अवश्य मिलती है पर आन्तरिक शुद्धि जो वास्तविक सिद्धि है, वह उनको कदापि नहीं मिलती ।
पदार्थों के संयोग से होने वाला सुख-जो दुःखों का कारण है अथवा जिससे दुःख ही दुःख उत्पन्न होते हैं-उन्हें मिल सकता है परंतु पारमार्थिक मार्ग में मिलने वाला सात्विक सुख उनको बिल्कुल नहीं मिल सकता । चूँकि वे भ्रष्टाचार से आई हुई सम्पत्ति से ही श्रेष्ठ आचरण करते हैं । इसलिए उनके अच्छे आचरण भी कुमार्ग में चले जाते हैं, जिस कारण उनको परम गति भी नहीं मिलती । सारांश यह है कि जो लोग अनादि सिद्धांत रूपी शास्त्रों का त्याग करके स्वेच्छा से भोग-विलास में पड़े रहते हैं और परम लक्ष्य के मार्ग पर नहीं चलते वे न आन्तरिक सुख प्राप्त कर सकते हैं, न वाह्म सुख प्राप्त कर सकते हैं और न मोक्ष सुख ही प्राप्त कर सकते हैं ।

“तस्माचछस्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।24।।”


तुम्हारे लिए कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि के अतंर्गत नियत कर्म को ही करने योग्य है – जिन लोगों को अपने प्राणों से मोह होता है वे किसमें प्रवृत्त होना है तथा किससे निवृत्त होना है यह नहीं जानते जिस कारण वे विशेष रूप से आसुरी सम्पदा की ओर प्रवृत्त होते हैं, इसलिए उनको सिद्धि प्राप्ति नहीं होती । इस कारण तू कर्तव्य और अकर्तत्य का निर्णय करने के लिए शास्त्र को ही सामने रखकर तद्नुसार अपने कर्तव्य का पालन कर, क्योंकि मानव जन्म की सार्थकता यही है कि वह शरीर और प्राण की मोह में न फँसकर केवल परम पद की प्राप्ति के उद्देश्य से शास्त्र संगत कर्तव्य कर्मों को करे । चूंकि इस भवसागर में मानव शरीर केवल श्रेष्ठ कर्म करके परम पद को प्राप्त करने के लिए ही मिला है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह इस अवसर को व्यर्थ न जाने दे । सदैव शास्त्र आदेशों का पालन करे ।
जिनकी महिमा शास्त्रों ने गायी है तथा जिनका व्यवहार शास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार होता है ऐसे महापुरूषों, ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं के आचरणों एवं वचनों के अनुसार चलना भी शास्त्रों अनुसार चलना है, क्योंकि उन महान आत्माओं और महान पुरूषों ने शास्त्रों को आदर दिया है तथा शास्त्रों के अनुसार चलने से ही वे श्रेष्ठ पुरूष तथा दिन्य आत्म बने हैं, परम आत्म तत्व को प्राप्त हुए हैं । वस्तुतः उन्हीं सदाचार-कदाचार का निर्णय करने से पूर्व इन अनुभवी शास्त्रकारों के अचल सिद्धांतों को जान लेना चाहिए और तदुपरांत उसका अनुसरण करने के पश्चात् आचार-विचार का निश्चय करना चाहिए ।

शाब्दिक दृष्टि से जो पुरूषार्थ-धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष-की प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम तथा निर्दोष उपायों को बतलाये, साथ ही सीमा के अन्दर अथवा मर्यादा के भीतर रहने की शिक्षा दे वह शास्त्र है। दूसरे शब्दों में जो जड़-चेतन सम्पूर्ण प्राणी जगत के लिए अनेकानेक प्रकार के सर्वोत्कृष्ट कर्त्तव्यों को सिखाए और विभिन्न प्रकार के निकृष्ट कर्त्तव्यों का निषेध करे वह शास्त्र है। इसका सांकेतिक आभिप्राय यह है कि सर्वसाधारण के हित के लिए विधि-विधान बनाने वाले ग्रन्थ का दूसरा नाम शास्त्र है । निष्कर्ष यह है कि क्रम से एकत्र किया गया किसी विषय संबंधी सम्पूर्ण ज्ञान का भण्डार ही शास्त्र है इस प्रकार इतना तो स्पष्ट है ही के शास्त्रों में नीति-नियम, विधि-विधान और कर्तव्य-कर्म होते ही हैं । भारतीय संस्कृति के अनुसार वे ही शास्त्र प्रामाणिक माने गये हैं जो वेदमूलक हैं । चार वेद, चार उपवेद, चार ब्राह्मण, छः वेदांग, छः वेद उपांग, पाँचवा वेद महाभारत और सम्पूर्ण मानव धर्मशास्त्रों में से सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य वाल्मिकी रामायण को पूर्णतः वेदमूलक माना गया है। अन्य धर्मशास्त्रो में बाइबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहब -----इत्यादि प्रमुख हैं । वैसे तो निर्विवाद रूप से जहाँ संदेह होता है वहाँ अन्तरात्मा की प्रवृत्ति ही सत्य का निर्देश करती है । इसका सांकेतिक प्रयोजन यह है कि सत्य-असत्य की परीक्षा के लिए स्वविवेक ही निष्कर्ष है ।
******

भूमिका



पूर्वाग्रह का आशय किसी वस्तु अथवा व्यक्ति के बारे में पूर्व निर्धारित आग्रह से है। आग्रह का अभिप्राय किसी वस्तु अथवा व्यक्ति, पद तथा प्रतिष्ठा की उपलब्धि अथवा प्राप्ति हेतु अनुरोध, तथा, परायण, जोर, हल, बल, जिद्द, आवेश इत्यादि से है। इसमें हम किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थान इत्यादि के संबंध में बिना किसी परख या परीक्षण के भली अथवा बुरी धारणा बना लेते है। अपने पारिवारिक, संबंध, जातीय, सामाजिक, राष्ट्रीय, राजनैतिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक व्यवहार में हम कुछ लोगों से बिना किसी परीक्षा किए प्रेम करने लग जाते है । परिणामस्वरूप उसके प्रति या फिर उसका हमारे प्रति सहयोग तथा सहानुभूति की भावनाएँ जागृत हो जाती है। इसके विरूद्ध कुछ लोगों से हम घृणा करने लग जाते हैं । फलतः उसके प्रति अथवा उसका हमारे प्रति असहयोग तथा संघर्ष की भावनाएँ पैदा हो जातीं हैं । इस प्रकार के सत्याग्रह और दुराग्रह को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के लिए न तो वह किसी पूर्व प्रमाण की आवश्यता समझता है और न ही कोई पूर्व परीक्षण की । इसी कारण किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रहों को अपरिपक्व निर्णय की संज्ञा दी जाती है। निराधार, निर्मूल तथा बेबुनियाद होने के कारण पूर्वाग्रहों को अनर्गल प्रलाप, मिथ्या प्रत्यय, सफेद जूठ, कोरी कल्पना और अंध विश्वास भी कहा जाता है ।

पूर्वाग्रह का यथार्थ से सत्यार्थ से तत्वार्थ से तथा वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता । पूर्वाग्रहों को व्यक्ति बिना किसी पूर्व परख अथवा पूर्व परीक्षा के स्वीकार कर लेता है। पूर्वाग्रह अज्ञात, अज्ञान अथवा अनजान पर आधारित है। पूर्वाग्रह संवेगों से संबंधित है। पूर्वाग्रह अनिर्णित विश्वासों पर आधारित है । पूर्वाग्रह अतार्किक होता है, अचेतन होता है, ज्ञानशून्य होता है । दुरात्मा, दुराचारी, दुराग्रही, अड़ीयल, हठी तथा जिद्दी व्यक्ति का सोच-विचार, पठन-पाठन, चिंतन-मनन और संकल्प-विकल्प स्वनिर्णित होता है, स्वमान्य होता है । मुझे अमुक खिलौना मिलना चाहिए, यदि नहीं तो अंतिम झूला भूल जाऊँगा । मुझे अमुक पल चाहिए अन्यथा अमुख फल का सेवनकर जाऊँगा । मुझे अमुक धुआँ होना अन्यथा मौत का कुआँ । मुझे अमुख सुख होना अन्यथा विमुख । मुझे अमुक दुआ होना नहीं तो दवा-दारू । मुझे त्वरित रोग नाशक दवा होना अन्यथा कीटनाशक । ऐसी विकृत सोच-विचार का ही दूसरा है दूराचार, दुराग्रह, पूर्वाग्रह ।

विद्या किसी पाठाशाला, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय या फिर इसी प्रकार किसी भी शैक्षणिक संस्था द्वारा ज्ञान के किसी विशेष संकाय के अतंर्गत किसी विशेष विभाग के अधीन किसी विशेष विषय में कुछ ज्ञानियों द्वारा कुछ मात्र में प्रदत्त प्राप्तांक सूची है। बुद्धि कामना, मनोरथ, मनमाना अथवा वासना का दासी है। वह दासत्व सेवा करने तथा आज्ञा मानने के अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य नहीं कर सकती । विवेक अमूर्त शक्ति है जो मानव को निष्कर्ष निकालने में सहायता करती है। विवेक के माध्यम से व्यक्ति यह निश्चित करता है कि उसे क्या करना चाहिए अथवा क्या नहीं करना चाहिए । विभिन्न देश, काल और परिस्थितियों में व्यक्ति के समक्ष अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प का चयन करें यह निर्णय विवेक की सहायता से ही किया जा सकता है। परम पिता परमात्मा प्रदत्त, मालिक प्रदत्त या फिर प्रकृति प्रदत्त जलीय, थलीय, नभीय, मानवीय, पाशविक, जीवाण, अणु, परमाणु इत्यादि सम्पूर्ण शक्तियों में विवेक शक्ति सर्वश्रेष्ठ है, सर्वोच्च है, सर्वोपरि है, सर्वोत्कृष्ट है, सर्वोत्तम है। अतएव मानवीय दृष्टिकोण से व्यक्ति के लिए विवेक शक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मानवीय धरातल पर विवेक शून्य व्यक्ति के लिए कोई स्थान सुरक्षित नहीं ।

यथार्थ ज्ञान से मिथ्या मिट जाता है। मिथ्या ज्ञान के मिटने से राग-द्वेष इत्यादि विनष्ट हो जाते हैं । राग-द्वेष के नष्ट हो जाने से व्यसन-प्रवृत्ति विलुप्त हो जाती है व्यसन-प्रवृत्ति लुप्त हो जाने से दुष्कर्मों से भी निवृत्ति हो जाती है। अब जो भी कर्म किये जाते हैं वे केवल कर्म अथवा मात्र कर्त्तव्य कर्म-भावना से प्रेरित होते हैं । ऐसे कर्मों से भाग्य नहीं बनता । भाग्य के न बनने से जनम-मरण भी नहीं होते । जनम-मरण के न होने से सुख-दुख भी नहीं होते । सुख-दुःख की यही निपट-निरा निवृत्ति मानव जीवन का परम लक्ष्य है। तत्वार्थ ज्ञान का प्रमुख उद्देश्य है तत्वार्थ के स्वरूप को समझना । जो तत्वार्थ के स्वरूप को समझ लेता है वह अपने आपको समझ लेता है, आत्म तत्व को समझ लेता है, साथ ही सृष्टि के अन्य रहस्यों को भी समझ लेता है। इस प्रकार तत्वज्ञान ही मानव जीवन को वास्तविक दिशा प्रदान करता है मानव जीवन को यद्व्यवहार की ओर प्रेरित करता है और इसी से प्राणी के लोक और परलोक दोनों सुधरते हैं।

सत्यार्थ को समस्त स्वरूप में देखना अथवा हृदयंगम करना असंभव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है । इस कारण विभिन्न दृष्टिकोण से इसे परखने हेतु वेद-पुराणों, उपवेद-उपनिषदों, काव्य-ग्रंथों, शास्त्र-साहित्यों की रचना हुई है। कुछ रचना परा विज्ञान और कुछ रचना अपरा विज्ञान से संबंधित होते हैं। किसी विशेष उद्देश्य के अनुरूप उनके प्रतिपादक विषय होते हैं। इसी कारण लगभग सभी रचना के प्रतिपाद्य विषय पदार्थ के नाम से सम्बोधित किये जाते है। विषयान्तर्गत शब्दकोष पद को कार्य, काम, कृत्य अथवा कर्म के नाम से सम्मानित करता है। कार्य का जो तात्पर्य होता है काम का जो धाम होता है कृत्य का जो वृत्य होता है, कर्म का जो मर्म होता है, पद का जो अर्थ होता है वही कार्यार्थ होता है, कामार्थ होता है, कृत्यार्य होता है, कर्मार्थ होता है, मर्मार्थ होता है, पदार्थ होता है।

पदार्थों, मर्माथों, कर्माथों, कृत्यार्थो, कामार्थों की परीक्षा के लिए प्रमाणों का निरूपण किया गया है। प्रमाण वह कसौटी है जिस पर कस कर किसी भी बात की सत्यता अथवा उसकी वास्तविकता को परखा जाता है। यथार्थ ज्ञान का साधकतम कारण जिसके उपस्थित होते ही तत्वार्थ ज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है, प्रमाण कहलाता है। प्रमाण के वोधक शब्द है-प्रतीति, विश्वसनीय, सच्चाई, निश्चय, चरितार्थ, सत्यार्थ तत्वर्थ, यथार्थ, पदार्थ इत्यादि । प्रमाण के अनेक साधन हैं, अनेक संधान हैं, अनेक विधि हैं, अनेक विधान हैं, अनेक युक्ति हैं, अनेक पद्धति हैं, अनेक संस्कार हैं, अनेक प्रकार हैं, अनेक आचरण है, अनेक उपकरण है । समझ-बूझकर, सुनकर, सूंघकर, छूकर, चखकर, तुलनाकर, तुलाकर, चिंतन-मननकर किसी भी बात को प्रमाणित किया जा सकता है।

(अ) तर्कशास्त्र के आधार पर कारित,कार्यरत, कार्यार्थों, कार्यकारी अथवा कार्यवाहक पदों, कार्यों अथवा कृत्यों को निम्नानुसार नौ प्रमुख भागों में विभक्त किया जा रहा है-

1. रचना की दृष्टि से - सरल, जटिल तथा कुटिल
2. अर्थ की दृष्टि से - एकार्थक, अनेकार्थक तथा निरर्थक
3. वचन की दृष्टि से - एक वचनीय, बहुवचनीय तथा अवचनीय
4. संगठन की दृष्टि से - व्यक्तिगत, संगठित तथा विघटित
5. स्थिति की दृष्टि से - पदस्थ, पदच्युत तथा पदात्याग
6. अस्तित्व की दृष्टि से - निराकर, साकार तथा विकार
7. स्वभाव की दृष्टि से - आध्यत्मिक तथा आपराधिक
8. संबंध की दृष्टि से - आत्मीय, सम्बंद्ध तथा अलगाव
9. गुण की दृष्टि से - निर्गुण, सगुण तथा अवगुण

(ब) सांख्यशास्त्र के आधार पर कुल पच्चीस तत्वों को अग्रांकित चार वर्गो मं बांटा जा रहा है-

1. न प्रकृति न विकृति-
ऐसा तत्व जो न कारण हो और न कार्य अर्थात् न स्वयं किसी को उत्पन्न करता हो और न किसी दूसरे से उत्पन होता हो ।

2. प्रकृति-विकृति-
ऐसे तत्व जो कारण और कार्य दोनों हों अर्थात् दूरसों को उत्पन्न करते हों ।

3. प्रकृति-
ऐसा तत्व जो कारण हो, किंतु कार्य न हो अर्थात् अन्य सभी को उत्पन्न करता हो,किंतु स्वयं किसी से उप्पन्न न होता है ।

4. विकृति-
ऐसे तत्व जो कार्य हों, लेकिन कारण न हों अर्थात् स्वतः तो दूसरे से उत्पन्न होते हों लेकिन किसी को उत्पन्न न करते हों ।

(स) वैशोषिक दर्शन के आधार पर निम्नांकित पंचकर्म भेद प्रस्तुत किया जा रहा है-

1. उत्क्षेपण –
उत्क्षेपण का अर्थ है, ऊपर की ओर फेंकना, ऊपर जाना, ऊपर उठना, जिस कर्म के द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का ऊपरी प्रदेश के साथ संयोग होता है उसे उत्क्षेपण कहते है दूसरे शब्दों में इसे हम हवाई उड़ान, पांव जमीं पर न पड़ना, चादर से अधिक पांव पसारना भी कह सकते हैं।

2. अवक्षेपण –
अवक्षेपण का अर्थ है नीचे की ओर फैकना, गिराव, अधःपात, नीचेकी ओर गिरना, नीचे कजाना, अधःपतन जिस कर्म के द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का अधोप्रदेश से संयोग होता है उसे अवक्षेपण कहते है, दूसरे शब्दों मेंइस हम अधोगतदि, अवगति, दुर्गति, दुर्दशा अथवा नरक गमन भी कह सकते है।

3. प्रसारण -
प्रसारण का अर्थ है फैलाना, बढ़ाना, विस्तार करना जिस कर्म के द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ के अंग-प्रत्यंगों का दूरवर्ति प्रदेशों के साथ संयोग होता है उसे प्रसारण कहते हैं. दूसरे शब्दों में इसे हम फैलाव, बढ़ाव, तनाव अथवा उत्तेजन भी कह सकते हैं ।

4. आकुंचन-
आकुंचन का अर्थ है संकोचन, चिकुड़न, सिमटन, जिस कर्म द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का शरीर के और अधिक सन्निकट प्रदेश के साथ संयोग होता है उसे सांकुचन कहते है। दूसरे शब्दों में इसे हम संकुचित होना, हिचकना, झिझकना, कुंठित होना, तथा लज्जित होना भी कह सकते हैं।

5. गगन -
गगन का अर्थ है चलन, प्रस्थान, गतिमान। जिस कर्मके द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का चलनात्मक क्रिया के साथ संयोग होता है उसे गमन करते हैं ।दूसरे शब्दों में इसे हम चलायमान, चंचल, अस्थिर, अनिश्चित, असंयमित, असंतुलित, डांवाडोल तथा अठहराव भी कह सकते हैं।

उपरोक्तानुसार वर्णित तथ्यों से स्पष्ट है कि कुटिल, अनर्थक ,अवचनीय, विघटित, पदत्याग, विकार आपराधिक, अलगाव, अवगुण, विकृति, उत्क्षेपण, अवक्षेपण, प्रसारण, आकुंचण, गगन अथवा अठहराव इत्यादि अनेक लगभग समान उत्प्ररेक अथवा उद्वेलक शब्दों की अंतिम दुःखद परिणिति है यत्न साध्य महाप्रयाण बनाम आत्महत्या ।
********

कृतघ्न


अन्यों की हत्या करने वाले हत्यारे तो पश्चाताप अथवा यथायोग्य सजा काटकर प्रायश्चित कर सकते हैं किन्तु आत्म-हत्यारों को तो प्रायश्चित करने का मौका भी नहीं मिलता । माना कि किसी ने उन पर अत्याचार किया हो किन्तु उनके सभी अनेक सम्बन्धियों की कृपा उन पर बनी रहती है। उनके द्वारा की गई कृपा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का मौका उन्हें नहीं मिलता। इस कारण वे सदा-सर्वदा के कृतघ्न बने रहते हैं।

एक समय था जब वनग्रामों में ही जीवन था। सही मायने में ग्रामीण अंचलों में ही परस्पर जुड़ाव था, लगाव था, मिलन था अन्यत्र कहीं भीं नहीं । सम्पूर्ण ग्राम्य जीवन एक सामूहिक जीवन दर्शन था । अस्त-वयस्त नहीं मस्त-मस्त था। ग्राम्य प्रमुख की एक व्यवस्था होती थी और ग्रामीणों का जीवन व्यवस्थित होता था। किसी भी समस्या का समाधान केवल साथ मिलकर ही करते थे । सम्पूर्ण ग्राम एक परिवार होता था ।संयुक्तीकरण, समन्वय और सामंजस्य स्थापित करना इनका प्रमुख कर्त्तव्य होता था। केवल समर्पण भाव का ही राज्य था। केवल युक्ति युक्त भक्ति भाव का ही गान था। निरन्तर सेवा भाव का ही प्रचलन थी। प्रागैतिहासिक काल के प्रारम्भिक चरण में जब किसी गाँव की कोई महिला गर्भवती होती थी तब उस गाँव के दूधारू गाय का स्वामी उस गर्भिणी महिला के घर निःशुल्क दूध पहुँचाना अपना कर्त्तव्य समझता था। क्योंकि ग्रामीण आपस में भावनात्मक रूप के जुड़े हुए थे।

धीरे-धीरे नवजात शिशु को जब दूध की आवश्यकता हुई तब उसके लिए निःशुल्क दूध पहुँचाना गोस्वामी अपना कर्त्तव्य समझने लगा । इसका मात्र एक ही कारण था समस्त ग्रामीणों का आपस में भावनात्मक रूप से जुड़ा होना । यही कारण था समस्त ग्राणीणों का आपस करने की प्रवृत्ति देखने-सुनने की भी नहीं मिलती थी। धीरे-धीरे शुल्क सहित शुद्ध दूध मिलने लगा। तदुपरान्त क्रमशः न्यूनाधिक रूप से कृत्रिम दूध भी नसीब नहीं। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि आज भाँति-भाँति के रासायनिक दूध का बाजार गर्म है। इसी गर्म जोशी में दूध दूषित होने के कारण लोगों की भावनाएँ भी दूषित हो गयी है और आत्महत्या न करने की प्रकृति दूषित होकर आत्महत्या करने की ओर तेजगति से अग्रसर हो रही है।

कृषि का व्यवसायीकरण कृषकों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रहा है। कृषि आज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का साधन नहीं है। आज सरकार किसानों के साधारण जीवन शैली से सन्तुष्ट नहीं है। आज शासन अधिक अन्न उपजाओ का नारा देकर ऋण के ऊपर ऋण घर-घर पहुँचा रहा । आज किसानों को अपने पेट भरने के लिए अन्न-उत्पादन करने की आवश्यकता नहीं, अपितु राष्ट्र के नागरिकों के पेट भरने के लिए अधिक अन्न अत्पादन करने की आवश्यकता है। इस कारण शासन कृषकों को हरेक प्रकार के साधन उपलब्ध कराने के लिए कृत संकल्प है। फलतः कृषि के क्षेत्र में प्रत्येक साधन के लिए ऋण क्रमशः ऋण पर ऋण; कभी न समाप्त होने वाले ऋण । आज लगभग प्रत्येक कृषक का प्रत्येक अंग ऋण ग्रस्तता का शिकार है।

जहाँ तक फसल बीमा का सवाल है - कृषक के तमाम खेतों के लिए फसल बीमा नहीं किया जाता । जहाँ सिंचाई का साधन है वहीं का फसल बीमा किया जाता है। केवल 60 प्रतिशत उत्पादन को 100 प्रतिशत उत्पादन माना जाता है। फसल बीमा युक्त खेत पर फसल न होने से फसल बीमा का मुआवजा नहीं मिलता अपितु तहसील स्तर पर यदि वह तहसील अकाल ग्रस्त होने की स्थिति में मुआवजा मिलता है। केवल एक कृषक ही नहीं, बल्कि गाँव के समस्त कृष्कों का सकल खेत भी सूख कर राख हो जाय तो भी इसका हर्जाना केवल उन कृषकों को ही भुगतना पड़ता है। शासन का इससे कोई लेना देना नहीं । किसान चाहे माथा फोड़े अथवा सर कटाये, फाँसी चढ़े या फिर जहर खाये।

देश के विकास में हाथ बटाने के लिए भारतीय कृषक अधिकाधिक अन्न उत्पादन हेतु ऋण पर ऋण लेने के कारण कभी-कभार उस पर भारी हीन हीं बहुत भारी ऋण हो जाता है और फसलों के दाम गिर जाने अथवा फसल चौपट हो जाने के कारण एक स्थिति बन जाती है कि गन्ना कटाई अथवा फसल कटाई यहाँ तक फसल तोड़ाई (मिर्ची, मूँग,टमाटर) का खर्च भी वसूल नहीं हो पाता। इस स्थिति में लागत व्यय का सवाल तो कोसों दूर की बात है। इन परिस्थितियों में मुनाफा प्राप्ति की तो सपना भी नहीं देख सकते। और कोई चारा न रहने के कारण किसान खेत बेचने पर मजबूर हो जाता है। जब शत-प्रतिशत खेत से दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव नहीं थी तब कुछ कम खेत से पूर्ति कैसे सम्भव है ? फलतः निरन्तर खेत विक्रय की प्रकृति और अन्ततः सब-कुछ समाप्त होने के पश्चात् इस पिण्ड की आहूति या पिण्डत्याग अथवा आत्महत्या ।

इस धरातल पर ईश्वर प्रदत्त श्रेष्ठत्तम अधिकार यदि कोई है तो वह है शरीरी रहना अथवा तन धारण करना। देह धारण कर आजीवन जीवन-यापन करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के शब्दों में जिस प्रकार स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। जीना हमारा हक है। हमें अपने हक को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जिस प्रकार हम अपने घर-गृहस्थी, मकान-दूकान, खेत-खलिहान का एक टुकड़ा भी छोड़ना परंद नहीं करते ठीक उसी प्रकार हमें अपने शरीर को भी छोड़ना पसंद नहीं करना चाहिए । जान है तो जहान है। आज तिथि तक जीतने भी आत्महत्या विषयक मौत के मुँह से बच कर नई जिन्दगी शुरु किये हैं उनमें से लगभग सभी को पछताना है कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यो किया ?

लोकनायक जयप्रकाश नारायण के शब्दों में जिस प्रकार समग्र क्रान्ति का नारा है - भावी इतिहास हमारा है, ठीक उसी प्रकार हमें भी समग्र संघर्ष का नारा देना है । असफलता का एक मात्र कारण है प्रयास में कमी । हमें भरसक प्रयास करना है मुँह मारने वालों को मुँहतोड़ जवाब देने के लिए। थोड़ा सा मुस्करा दोगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा ? मुस्करा दिए। थोड़ा सा हँस दोगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा ? हँस दिए और हँसे कि फँसे । फाँसी पर चढ़ने से पूर्व का यही एकमात्र मूल मंत्र है। आ बैठ मेरे पास और थोड़ा था मुखड़ा देखने दोगी तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा ? इतना कह देना मात्र बहुत दूर की बात हो गई । अब हम हाँ कहें या नहीं । इससे फर्क नहीं पड़ता । प्रथम चरण में मुस्कराना ही फँसना-फँसाना है। मुखड़ा ही नहीं मुखड़े के बोल भी हर हाल में आक्रामक होना चाहिए, केवल आक्रामक, संघर्षमय, क्रान्तिकारी । तभी हम इस बेदर्दी ज़माने से लोहा ले सकते हैं। अन्यथा जीवन अँधकारमय । घुटन-ही घुटन। पछतावा-ही पछतावा।

जहाँ तक वस्त्राभूषण का सवाल है - वस्त्र के रूप मे केवल एक लंगोटी नुमा परिधान और आभूषण के रूप में मात्र एक लाठी। एक महान अधिवक्ता के जुबान में केवल राम-राम अधिक हुआ तो ‘रघुपति राघव राजा राम’ । इससे और कम क्या हो सकता है ? हम में इन सबसे तो अधिक है ही। फिर काहे की चिन्ता ? ध्यान रहे चाह ही दुःख का कारण है। यह हुआ तो वह और वह हुआ तो पुनः वह। इस वह-वह की चाह कभी पूर्ण नहीं होती। इसलिए न चाहना ही ठीक। यह भी नहीं और वह भी नहीं।कोई चाह नहीं तो फिर दुःख काहे का । कोई दुःख नहीं, कोई कष्ट नहीं, कोई घुटन नहीं, कोई टूटन नहीं तो फिर फाँसी का फँदा कैसे ? कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी जर्जर अवस्था में भी जीवन की कामना करते हैं। उन्हीं के शब्दों में –

इस सुन्दर सृष्टि से विदा लेकर मैं मरना नहीं चाहता, मानवों के बीच रहते हुए मैं और “जीना चाहता हूँ।”

सुभाष चन्द्र बोस का एक नारा आज भी विद्यमान है- “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा।” यह केवल खून और आजादी से सम्बन्धित नारा नहीं है। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार इसका भावार्थ अथवा तत्त्वार्थ समझना चाहिए । न केवल इसी नारे का अपितु लगभग सभी महापुरुषों के नारों का भी केवल शब्दार्थ ही नहीं, अपितु तथ्यार्थ भी समझना चाहिए ।

विषयान्तर्गत अभी हम केवल सुभाष बाबू के ही शब्दों को लेते हैं। कुछ क्षण के लिए हम मान भी लेते हैं कि हम खून नहीं दे सकते और हमें आजादी नहीं चाहिए। तो फिर हम किसी को दो मिर्ची तो दे सकते हैं। दो नहीं सिर्फ एक सही । एक तुलसी पत्ता तो दे सकते हैं। एक पुदीना पत्ता तो दे सकते हैं। एक मीठी नीम की पत्ती तो दे सकते हैं। दे के तो देखें । हमें इतना सकून मिलता है कि हम उसका बखान नहीं कर सकते । मात्र एक मुट्ठी चावल किसी पात्र को देकर तो देखें। हमें इतना चैन मिलता है कि हमारे पास वे शब्द नहीं जिससे हम उसका वर्णन कर सकें। केवल एक मुट्ठी दाना बिखेर कर तो देखें । चिड़ियों के चुगने पर हमें कितना आनन्द मिलता है ? आजमायें तो सही। परखना तो सीखें । परीक्षण तो करें। अधिक दिन प्रतीक्षा दिन प्रतीक्षा करने की आवश्यकता बिल्कुल नहीं । निकट भविष्य में ही हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि मात्र एक-एक पत्ता और केवल एक-एक मुट्ठी दाना ने मूलतःहमारी प्रवृत्ति बदल दी है। हमें देने का अभ्यास हो गया हो गया है। अब हम केवल देना ही जानते हैं। लेना बिल्कुल नहीं। अब हम केवल प्राण देना ही जानेंगे प्राण लेना बिल्कुल नहीं चाहे वह अपने आपका भी क्यों न हो। अब हम जीवन जीना ही जानेंगे जीवन लेना कदापि नहीं, कथमपि नहीं; हरगिज नहीं।

धरा हमसे सम्पूर्ण भार लेकर आधार देती है,
सूरज खुद तपकर हमें जीवन दायिनी शक्ति देता है,
जल जल-भुनकर बदली बनकर जल आगार देता है,
वृक्ष अंगार ओढ़कर बाँह पसारे छाँह देता है,
तब हमें इन सबको मात्र बाँह पसारे राह क्यों नहीं देना चाहिए
*********

गीता-महाभारत



“कामात् क्रोधाद् भयाद् वापि-यदि चेत् संत्यजेत् तनुम्।
सोनन्तं नरकं यादि आत्महन्तृत्वकारणात्।।”

महाभारत-6/145


“यदि कोई काम, क्रोध अथवा भय से शरीर का त्याग करे तो वह आत्महत्या करने के कारण अनन्त नरक में जाता है।” इस मृत्युलोक में दो प्रकार की मृत्यु होती है -एक स्वाभाविक और दूसरी यत्नसाध्य । जो स्वाभाविक मृत्यु है वह अपनी इच्छा से नहीं होती, स्वतः प्राप्त होती है। जो स्वाभाविक मृत्यु है वह अटल है, उसमें कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं होता, किन्तु जो यत्नसाध्य मृत्यु है वह विविध साधन-सामग्री के माध्यम से सम्भव होती है। समर्थ होते हुए भी स्वयं को मारने की इच्छा से स्वशरीर त्याग करने का दूसरा नाम है “आत्महत्या” ।

सृष्टि के प्रारम्भिक चरण से ही पुनर्जन्म और पुनर्मरण नामक यह जीवन-काल चक्र निरन्तर चलता चला आ रहा है। भक्ति की दृष्टि से अभक्ति, अनास्था, अश्रद्धा,अविश्वास, अप्रत्यय, अनिदिंष्ट, अनियत, निश्चय, अप्रसन्नता, अमनोयोग, अन्यमनस्क, अनमना, अनवधान, असावधानी, अवज्ञा, अनादर,अपमान, उदासी, प्रमाद अविद्या, भ्रांति, संदेह, विमुख, विरति, माया तथा मोह के कारण और कर्म की दृष्टि से अकर्म, अकर्मक, अकर्मण्य, अउद्यम, दुष्कर्म तथा कुकर्म के कारण जन्म-मरण होता है। नास्तिकता, अज्ञानता और स्वार्थ परायणता के कारण प्राणी जनम-मरण के कष्टों को बारम्बार झेलता रहा है और रहेगा। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि अमनोयोग अज्ञानांधकार तथा स्वप्रयोजन ही इस भवचक्र के प्रमुक कारण हैं और भक्तिभाव, बुद्धत्व तथा निष्काम कर्मयोग मोक्ष प्राप्ति के प्रमुख साधन।

चूकि अपनी जानकारी के अनुसार अनादरणीय कर्म करने के कारण इस भवसागर के भवजाल में फंसे हुए हैं, इसलिए अपनी जानकारी के अनुसार आदरणीय कर्म करने से ही भवबंधन मुक्त हो सकते हैं। जिस प्रकार कोई हमें सुख देता है तो अच्छा लगता है और दुःख देता हैं। सत्य बोलना ठीक है और झूठ बोलना गलत, ऐसा जानते हुए भी हम स्वार्थ के लिए झूठ बोल देते हैं। उसी प्रकार शरीर आदि सब जाने वाले हैं; रहने वाले नहीं है, ऐसा जानते हुए भी हम इसके जाने में (यत्नसाध्य काल के गाल में समाकर प्रेतयोनि में विश्राम करते हुए चोला बदलते तक) बाधक बनते हैं, इसे रोके रखने की कुचेष्टा करते हैं, यही अपनी जानकारी का अनादर करना है और यही दुःखदायी जनम-मरण का प्रमुख कारण है। आयु प्रतिक्षण समाप्त हो रही है, शरीर प्रतिक्षण जीर्ण हो रहा है और वह प्रतिक्षण मर रहा है। वह क्षण मात्र के लिए भी स्थिर या वक्री नहीं है, प्रतिक्षण मार्गी है। जिस प्रकार युवा होने होने से बालकपन मर जाता है और वृद्धा होने से युवापन, ठीक उसी प्रकार दूसरा शरीर धारण करने से पहला शरीर मर जाता है और तीसरा शरीर धारण करने से दूसरा शरीर । आज दिनांक तक इसने कितने शरीर धारण किये हैं, इसकी गणना कर पाना असम्भव है। जब तक शरीर को अपने वास्तविक स्वरूप का तत्वार्थ बोध नहीं होता तब तक यह शरीर अनन्त काल तक शरीर धारण करता ही रहता है।

अणु-आत्मा द्वारा शरीर परिवर्तन एक स्वीकृत तथ्य है। जो आधुनिक वैज्ञानिक आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते और हृदय ये शक्ति साधन की व्यवस्था भी नहीं कर पाते, वही उन परिवर्तनों को स्वीकार करने को विवश है जो क्रमशः भ्रूण, नवज, शिशु, बालक, कुमार, तरूण, नवयुवा, युवा, प्रौढ़, वृद्ध और जरावस्था हो जाता है। भ्रूणावस्था से लेकर दूसरे शरीर तक स्थानान्तरण परम्-पिता परमात्मा की असीम कृपा से ही सम्भव हो पाता है, किसी भी प्राणी की कृपा से कदापि नहीं । जिस प्रकार व्यक्ति बालकपन को पार किये बिना युवावस्था प्राप्त नहीं कर सकता, युवावस्था को पार किये बिना वृद्धावस्था प्राप्त नहीं कर सकता, ठीक उसी प्रकार परमेश्वर प्रदत्त पूर्णायु को पार किये बिना देहान्तर अथवा अन्य शरीर प्राप्त नहीं कर सकता । इस बीच जब कोई यत्नसाध्य काल कवलित होता है अथवा आत्महत्या करता है तब जीवात्मा पूर्णोंयु तक प्रेतयोनि में वास करता है। इस प्रकार वास्तव में आत्महत्या शारीरिक परिवर्तन में बाधक है।

“नहीं स्वर्ग कोई धरावर्ग है, जहाँ का भाव है, स्वर्ग है।
सदाचार ही गौरवागार है, मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है।।”

-राष्ट्रकवि स्व. मैथिलीशरण जी गुप्त


अहिंसा का अभिप्राय केवल हत्या न करना ही नहीं है वरन् तन-मन-धन, मन-वचन,कर्म या फिर अन्य किसी भी प्रकार से 84 लाख योनियों को ही नही, अपितु वनस्पतियों को भी कष्ट न पहुँचाना है। प्राणी मात्र के प्रति अंतस्तल से सद्भावना का दूसरा नाम है अहिंसा । दूसरे शब्दों में अहिंसा अपने क्रियात्मक रुप में सकल जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का पूर्णतः अभाव का पर्याय है। जिस प्रकार “अपनी नाम कटे तो कटे दूसरे का सगुन तो बिगड़े” वाली प्रवृत्ति भी निर्विवाद रूप से हिंसा ही है, ठीक उसी प्रकार “अपनी कब्र आप खोदना” अथवा यत्नसाध्य काल को अंगीकार करना भी निःसंदेह हिंसा ही है। चूंकि हिंसा पाप कर्म है, पातक है, गुनाह है, इसलिए आत्महत्या भी अपराध है, दोष है, अन्याय है, अत्याचार है, जुर्म है। चित्त का एक संस्कार जो अनुभव और स्मृति से उत्पन्न होता “भावना” कहलाता है, अच्छा भाव, उच्च विचार और मनभावन चिंतन का प्रबोधक शब्द है सद्भावना। चूंकि आत्महत्या का सद्भावना, सद्विचार, सच्चा भाव, निष्कपट भाव, मैत्री भाव, तालमेल, मेल जोल तथा समन्वय से किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं है, इसलिए यह अनादरणीय है, अपमाननीय है, निंदनीय है, घृणित है, त्याज्य है।

“यः शास्त्रविधइमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोप्ति न सुखं न परां गतिम्”

-श्रीमद्भगवद्गीता-16/23


“जो मनुष्य शास्त्र विधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मानमाना आचरण करता है वह न तो सिद्धि (अंतस्तल की युद्धि) को प्राप्त होता है, न सुख को और न परम गति को ही प्राप्त होता है।”

चूंकि शास्त्रविधि की अवहेलना करने से मनुष्य को परम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह स्वेच्छाचारिता का वर्ताव न करे। इस भवसागर में मानव तन केवल वेदविहित श्रेष्ठ कर्म करके परमपिता को प्राप्त करने के लिए ही मिला है, इसलिए मानव मात्र को चाहिए कि वह इस अवसर को कभी भी किसा भी दशा में वृथा न जाने दे । यद्यपि लोग बाह्य आचरणों को ही विशेष महत्व देते हैं तथापि वास्तव में आंतरिक भावों का ही विशेष महत्व है । जहां तक दान देने का प्रश्न है कितना दिया ? कोई महत्व नहीं, क्यों त्यागा ? इसका विशेष महत्व है । इसी प्रकार जहां तक त्याग का प्रश्न है क्या त्यागा ? इसका विशेष महत्व है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मयस्सर इत्यादि के अज्ञानंधकार में विलुप्त व्यक्ति देना को दान और किसी वस्तु पर से अपने स्वत्व हटा लेने की क्रिया अथवा किसी वस्तु पर से अपना अधिकार छोड़ देने की क्रिया को त्याग समझ लेता है । इस परिधि में यत्नसाध्य देहत्याग देना अथवा यत्नसाध्य प्राणत्याग देना को भी समेट कर मटियामेट कर देता है, जबकि वास्तव में आत्महत्या मनमानी दुष्कृति है, स्वेच्छाचार है, दुराचार है ।

सदाचरण अथवा सभ्य आचरण सदा स्वाभाविक होता है । आचरण की सभ्यता को ही सदाचार अथवा सुसंस्कृत व्यवहार कहते हैं । सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय ही वस्तुतः सनातन सत्य आचरण है । इसलिए जो सबके लिए हितकर और सबके लिए सुखकर हो उसी का नित्य आचरण करना चाहिए । सामाजिक संबंधों में अन्यों के साथ किया जाने वाला आचरण ही वास्तव में व्यवहार है । आचरित अवं विचारित का पर्याय है व्यवह्रत । जो व्यवहार के लिए, बरताव के लिए उचित है वही व्यवहारिक है और जो व्यवहार के लिए, बरताव के लिए अनुचित है वही अव्यवहारिक । इस दृष्टांतित दृष्टि से “आत्महत्या” पूर्णतः अव्यवहारिक है । किसी व्यक्ति, जाति अथवा राष्ट्र की वे सब बातें जो उसके सौजन्य, शिक्षित एवं उन्नत होने की सूचक होती है “सभ्यता” कहलाती है और किसी व्यक्ति, जाति अथवा राष्ट्र की वे सब बातें जो मन, रुचि, आचार-विचार, कला-कौशल तथा सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक विकास की सूचक होती है “संस्कृति” कहलाती है । इस समीक्षाधीन परिधि के अंतर्गत “आत्महत्या” वस्तुतः मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति का पराभव है ।

“समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।।

समं पश्यन् हु सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परांगतिम् ।।”


श्रीमद् भगवतद् गीता-13/27-28

“जो लोग नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखते हैं, वही यथार्थ देखते हैं, क्योंकि जो लोग सब में समभाव से स्थित परमेश्वर को देखते हुए (अपने द्वारा स्वयं को नष्ट नहीं करते)आत्मा के द्वारा आत्मा ही हिंसा नहीं करते, इसीलिए वे परमगति को प्राप्त होते हैं ।

“तथा शरीर भवति देहाद् येनोपपादितम्।
अध्वानं मतकश्घायं प्राप्तश्घायं गृहाद् गृहम्।।
द्वितीयं कारणं तत्र नान्यत् किन विद्यते ।
तद् देहं देहिनां युक्तं पंचभूतेषु वर्तते ।।”


पराशरगीता -12-13


“जो लोग देह को पाकर हठपूर्वक उसका परित्याग कर देते हैं, उनको पूर्ववत् ही यातनामय शरीर की प्राप्ति होती है। ऐसे लोग मोक्ष के साधन रूप मनुष्य शऱीर को पाकर भी आत्महत्या के कारण उस लाभ से वंचित हो एक घर से दूसरे घर में जाने वाले मनुष्य के समान एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होते हैं। इनकी उस अवस्था को प्राप्त होने में आत्महत्या रूपी पाप के सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है । उन प्राणियों को उस शरीरों का मिलना उचित ही है, जो कि पंचभूतमय है।
***********

वेदोपनिषद्



“असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के घात्महनो जनाः।।”

यदुर्वेद 40/33, ईशावारयोपनिषद्-3


“जो अन्धकार रूप आत्मा को ढक लेने वाले समागुण (इसके कारण मनुष्य बुरे से बुरा काम कर लेता है ।) से ढके वे लोग निशाचर या प्रेत कहलाने योग्य हैं। जो कोई भी अपनी आत्मा का धात या उसके विरूद्ध आचरण करते हैं, आत्मा या जीवों के देह का नाश या आत्महत्या करते हैं वे निश्चित रूप से प्रेत-लोक में जाते हैं। दूसरे शब्दों में “वे असुर सम्बन्धी लोक आत्मा के अदर्शन रूप अज्ञान से अच्छादित हैं। जो कोई भी आत्मा का हनन करने वाले हैं वे आत्मधाती जीव मरने के अनन्तर उन्हीं लोगों में जाते हैं।”

पण्डित जयदेव शर्मा के शब्दों में - वे लोक अर्थात् मनुष्य असुर कहाने योग्य केवल अपने प्राण को पोषण करने वाले पापाचारी हैं, जो अन्धकार रूप आत्मा से ढक लेने वाले तमोगुण से ढंके हैं। जो कोई लोग भी अपने आत्मा का घात करते हैं, उसके विरुद्ध आचरण करते हैं वे मर कर और जीवन काल में श्री उन उक्त प्रकार के लोगों को प्राप्त होते हैं।

जो प्राणी अपनी आत्मा का हनन करते हैं वे अपने कर्तव्य कर्म ज्ञान से अनभिज्ञ होते हैं। जो प्राणी यह नहीं जानते कि आत्मा के जीने और मरने का कर्तव्य कर्म कैसा होता है, वही आत्मघात करते हैं। आत्मा के विकास के मार्ग पर चलना ही सत्य मार्ग है और जब भी प्राणी आत्म के हास के मार्ग पर चलता है वो वह स्वयं ही अपनी आत्मा का हनन करता है। आत्मा तो अजर-अमर है, वह तो प्रकाश-ज्ञान है, इसकी नींव तो सत्य ही है। स्वार्थ, झूठ विश्वासघात, पाप हिंसा, भोग-विलास इत्यादि इसका हास करने वाले हैं, हनन करने वाले हैं। जो प्राणी सत्य मार्ग पर, उत्साह मार्ग पर और आत्म जीवन मार्ग पर चलते हैं उनकी ही आत्मा में प्रकाश का जन्म होता है, ज्ञान का जन्म होता है। जो लोग सत्य, अहिंसा, परमार्थ, आस्था, पुण्य कर्म और समान उपभोग पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं उसे ही कर्मनिष्ठ, आत्मा के जीवन की दृष्टि, जीवन-कला अथवा जीवनी कहते हैं । जो प्राणी असत्य मार्ग पर, हतोत्साह मार्ग पर, आत्महास और अन्ततः वे आत्महत्यारा, आत्मघाती, आत्मवधिक और आत्महिंसक जीवात्मा मरणोपरान्त पुनर्जन्म पश्चात पुनः तदनुसार ही जीवन यापन करने के लिए बाध्य किये जाते हैं।

आत्मा का स्वरूप तिरोधान-अन्तर्द्धान, अदर्शन-गोपन, लुकाव-छिपाव ही आत्मघात है। जो कोई भी अपनी आत्मा का घात अथवा नाश करते हैं, वे आत्मघाती हैं। अविद्या अथवा अज्ञान रूप दोष के कारण अपने नित्य सिद्ध आत्मा का तिरस्कार कर्म अथवा फल मरे हुए के समान तिरोहित रहता है। दूसरे शब्दों में अज्ञान ही वह दोष है जिसके कारण आत्मा का स्वरूप तिरोहित हो जाता है। अतएव अज्ञानी जीव ही आत्मघाती है और इसी आत्मघात रूप दोष के कारण ही वे पूर्वानुसार जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं।

जो प्राणी अपनी आत्मा का हनन करते हैं वे अपने कर्तव्य कर्मज्ञान से अनभिज्ञ होते हैं। जो प्राणी यह नहीं जानते कि आत्मा के जीने और मरने का कर्तव्य कर्म कैसा होता है, वही आत्मघात करते हैं। आत्मा के विकास के मार्ग पर चलना ही सत्य मार्ग है और जब भी प्राणी आत्मा के ह्रास के मार्ग पर चलता है वह स्वयं ही अपनी आत्मा का हनन करता है। आत्मा तो अजर-अमर है, वह तो प्रकाश, ज्ञान है, इसकी नींव तो सत्य ही है। स्वार्थ, झूठ, विश्वासधात, पाप, हिंसा, भोग-विलास इत्यादि इसका ह्रास करने वाले हैं, हनन करने वाले हैं। जो प्राणी सत्य मार्ग पर, उत्साह मार्ग पर और आत्म जीवन मार्ग पर चलते हैं उनकी ही आत्मा में प्रकाश का जन्म होता है, ज्ञान का का जन्म होता है। जो लोग सत्य, अहिंसा, परमार्थ, आस्था, पुण्य कर्म और समान उपभोग पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं उसे ही कर्मनिष्ठ, आत्मा के जीवन की दृष्टि, जीवन मार्ग पर चलते हैं उनकी अन्तरात्मा में अन्धकार छा जाता है, अज्ञान का जन्म होता है। और अन्ततः वे आत्महत्या, आत्मघाती, आत्मवधिक और आत्महिंसक जीवात्मा मरणोपरान्त पुनर्जन्म पश्चात पुनः तदनुसार ही जीवन यापन करने के लिए बाध्य किये जाते हैं।

आत्मा का स्वरूप तिरोधान-अन्तर्द्धन, अदर्शन-गोपन, लुकाव-छिपाल ही आत्मधात है। जो कोई भी अपनी आत्मा का घात अथवा नाश करते हैं, वे आत्मधाती हैं। अविद्या अथवा अधवा अज्ञान रूप दोष के कारण अपने नित्य सिद्ध आत्मा का तिरस्कार कर्म अथवा फल मेरे हुए के समान तिरोहित रहता है। दूसरे शब्दों में अज्ञान ही वह दोष है जिसके कारम आत्मा का स्वरूप तिरोहित हो जाता है। अतएव अज्ञान जीव हीआत्मधाती है और इसी आत्मधात रूप दोष के कारण ही वे पूर्वानुसार जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं।
*************

सर्वधर्म सार



“अन्धातामिस्त्रा ह्यसूर्या नाम ते लोका (लोकाः प्रेत्य)
स्तेभ्यः प्रतिविधीयन्ते य आत्मधातिन अत्येवमृषयो मन्यते।”

उत्तररामचरित – 4/9

“गाढ़ अंधकार से युक्त तथा सूर्य (प्रकाश से) रहित वे प्रसिद्ध लोक उनके लिये नियुक्त किये जाते हैं जो आत्मघात करने वाले होते हैं, ऐसा ऋषि लोग मानते हैं।”

‘स्कन्द पुराण’ में स्पष्ट अल्लेख है कि “नर हत्या”- किसी नर की साधारण चोट से होने वाली वह मृत्यु जिसमें मारने वाले का यह उद्देश्य न हो कि वह मर जाय; दूसरे शब्दों में आत्म रक्षार्थ अथवा अपने बचाव में किये गये प्रतिकार से होने वाली हत्या जिसमें मारने वाले का जान से मारने का अभिप्राय न हो तो भी वह-पाप है जिसके दुष्परिणामस्वरूप नरक की यातना सहनी पड़ती है।

“सतिगुर अगै अरदासि करि साजनु देइ मिलाइ।
साजनि मिलिऐ सुखु पाइआ जमदूत मुए बिखु खाई।।”


गुरूग्रन्थ साहिब- सिरीरागु महला- 1/5

“हे भाई, परमात्मा से मिलने के लिये सतगुरू से बिनती करो। प्रभु-मिलन हो जाय तो यथार्थ सुख का आभास होता है, यमदूत तो विष खाकर मर जाते हैं।”

“बिन गुर सारे भरमि भुलाए।
मनमुख अंधे सदा बिखु खाए।।
जम डंडु सहहि सदा दुखु पाए।।”


गुरूग्रन्थ साहिब-गउड़ी बैरागणि महला-3/4

“स्वेच्छाधारी मनुष्य सत्यस्वरूप प्रभु के रूप गुरू से अलग रहकर दुविधा के कारण कुमार्गगामी बने रहते हैं। माया के मोह में अंधे वे सदा विष ही खाते हैं, जिससे वे आत्मिक मौत की सजा सहते हैं और दुःख पाते हैं।”

हजरत मोहम्मद ने कहा है कि ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रतिष्ठा और भाग्य दी है, किन्तु उसकी मृत्यु की घड़ी कब आएगी, इसका निर्णय अपने पास रखा है। इसलिए व्यक्ति को सदा ईश्वर की इच्छा के अनुरूप ही कार्य करते रहना चाहिए इस्लामी “शरीयत” आत्महत्या को वर्जित करती हुई कहती है कि तुम्हारा जीव वस्तुतः सर्वेश्वर की सम्पत्ति है और यह धरोहर तुम्हे इसलिए दी गई है कि तू सर्वेश्वर की नियत की हुई अवधि तक उससे काम ले, इसलिए नहीं कि तू उसे नष्ट कर दे। दूसरे शब्दों में जिन्दगी तो खुदा की दी हुई धरोहर है जिसकी रक्षा करना व्यक्ति का परम कर्त्तव्य है। आत्महत्या रना अल्लाह के वजूद के खिलाफ कत्ल से भी बढ़कर अपराध है। इस्लाम ने तो बड़े जोरदार शब्दों में आत्महत्या की भर्त्सना की है।

“तुम सुन चुके हो कि प्राचीनकाल के लोगों से कहा गया था, हत्या न करना और जो कोई हत्या करेगा वह न्यायालय में दण्ड के योग्य होगा।”

बाइबिल-मत्ती 5/21


रोमन साम्राज्य के पराभाव काल में सत आगस्तीन (सन् 354-430) ने यह मत प्रतिपादित किया कि बाइबिल-मत्ती-5/21 में जो कहा गया है कि तुम किसी की हत्या नहीं करोगे वह अन्य किसी भी हत्या और स्वयं की हत्या दोनों पर लागू होता है। इस कारण जो आत्महत्या करता है वह भी हत्यारा है। आगस्तीन बलात्कार के बाद किसी महिला द्वारा की गई आत्महत्या को भी पाप मानता है। उसने तो नारी जाति को यह कहकर सांत्वना दी कि यदि अपने शरीर का दुरुपयोग किया गया है तो भी उसके आध्यात्मिक मूल्य समाप्त नहीं हो पाते। निश्चित रूप से समाप्त में पीड़ा है जिसे व्यक्ति को भुगतना ही पड़ेगा । दण्ड और प्रशंसा देने का कार्य केवल ईश्वर को है। जिसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप ईश्वर की सत्ता के प्रति विद्रोह है।

धम्मपद में गौतम बुद्ध कहते हैं कि जो प्राणियों से हिंसा करता है वह आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन करने वाला ही आर्य कहा जाता है। अंगुत्तर निकाय में वे कहते हैं कि जो प्राणी स्वयं हिंसा नहीं करता, किसी अन्य को हिंसा की ओर प्रवृत्त नहीं करता और किसी भी प्रकार के हिंसा का समर्थन तक नहीं करा वही धर्मयुक्त प्राणी है। चतुःशतक में उन्होंने “अहिंसा” शब्द में ही धर्म की विस्तृत व्याख्या की है। बौद्धधर्म यद्यपि ईश्वर के अस्तित्व को न मानता हो तथापि यह तो मानता ही है कि मनुष्य का जीवन प्रकृति की देन है और उसे किसी अन्य ने दिया है तो उस जीवन को नष्ट करने का अधिकार हमें नहीं।

आचारांगसूत्र में जैन तीर्थंकर यह उपदेश देते हैं कि किसी भी प्राण, पूत, जीव और सत्य को किसी प्रकार का परिवार उद्वेग अथवा दुःख नहीं देना चाहिए न किसी का हनन करना चाहिए। दशवैकालिकसूत्र में सभी प्राणियों के हित साधन में अहिंसा सर्वश्रेष्ठ होने के कारण महावीर ने इसे प्रथम स्थान दिया है। अहिंसा वह धुरी है जिस पर समग्र जैन आचार विधि धूमती है।

कनफ्युशियस की मान्यता है कि किसी व्यक्ति की अपने शरीर को नष्ट करने का अधिकार नहीं है केवल शरीर ही क्यों, शरीर के किसी भी अंग को नष्ट नहीं करना चाहिए क्यों कि शरीर तो उसकी माता पिता की दी हुई वस्तु है। इन सिद्धान्तों और चीनी संस्कृति के अनुसार आत्महत्या का अधिकार किसी को नहीं है।

शैव सम्प्रदाय, वैष्णव सम्प्रदाय, कबीर पंथ, संत साहित्य इत्यादि निखिल विश्व के सभी धर्म समप्रदाय, संत समुदाय एवं अन्य पंथ, वेद पुराण, बाइबिल कुरान एवं अन्य पंथ, वेद पुराण, बाइबिल कुरान एवं अन्य धर्म ग्रंथ का सार है -अहिंसा। अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है और सब शास्त्रों का गर्भ अथवा उत्पत्ति स्थान । इसलिए मानवता के इस उत्पादक का अपमान अत्यंत निंदनीय है । तन, मन, धन और मन-वचन-कर्म से किसी भी जीव को लेश मात्र भी न सताना ही अहिंसा है। इसी कारण हत्या, नरहत्या और आत्महत्या इन सभी को हत्या कहा गया है। चूँकि अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा धर्म का मूल है और अहिंसा व्रत जीव का सबसे बड़ा आदर्श है, इसलिए आत्महत्या महापाप है।
*********

इतिहास


ईसाइयत इतिहास के पूर्व काल में आत्महत्या पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया था किन्तु चौंथी शताब्दी के समय चर्च ने आत्महत्या के विरोध का रूख अपनाना प्रारम्भ किया । धीरे-धीरे जीवन को समाप्त करने का अर्थ यह लगाया जाने लगा कि ईश्वर की दी हुई वस्तु का वह निरादर कर रहा है।

ईसा पूर्व 500 में प्राचीन ग्रीस में आत्महत्या को शर्मनाक करतूत माना जाता था। आत्महत्या के माध्यम से मृत शरीर का अंतिम संस्कार उन विधि-विधान तथा रीति-नीति के अनुसार नहीं किया जाता था जैसा कि प्राकृतिक रूप से हुई मृत्यु होने पर होता था। उस समय यह समझा जाता था कि जीवन देने और लेने का अधिकार केवल भगवान को ही है। आत्महत्या के माध्यम से जीवन को स्वयं समाप्त करना भगवान से विद्रोह करना है। इसी कारण इस स्थिति में मृत व्यक्ति को इसके दुष्परिणाम स्वरूप दैवी प्रकोप तो झेलना ही पड़ेगा।
ईसा पूर्व 424-322 में प्लेटो का कथन था कि मनुष्य केवल भगवान की संतान ही नहीं है वह उनका एक सिपाही भी है और आत्महत्या करने का अभिप्राय है कि वह सेना का भगोड़ा है । उसका निश्चित अभिमत था कि आत्महत्यारा शरीर को एक सुनसान स्थान पर बिना किसी सम्मान के दफनाया जाए जहाँ उसकी कब्र पर कोई स्मारक न बनाया जा सके ।
ईसा पूर्व 384-322 में अरस्तू ने भी आत्महत्या को मातृभूमि से विश्वासघात करना कहा था, क्योंकि जीवन देश के लिए होता है और आत्महत्या करके व्यक्ति नागरिक के कर्तव्य की अवहोलना करता है। ईसा पूर्व लगभग 300 में जेनो ऑफ सिरियम ने ग्रीस में ‘स्टोइक’ सम्प्रदाय की स्थापना की थी जो एक दार्शनिक सम्प्रदाय था। ‘स्टोइकों? का अभिमत था कि व्यक्ति औरों के लिए जीवित रहने को कर्त्तव्यबद्ध है।

“रज्जुशस्त्र विषैर्वापि कामक्रोधवशेन यः।
धातयेत्स्मयमात्मानं स्त्री वा पापेन मोहिता ।।

रज्जुना राजमार्गे तां चण्डालेनापकर्षयेत्।
न श्मशानविधिस्तेषां न संबंधिक्रियास्तया।।

बन्धुस्तेषां तु यः कुर्यात्प्रेतकार्यक्रियाविधिम्।
तद्गतिं स चरेत्पश्चात्स्वाजनाव्दा पभुच्यये ।।”
कौटिल्य का अर्थशास्त्र-/7/82

“जो व्यक्ति काम व क्रोध के वश में होकर रस्सी, शस्त्र एवं विष से अपने आप को मार डाले या कोई महिला किसी पाप के कारण आत्महत्या कर ले तो चण्डाल उसे रस्सी से बांध कर सड़क पर खींचे । उनको न श्मशान में जलाने दिया जावे तथा न उनकी लाश उनके संबंधियों को दी जावे। जो बान्धव आत्मघाती की प्रेत क्रिया आदि करे तो उसे अपनी जाति से च्युत करवा दे या फिर मरने के पश्चात् राजा उसे भी इसी तरह घसीटवाये।”

“इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका”ने सारांश में ‘आत्महत्या’ को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “आत्महत्या अपनी इच्छा से तथा जानबूझ कर किया गया आत्म हनन है। इसी प्रकार” श्री एम.ए. इलियट एवं श्री एफ.इ.मेरिल ने भी परिभाषित किया है कि – आत्महत्या वैयक्तिक विघटन का दुःखद एवं अपरिवर्तनशील अन्तिम परिणाम है। यह व्यक्ति के दृष्टिकोणों में होने वाले उन क्रमिक परिवर्तनों का अन्तिम स्तर है जिनमें व्यक्ति के मन में जीवन के प्रति “मावनीय प्रेम के स्थान पर घृणा उत्पन्न हो जाती है।”

मैसाचुसेट्स स्थित कैंब्रिज अस्पताल के मनोश्चकित्सक “जान मैक” का मत है कि “आत्महत्या की गुत्थी सुलझाने में सभी प्रकार के रोग निदान निष्फल सिद्ध हुए हैं । आत्महत्या करने वाले कुछ लोग मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ होते है, किन्तु अधिकांश व्यक्ति नहीं ।” “फ्रायड” का कहना था कि “किसी प्रिय वस्तु के न मिलने पर उत्पन्न क्रोध को अपने ऊपर ही उतारने के कारण लोग आत्महत्या करते हैं ।” एक अध्यात्मचेता मनोवैज्ञानिक डॉ. अब्दुल एस. दलाल के अनुसार “मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आत्महत्या गहन अवसाद की अभिव्यक्ति है।”

जीव विज्ञानियों का विचार है कि मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन पैदा होने पर आत्महत्या की जाती है। समाजशास्त्री पारिवारिक विघटन जैसे किसी सम्बन्ध के अभाव को आत्महत्या का कारण बताते हैं। कुछ पादरियों का मत है कि आस्था समाप्त हो जाने के कारण व्यक्ति आत्महत्या करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से आत्महत्या उस भागवत सत्ता का अपमान जिसने जगत में अपने कार्य की पूर्णता के लिए मनुष्य को जीवन का उपहार दिया है।
*********

कश्यप-सियार संवाद



महाभारत -5/180 में मन्महर्षि श्रीकृष्ण दैपायन बादरायण ’वेदव्यास’ जी की वाणी को श्री गणेश जी ने अलपिबद्ध किया है कि पूर्वकाल में धन के मद से किसी धनिक व्यवसायी ने कठोर ब्रत का पालन करने वाले तपस्वी मरीचि कुमार महर्षि कश्यप को अपने रथ से धक्का देकर गिरा दिया। वे धरातल पर गिरने की पीड़ा से कराहते हुए आत्महत्या के लिए उद्यत कुपित स्वर में बोले–“अब मैं प्राण दे दूंगा, क्योंकि इस संसार में निंर्धन मनुष्य का जीवन व्यर्थ है।” उन्हें इस प्रकार मरने की इच्छा लेकर बैठे मन-ही-मन धन लोभ-मोह के मायाजाल में फंसे देख एक सियार ध्यान रहे ऐसी मान्यता रही है कि सतयुग में सभी प्राणी तथा वनस्पति भी बोलने- कहने लगा – मुनिवर । सभी प्राणी मनुष्य योनि पाने की इच्छा रखते हैं । उसमें भी ब्राह्मणत्व की प्रशंसा तो सभी लोग करते हैं । आप तो मनुष्य हैं, ब्राह्मण हैं और श्रोत्रिय भी हैं । ऐसा परम दुर्लभ मानव तन पाकर भी उसमें दोष देखकर आपके लिए आत्महत्या हेतु उद्यत होना अनुचित बात है ।

जिनके पास मालिक के दिये दो हाथ हैं, उन्हें मैं कृतार्थ मानता हूं । इस जगत में जिसके पास एक से अधिक हाथ हैं, उनके जैसा सौभाग्य प्राप्त करने की आकांक्षा मुझे बारम्बार होती है। जिस प्रकार आपके मन में धन की लालसा है, उसी प्रकार हम पशुओं को मनुष्यों के समान हाथ पाने की अभिलाषा रहती है। हमारी दृष्टि में हाथ मिलने से अधिक अन्य कोई दूसरा लाभ नहीं। हमारे शरीर में कांटे गड़ जाते हैं, पर हाथ न होने के कारण हम उन्हें निकाल नहीं पाते । जो छोटे-बड़े जीव-जन्तु हमारे शरीर को डंसते हैं, उनकों भी हम हटा नहीं सकते, किन्तु जिनके पास सर्वेश्वर के दिये दस अंगुलियों से युक्त दो हाथ हैं, वे अपने हाथों से उन कीड़े-मकोड़ों को हटा देते अथवा नष्ट कर देते हैं । वे वर्षा, सर्दी और धूप से अपनी रक्षा कर लेते हैं, वस्त्राभूषण पहनते हैं, खाद्यान्न-जल –पान तथा स्वादिष्ट भोजन ग्रहण करते हैं, शय्या बिछाकर चैन की नींद सोते हैं तथा एकान्त स्थान का सुख पूर्वक उपभोग करते हैं ।

हाथ वाले मनुष्य बैलों से जुती हुई गाड़ी पर चढ़कर उन्हें हांकते है और इस धरातर में उनका यथेष्ट उपभोग करते हैं तथा हाथ से ही अनेक प्रकार के उपाय करके अन्य प्राणियों को भी अपने वश में कर लेते हैं। जो दुःख बिना हाथ वाले आपको नहीं सहने पड़ते । अपना प्रारब्ध बड़ा श्रेष्ठ है कि आप गिद्ध, चमगादड़, सांप, छछुंदर,चूहा, मेंढक अत्यादि किसी अन्य पाप योनि में उत्पन्न नहीं हुए । आपको इतने ही लाभ से संतुष्ट रहना चाहिए । इससे अधिक लाभ की बात और क्या हो सकती है कि आप 84 लाख योनियों में सर्वश्रष्ठ ब्राह्मण हैं । मुझे ये कीड़े-मकोड़े खा रहे हैं, जिन्हें निकल फेंकने की शक्ति मुझमें नहीं है। हाथ के अभाव में होने वाली मेरी दुर्दशा को आप प्रत्यक्ष देख-परख लें । आत्महत्या करना पाप है, यह सोचकर ही मैं अपने इस शरीर का परित्याग नहीं करता हूँ । मुझे भय है कि मैं इससे भी निकृष्ट किसी अन्य पाप योनि में न गिर जाऊं ।

यद्यपि मैं इस समय जिस श्रृगाल योनि में हूं , इसकी गणना भी पाप योनियों में ही होती है, तथापि अन्य अनेकानेक पाप योनियां इससे भी निम्न श्रेणी की है। कुछ मनुष्य देव पुरूष से भी अधिक सुखी हैं, और कुछ पशुओं से भी अधिक दुःखी लेकिन फिर भी मैं कहीं किसी व्यक्ति को ऐसा नहीं देखता, जिसको सर्वधा सुख ही सुख प्राप्त हो । मनुष्य धनी होकर राज्य पाना चाहते हैं, राज्य से देवत्व की इच्छा करते हैं और देवत्व से इन्द्रपद की कामना करते हैं । यदि आप धनी हो जाएं तो भी ब्राह्मण होने के कारण राजा नहीं हो सकते । यदि कदाचित राजा हो जाये तो ब्राह्मण देवता नहीं हो सकते । यदि आप राजर्षि और ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त कर लें तो भी इन्द्रपद प्राप्त नहीं कर पाते । यदि इन्द्रसन भी प्राप्त कर लें तो भी आप उतने से ही संतुष्ट नहीं रह सकेंगे क्योंकि प्रिय वस्तुओं का लाभ होने से कभी तृप्ति नहीं होती। बढ़ती हुई तृष्णा जल से नहीं बुझती ईँधन पाकर जलने वाली आग के समान वह और भी प्रज्वलित होती जाती है।

आपके अंदर शोक भी है और हर्ष भी । साथ ही सुख और दुःख दोनों है, फिर शोक करना किस काम का ? बुद्धि और इन्द्रियां ही समस्त कामनाओं और कर्मो की मूल है। उन्हें पिंजड़ में बंद पक्षियों की भांति अपने काबू में रखा जाय तो कोई भय नहीं रह जाता । मनुष्य को दूसरे सिर और तीसरे हाथ के कटने का कभी भय नहीं रहता, जो वस्तुतः है ही नहीं । जो किसी विषय का रस नहीं जानता, उसके मन में कभी उसकी कामना भी नहीं होती । स्पर्श, दर्शन तथा श्रवण से ही कामना का उदय होता है। मद्य तथा मांस इन दोनों का आप कभी स्मरण नहीं करते होंगे, क्योंकि इन दोनों का आपने कभी पान तथा भक्षण नहीं किया है परन्तु सद्यप तथा मांसाहरी के लिए इन दोनों से बढ़कर कहीं और कोई भी पेय तथा भक्ष्य पदार्थ हैं, जिनका आपने पहले कभी सेवन नहीं किया है, उन खाद्य पदार्थ की स्मृति आपको कभी नहीं होगी । मेरी मान्यता है कि किसी वर्जित वस्तु को ग्रहण न करने,न छूने और न देखने का नियम लेना ही व्यक्ति के लिए कल्याणकारी है, इसमें संशय नहीं । जिनके दोनों हाथ बने हुए हैं निःसन्देह ही बलवान तथा धनवान हैं।

कितने ही मनुष्य बारम्बार जीवन-मरण और बन्धन के क्लेश भोगते रहते हैं, लेकिन फिर भी वे आत्माहत्या नहीं करते । अन्य अनेक सबल, सम्पन्न, प्रबुद्ध मनस्वी भी दीन-हीन, निन्दित और पापपूर्ण वृत्ति से जीवन यापन करते हैं। भंगी अथवा चाण्डाल भी आत्महत्या करना नहीं चाहता, वह अपनी उसी जीविका से संतुष्ट रहता है। कुछ मनुष्य अंग-भंग, अनंग-अपंग, अपाहिज- लकवाग्रस्त तथा निरन्तर अस्वस्थ ही रहते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें हम धिक्कार के पात्र नहीं कह सकते । आपके सर्वग सही और निर्विकार है । आपका शरीर स्वस्थ और सुंदर है, इस कारण इस लोक में कोई भी आपको धिक्कार नहीं सकता । यदि आप पर दिवालिया, पदच्युत, जाति-समाज-संघ और धर्म –सम्प्रदाय-पंथ से बहिष्कृत तथा क्षेत्र बाहर अथवा देश निकाला विषयक कोई कलंक लगा हो तो भी आपको आत्माहत्या करने का विचार नहीं करना चाहिए । अतएव यदि आप मेरी बात मानें तो धर्मपालन के लिए दृढ़ संकल्प के साथ उठ खड़े होइये और सावधान होकर यम-नियम, सत्य-अहिंसा, दान-धर्म, स्वाध्याय और अग्निहोत्र का पालन कीजिए । किसी के साथ स्पर्धा मत कीजिए । जो ब्राह्मण स्वाध्याय में लगे रहते तथा यज्ञ करते और कराते है, वे भला किसी भी प्रकार की चिंता क्यों करेंगे और आत्माहत्या जैसी बुरी बात क्यों सोचेंगे ?

पूर्वजन्म में मैं एक ब्राह्मण था और कुतर्क का आश्रय लेकर वेदवाणी की निंदा करता था प्रत्यक्ष के आधार पर अनुमान को प्रधानता देने वाली थोथी तर्क विद्या पर ही उस समय मेरा अधिक अनुराग था। मैं सभाओं में जाकर तर्क तथा युक्ति की बातें ही अधिक बोलता था। जहां अन्य ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक वेद वाक्यों पर विचार करते, वहां मैं बलपूर्वक जाकर आक्रमण करके उन्हें खरी-खोटी सुना देता तथा स्वयं ही अपना तर्कवाद बका करता था । मैं नास्तिक, सब पर संदेह करने वाला तथा मूर्ख होकर भी अपने आप को पंण्डित मानने वाला था। यह श्रृगार योनि मेरे उसी कुकर्म का फल है। अब मैं सैकड़ों दिन-रात निरन्तर साधना करके भी क्या कभी वह उपाय कर सकता हूँ ? जिससे आज सियार की योनि में पड़ा हुआ मैं पुनः वह मनुष्य योनि पा सकूं । जिस मनुष्य योनि में मैं संतुष्ट तथा सावधान रहकर यज्ञ,दान तथा तपस्या में लगा रह सकूं, जिसमें मैं जानने योग्य वस्तु को जान सकूं और त्यागने योग्य वस्तु को त्याग सकूं । यह सुनकर महर्षि कश्यप अचंभित होकर बोले- “श्रृगाल । तुम तो बड़े कुशल निपुण और वेदज्ञ हो, विद्वान, प्रबुद्ध तथा विवेकी हो । मैं तुम्हारे अभिमत से पूर्णतः सहमत हूं कि आत्माहत्या करने का विचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि आत्महत्या हेतु उद्यत होना भी उचित नहीं है। ऐसा कहकर कश्यप मुनि धर्म पालन हेतु उठ खड़े हुए और सियार से कृतज्ञता पूर्वक विदा होकर अपने गृहस्थ आश्रम की ओर प्रस्थान किए ।
**********

विधि-विधान


यहुदियों में आत्महत्या की घटनाएँ अत्सन्त विरल हैं। यहुदियों के कानून के अनुसार आत्महत्या करना पापपूर्ण और अक्षम्य कृत्य है । जो आत्महत्या करते हैं उनको सम्मानपूर्ण रूप से दफन किये जाने का अधिकार नहीं मिलता । उनकी मृत्यु पर किसी को शोक करने का भी अधिकार नहीं दिया गया है ।

आत्महत्या मस्तिष्क का खेल नहीं मस्तिष्क के साथ संघर्ष है । वुद्धि के साथ अशुद्धि है। बौद्धिक दुष्कुति है । आत्महत्या वस्तुतः मानव मस्तिष्क की कमजोरी का दुष्परिणाम है । अज्ञानता एवं दुर्बलता के कारण जब व्यक्ति जीवन से, जीवन की वास्तविकताओं से अथवा जीवन की वास्तविक समस्याओं से डरकर अपने जीवन को समाप्त कर देता है तब उसे स्वयं के द्वारा स्वयं की हत्या अथवा आत्महत्या कहते हैं । दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, अपने जीवन के प्रति मोह समाप्त हो जाता है, साथ ही उसकी मरने की इच्छा तीव्र हो जाती है और जब व्यक्ति द्वारा प्रकृति प्रदत्त अंतकाल से पूर्व कृत्रिम साधनों के माध्यम से अपने आप को नष्ट कर दिया जाता है तब वह आत्महत्या कहलाता है ।

मृत्यु तो एक शास्वत सत्य है जिसे एक दिन स्वतः आना ही है । इसलिए समय पूर्व जीवन-लीला समाप्त करने विष्यक भरसक प्रयास अनावश्यक ही नहीं निरर्थक भी है । व्यक्ति को अपने जीवन में आने वाली तमाम चुनौतियों से संघर्ष करने हेतु यथाशक्ति साहस और दृढ़ता के साथ हरसंभव सार्थक प्रयास करना चाहिए । कर्तव्य के फूल में ही अधिकार के फन लगते हैं । इस कारण व्यक्ति को कर्तव्य पालन प्रति पूर्ण निष्ठा के साथ समस्त चुनौतियों के सामने ताल ठोककर खड़ा होना चाहिए और निरन्तर जीवन निर्वाह पथ की ओर अग्रसर होना चाहिए। शरीर त्याग की ओर नहीं, कतई नहीं, क्योंकि आत्महत्या अपने विद्या, बुद्धि और विवेक के प्रति किया गया अत्याचार है। आत्महत्यारे यह समझने की कोशिश ही नहीं करते कि संघर्ष का नाम ही जिन्दगी हार से ही शिक्षा लेकर उसकी नींव पर खड़े होकर भी जीत हासिल की जा सकती है। अतएव एन-केन-प्रकारेण पूर्णायु तक जीना ही सर्वोत्कृष्ट विजय है और समय पूर्व जीवन को हार जाना ही सबसे निकृष्ट पराजय।

जिस प्रकार प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते हैं, प्रत्येक वस्तु के दो स्वरूप होते हैं, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में परस्पर विरोध दो विचार सदैव प्रवाहित होती रहती हैं। अच्छा बुरा, उचित-अनुचित, सच्चा-झूठा, सत्य-असत्य, अमीरी-गरीबी, साधन सम्पन्न-साधन हीन, जिद्दी-भावुक, कठोर-लचीला, जोशीला-नशीला, आशावादी-निराशावादी उपेक्षित-सम्मानित, सामूहिक-अकेलापन, लाभ-हानि, हार-जीत, वृद्ध-युवा, स्वार्थी-परमार्थी इत्यादि-इत्यादि । वही मन एक तरफ सोचता है कि सफल रेल यात्रा उपरान्त मंजिल तक पहुंचना सुनिश्चित है और वही मन दूसरे तरफ सोचता है कि यदि कोई दुर्घना घट गई तब इसका दुष्परिणाम अंग-भंग, अपंग-अनाथ, कष्ट-पीड़ा और दर्द-वेदना लगभग तय है । जीवन में कभी न कभी ऐसे क्षण निश्चित रूप से आ जाते हैं जब इनमें से किसी एक का चुनाव और दूसरे का त्याग करना ही पड़ता है और जब दोराहा में खड़ा व्यक्ति किसी एक राह का चुनाव कर कुछ दूरी पार कर लेता है तब उसके लिए पुनः पीछे लौटकर दूसरे पथ की ओर कदम बढ़ाना लगभग नामुमकिन हो जाता है।

वस्तुतः व्यक्ति की नासमझी अथवा समझ की गलत तरीका का एक प्रकार से निष्फल है - आत्महत्या । जो व्यक्ति समझ लेता है कि उसका जीवन निरर्थक है, उसका तन-मन-धन और मन-वचन-कर्म कभी स्वस्थ नहीं रह सकता । सार्थकता की अनुभूति न होने की स्थिति में वह जिन्दगी को एक बोझ की तरह ढोता है और उस नीरस-निरानन्द स्थिति में सचमुच ही जीवन का बोझ बहुत भारी पड़ता है। मानसिक पराधीनता व्यक्तित्व विकास के लगभग सभी दरवाजा बन्द कर देती है। विवेक को बिकसित होने का अवसर न मिलने के कारण वह व्यक्ति अवांछित स्थिति में रहने और उसी में दम तोड़ने के लिए विवश हो जाता है। अत्यधिक जिद्दी और बेहद हठी विचारधारा को भी किसी और पर बलपूर्वक थोपना कि हमारी ही बात मानी जाए निर्विवाद रूप से बौद्धिक अत्याचार है। अपना जीवन तो अपना है ही किसी अन्य का जीवन भी अपना है। केवल उसी के सुख-सुविधाओं के लिए अन्य प्राणी मात्र की रचना की गई है। यदि उनकी पसंद नहीं करता तो फिर उनके जीवन का क्या लाभ ? ऐसी मनोकामना पूर्ण न होने की दशा में घुटना महसूस करना, कुण्ठित होना और अपने जीवन को निस्सार एवं निरर्थक मसझकर फांसी के फंदे को गले लगाना किसी भी दृष्टिकोण से मानव सभ्यता का विकास नहीं ।

इस मृत्यु-लोक में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा, जिसने बेहद निराशा के क्षणों में कभी न कभी अपनी जिन्दगी से ऊब महसूस न की हो। यह स्वाभाविक है कोई विशेष बात नहीं । हरेक प्राणी अपने जीवनकाल में कभी न कभी, कहीं न कहीं अपना रास्ता भूल जाता है। यदि दुबारा ऐसी ही पलायनवादी मानसिकता बनती है, तब यह निश्चित रूप से चिंतनीय है। जिस प्रकार गुप्त रोग का इलाज गोपनीयता भंग करने से ही संभव है ठीक उसी प्रकार जिन्दगी के प्रति अत्यधिक निराशा, गहन हताशा, खुद से नफरत व बेचैनी इत्यादि मनोमालिन्यता को अधिकाधिक सहेलियों, सहपाठियों, सहप्रशिक्षार्थियों, सहकर्मियों, निकट संबंधियों, इष्ट मित्रों एवं अन्य सहयोगियों के समक्ष भी उजागर करना चाहिए। यदि तीसरी बार ऐसी ही कायरतापूर्ण कुविचार मन को झकझोरता है तब आप बिना किसा रूकावट के, बिना किसी सलाह मंत्रणा के, बिना किसी पूछताछ के किसी मनोरोग चिकित्सक का पता पूछें और समय पर पहुंचकर उससे मदद लें । यदि आप किसी अन्य के खाने-पीने, सोने-जागने एवं चाल-चलन में बदलाव देखें, यदि वह व्यक्ति अपने प्रियजनों से या प्रिय वस्तुओं से लगाव न रखे, आत्महत्या संबंधी बातें करें, आत्महत्या करने संबंधी इरादा जाहिर करें, आत्महत्या की योजना बताये, आत्महत्या की धमकी दे तब आपका यह मानवीय कर्तव्य है कि ऐसे लोगों की बातें ध्यान से सुनें और उन्हें किसी मनोरोग विशेषज्ञ के पास ले चलें, क्योंकि आत्महत्या एक प्रकार का मस्तिष्क रोग भी है, मानसिक विकार भी है।

इस आराम तलबी दुनिया में बिना महेनत के हम सब अधिकाधिक सुख शांति चाहते हैं मंगनी में दूध मिले तो भैंस कौन पाले ? आज प्रत्येक व्यक्ति को अलाउद्दीन का चिराग चाहिए। अलाऊद्दीन नाम का एक काल्पनिक आदमी रास्ते की धूल फांकता रहता था। एक दिन अचानक उसके हाथ एक मनगढ़ंत चिराग लग गया । उसकी विशेषता यह है कि उसे रगड़ते ही एक जिन्न प्रकट होकर सवाल करता है कि क्या हुक्म है मेरे आका ? फिर अलाऊद्दीन के आदेश का उस जिन्न द्वारा अक्षरशः पालन होता है। उसके जुबान में नहीं नाम का कोई शब्द है ही नहीं। अलाऊद्दीन उस जादुई चिराग को प्राप्त कर सब कुछ प्राप्त कर लेता है और सर्वश्रेष्ठ धनी, सर्वाधिक सुखी तथा अन्तर्राष्टीय ख्याति प्राप्त महात्मा बन जाता है। वैसे तो यह अनोखा दीपक कपोल कल्पना ही है, परन्तु वस्तुतः इसी प्रकार की अन्य दीपशिखा असंभव नहीं। सर्वेश्वर ने इस प्रकार का अद्धुत दीया बनाकर प्रत्येक मानव की सेवा में प्रस्तुत किया है। इसे प्राप्त करने हेतु मनुष्य मात्र के लिये अपने अन्तरात्मा को जगाने की नितान्त आवश्यकता नहीं। वस्तुतः चमत्कार नामक शब्द कोई जादू की पिटारी से नहीं निकला। यह एक परिश्रम साध्य वस्तु है, जिसे कोई भी कर्मनिष्ठ व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। यथायोग्य परिश्रम से मनोवाछित फल की प्राप्ति तो अवश्यंभावी है। अप्राप्ति या असफलता का कारण है परिश्रम या मेहनत की कमी । इसलिए हमें बिना किसी टीका-टिप्पणी के चिंतन-मनन और अध्ययन करना चाहिए । केवल स्वविवेक से लगन के साथ भगीरथ प्रयत्न करना चाहिए। कभी न मिलने वाला तथाकथित काल्पनिक दीपक उपलब्ध न होने पर भी आत्महत्या नहीं, कदापि नहीं।


आत्महत्या नैतिक पतन की अंतिम दुष्परिणति है और और चरित्र मानव को देवत्व प्रदान करने वाली संजीवनी घूटी है । एक सर्वव्यापी सर्वकालिक और सर्वविदित सूक्ति है कि यदि आप अपनी धन-सम्पन्नता से वंचित हो जाते हैं तो आपने कुछ नहीं खोया है, यदि आपके स्वस्थ्य की क्षति हो जाती है, तो आपकी कुछ हानि हुई है ओर यदि आपका चरित्र नष्ट हो जाता है तो आपका सर्वनाश हो जाता है। चरित्र का अर्थ सामान्यतः मात्र यौन संबंधों से ही लगाया जाता है, किन्तु यह अत्यन्त संकुचित अर्थ है। वस्तुतः मन, वचन एवं वाणी संबंधी समस्त क्रियाकलाप ही नहीं, व्यक्ति की चेतना विकास भी उसके चरित्र का अंग है। आचरण का संबंध धन-सम्पदा सदृश लौकिक उन्नति के सात बहुत कम होता है, उसका संबंध जीवन के मूल्यों के साथ अधिक रहता है। निर्विवाद रूप से जीवन-मूल्य, मानव-जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, धरोहर है, अमानत है। अतएव इसको हमेशा दृढ़ता व्यापकता और पूर्णता प्रदान करना चाहिए। जिस प्रकार अग्नि में तपने से सुवर्ण अपेक्षाकृत और अधिक निखरता है, ठीक उसी प्रकार वासनाओं को दमन करने, कठिनाईयों को जीतने, कष्टों को झेलने और दुःख दर्दों को सहन करने से चरित्र सुदृढ़, सर्वोच्च और निर्मल होता है। इसलिए चाहे जो मजबूरी हो व्यक्ति को पूर्णायु तक जीना ही चाहिए।

वर्तमान मानव अपने अभाव से त्रस्त्र नहीं, दुनिया के वैभव से त्रस्त्र है। वह वस्तु या चीज, सुख-सुविधा, रिश्ते-नाते, मान-सम्मान, कद्रदानी या मेहरबानी उनके पास है, हमारे पास नहीं और निकट भविष्य में मिलने की संभावना भी नहीं, शायद आजीवन न मिले। इसलिए क्या करें ? जीवन रक्षा हेतु रोटी, तन ढकने हेतु कपड़ा और सर छूपाने हेतु मकान की कमी हो तो एक बार कोई बात समझ में आती है, मगर नहीं, यह भी चाहिए और वह भी चाहिए। तमाम भौतिक सुख-सुविधाएं हमारे लिए ही है इसलिए उनका उपभोग हम ही करेंगे । वे क्यों करें ? रोटी मिला तो कपड़ा चाहिए, कपड़ा मिला तो मकान चाहिए, मकान मिला तो दुकान चाहिए, दुकान मिला तो किरायेदार चाहिए, और इनके से कोई एक नहीं मिला तो आत्महत्या । छोटी नहीं वर्तमान से बड़ी स्कूल, डिग्री, नौकरी चाहिए नहीं तो आत्महत्या । परिवार से पृथक उद्योग-धंधे चाहिए, उद्योग-धंधे से पृथक बीबी चाहिए, बीबी की कमाई से पृथक कालाधन चाहिए, लेकिन फिर भी घाटा तब आत्महत्या। हे मालिक। पडौ़सी का खजाना डकैतों से खाली करा दें और सोने के ईटों की वर्षा मेरे आंगन में करा दें। हे सर्वेश । पड़ौसी को सौ लड़की दे दे और मुझे केवल एक होनहार लड़का । यदि जाने-अनजाने कहीं सर्वेश्वर ने हमें 4-6 लड़कियां दे दी तो फिर सामूहिक आत्महत्या। वर्तमान विश्व समाज में उक्त विकृत तथ्यों को गलती से दुनियादारी मानने की परम्परा लम्बे अरसे से चली आ रही है, जो वास्तव में भौतिक अनाचार है।

आप मत करो विश्वास उस पर, जो आपने सुना है । आप स्वयं विश्लेषण करो। आप स्वयं विश्वास निर्मित करो और उस पर विश्वास करो। यही सुनिश्चित है, वास्तविक है, यथार्थ है, क्योंकि वह स्वनिर्मित है। जन्म से कर्म अधिक आदरणीय है। सम्माननीय है। प्रकाशनीय है। इसलिए कमरे से बाहर आइये । दुनिया के समक्ष अपना उज्जवल मुखड़ा दिखाइये। लटका हुआ मुखड़ा नहीं, झुलता हुआ चेहरा नहीं, खून से लथपथ मृतकाय नहीं, काला-कलूटा शव नहीं। अपने लिए न सही दूसरों के लिए । अपनों के लिए न सही परायों के लिए । देस के लिए न सही विदेस के लिए । स्वजाति के लिए न सही मानव जाति के लिए। जिस प्रकार भौंरा फूलों की रक्षा करते हुए मधु को ग्रहण करता है । जिस प्रकार गाय स्वयं दूध नहीं पीती तथा अपने बछड़े को ही नहीं पिलाती, अन्य प्राणियों के लिए भी दूध देती है और मधुमक्खी अन्य प्राणियों के लिए मधुरस निर्माण करता है, ठीक उसी प्रकार स्वार्थ के लिए न सही परमार्थ के लिए ही सही इस जीवन को हरहाल में नष्ट न करें।

आत्महत्या शारीरिक द्रोह है, देह द्रोह है, अंगद्रोह है। आप एक मुर्गी को फांसी पर लटका कर देख सकते हैं कि वह किस कदर फड़फड़ाती है, तड़फड़ाती है ? आप कैसे मान सकते हैं कि फांसी पर लटकने वाला व्यक्ति मृतु पूर्व तड़फता नहीं होगा, इससे स्पष्ट है कि शरीर के लगभग प्रत्येक अंग आत्महत्या विरोधी है। आखिर कौन है जो जान-बूझकर योजनाबद्ध तरीके से हरेक अंग के सामूहिक विद्रोह को भी बलपूर्वक दबाकर उन्हीं के माध्यम से आवश्यक सामग्री जुटाकर क्रमशः आत्महत्या को अंतिम रूप देता है ? वह है दूषित मन, हताश मन, अशांत मन, बैचेन और कुंठित मन । माना कि हमें जलने या जलाने का कोई अनुभव नहीं, शांति का कोई स्थान नहीं। उसके सामीप्य में जलन, तपन, तड़पन, कोलाहल और कराह-ही-कराह है। दो-चार घंटा नहीं चार-छः माह । यदि उसी सप्ताह प्राणांत हो गया तो फिर शव-परीक्षण, अंग-भंग, चीर-फाड़ आदि। दुर्गंध और बीभत्स स्वरूप को स्वीकार ने करें तो भी आत्महत्या के देहद्रोह तो स्वीकारना ही पड़ेगा।

मानव क्षणभंगुर या नाशवान प्राणी है, मगर अंतरात्मा से वह सदासर्वदा के लिए जीवित रहना चाहता है। उसने अजर-अमर रहने के लिए सर्वसंभावित उपाय ढूंढ़ा है, ढूंढ रहा है और आगे भी ढूंढता रहेगा। उसने अमृत की खोज की है, तंत्र-मंत्र जप-तप और पूजा-अर्चना का सहारा लिया है और आज भी विश्वविख्यात बड़े-बड़े वैज्ञानिक ऐसे उपायों की खोज में लगे हैं, परन्तु उनको इस दिशा में सफलता मिलने संबंधी कोई आशाजनक लक्षण दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, लेकिन फिर भी मानव हार मानने वाला प्राणी नहीं है । वह मृत्यु पर विजय प्राप्त करने में विफल रहा, पर विवाहके माध्यम से परिवार के सृजन कर सन्तानोत्पत्ति द्वारा उसने मानव जाति को अमरत्व प्रदान कर दिया । संतान द्वारा अपने आपको सुरक्षित रखना ही नहीं वरन् वंशवृद्धि करना भी प्राणीजगत का सार्वभौम नियम है और उसका पालन करना संतान का परम कर्तन्य । ऐसी परिस्थिति में यदि कोई संतान आत्महत्या करता है तब वह अपने आपके साथ, परिवार के साथ और मानव जाति के साथ विश्वासघात करता है। मनुष्य संतानों के माध्यम से अपने आप का प्रसार करता है। पिता के अंग-अंद ते खून-पसीने से तत्क्षण निर्मित शुक्राणु से ही सन्तान की उत्पत्ति होती है। इसी कारण सन्तान को पिता का प्रतिरूप माना जाता है। इस प्रकार मनुष्य जाति की सुरक्षा और विकास के लिए भी अपना स्वरूप या सन्तान उत्पन्न करना नितान्त आवश्यक है। इस दशा में भी यदि कोई सन्तान आत्महत्या करता है। तो वह आत्महत्यारा ही नहीं कहलाएगा, बल्कि परिवार और मानव जाति का हत्यारा भी कहलाएगा।

निःसन्देह हम हिमालय की तराई में नहीं बसते, जहाँ साधु-सन्तों, ऋषि-मुनियों को किसी अन्य से कोई मतलब नहीं रहता । उनका परमलक्ष्य मोक्ष प्राप्ति होता है, जिसके लिए वे वर्षों तक धुनी रमाए कठोर तपस्या करते रहते हैं । उनका जीवन पूर्णतः व्यक्तिगत होता है। इसलिए हमारे लिए उनका कोई कर्त्तव्य नहीं होता, मगर हम सामाजिक प्राणी हैं । फलतः हम सामाजिक दायित्वों से बंधे हैं तथा राष्ट्रीय भावना से जुड़े हैं । परस्पर पारिवारिक सम्बन्ध के कारण अभी भी हममें माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन, सास-बहू, ससुर-दामाद, जाति-समाज का कर्त्तव्य बोध विद्यमान है। तो फिर जहर का प्याला या ज्वाला का कहर क्यों ? नींद की गोली या गोली बंदूक की क्यों ? फाँसी का फंदा या आत्महत्या का धंधा क्यों ? जो आप पढ़ रहे हैं वह किसी और न लिखा है। जिस पर आप बेठे हैं उसका निर्माण किसी और न किया है। जिस पर आप सोये हैं उसका प्रणेता कोई और है। जिस पर आप खड़े हैं उस धरातल का विधाता कोई और है। आपको किसी और ने भू-तल पर पाँव जमाना, चलना-फिरना, पढ़ना-लिखना, चिन्तन-मनन, सोच-विचार करना सिखाया है । आज दिनांक तक हम किसी अन्य पर आश्रित रहे हैं और आगे भी रहेंगे। सामाजिक प्राणी होने के नाते हम प्रत्येक क्षण परस्पर सहयोग दे रहे हैं या ले रहे हैं। सारा देश ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व हमारे जीवन को सुगन बनाने हेतु किसी न किसी रूप में अत्यन्त कठोर परिश्रम कर रहा है। हमारे लिए जो यह सब कर रहे हैं उनके लिए हमें कुछ भी नहीं करना चाहिए, यह कैसी मानसिकता है ?






साधारण अर्थों में अपराध एक ऐसा कार्य होता है जो सार्वजनिक अधिकारों और व्यवस्था को भंग करता है तथा समस्त समाज को प्रभावित करता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि अपराध एक असंवैधानिक कार्य होता है जिसके करने अथवा जिसका लोप करने से जन-सामान्य समाज एवं राष्ट्र को क्षति पहुँचती है। अर्थात् यह एक सार्वजनिक अपकार माना जाता है। आत्महत्या एक असंवैधैनिक कार्य है जिसके करने से परिवार-जन, समाज व राष्ट्र को आर्थिक क्षति पहुँचती है इस कारण इसे आर्थिक अपराध माना जाता है। लालन-पालन, पढ़ाई-लिखाई, वस्त्रभूषण, ऐश-व-आराम, शिक्षण-प्रशिक्षण, पद व प्रतिष्ठा प्राप्त करते तक व्यक्ति माता-पिता परिवार-समाज, निगम-संस्थान प्रदेश-राष्ट्र का बेहिसाब धनराशि बरबाद कर चुका होता है। परिणामस्वरूप यदि कोई जीवात्मा अपने जीवन के किसी भी उम्र में आत्महत्या करता है तो वह किसी न किसी का कर्जदार रहता ही है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आत्महत्या आर्थिक अपराध है। इसके अतिरिक्त यदि आप सन्तान हैं तो इस नसबंदी के जमाने में माता-पिता कहाँ जायें और यदि आप माता-पिता है तो इस महँगाई के जमाने में बच्चे कहाँ जायें ? यदि आप निर्माता-निर्देशक हैं तो कलाकारों को पारिश्रमिक कौन देगा और यदि आप कलाकार हैं तो निर्माता-निर्देशक को मुफ्त में कलाकार कौन देगा ? पारिश्रमिक तो आप अग्रिम में ले चुके थे।पूरी न सही आधी सही । आधी न सही एक चौथाई सही। निःसन्देह आप आत्महत्यारे के अलावा आर्थिक अपराधी भी कहलाएँगे-इसमें कोई दो राय नहीं।

वस्तुतः अपराधी को दण्डित करना राष्ट्र का पावन कर्त्तव्य है। दण्ड किसी भी अवैध कृत्य का वैध परिणाम है। यदि राष्ट्रध्यक्ष अपराधियों को यथोतित कठोर दण्ड से प्रताड़ित नहीं करता तब वह पशुता को बल प्रदान करता है। अपराधी को सुधारने तथा पुनः उसी दुष्कर्म को न करने की प्रेरणा देने हेतु उसे दण्डित किया जाता है। इसलिए अपराधी को सजा देना जायज है। भारतीय दण्ड संहिता का धारा 309 के अनुसार आत्महत्या करने का प्रयास करनाकिसी भी भाँति से, मात्र एक वर्ष के कारावास या जुर्माना या दोनों से दण्डनीय है। इस धारा के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त द्वारा आत्महत्या के लिए प्रयास किया गया हो तथा उसका कार्य प्रयत्न की कोटि आ सकने वाला हो।

अतएव स्पष्ट है कि जिस प्रकार वैश्यावृत्ति, जुआ, सट्टा, जोरी, डकैती, लूट, छूरेबाजी, खून या हिंसा करना वैधानिक जुर्म नहीं, पकड़ाना और साबित होना वैधानिक जुर्म है, ठीक उसी प्रकार आत्महत्या स्वयं कोई अपराध नहीं। आत्महत्या करने का प्रयत्न करना अपराध है। पकड़ना अपराध है। यह एक ऐसा दुष्कृत्य है जो सफल या पूर्ण हो जाने पर दण्डनीय नहीं होता, क्योंकि उस अवस्था में अपराध करने वाला व्यक्ति दण्ड-सीमा से बाहर पहुंच जाता है, जहां तक वारंट, हथकड़ी या इस मृत्युलोक का विधान नहीं पहुंच सकता तथा साथ ही दण्ड विधि का उद्देश्य भी पूरा हो जाता है। हकीकत में आत्महत्या स्वतः किया गया आपराधिक मानव हत्या है। इसलिए हत्यारे को चाहे वह आत्महत्यारा ही क्यों न हो पकड़ाने तथा प्रमाणित होने पर सजा तो मिलनी ही चाहिए। ब्रिटेन मै सन् 1745 से ही आत्महत्या को अपराध घोषित किया गया है और उन देशों में भी जहाँ कभी इंगलैण्ड का शासन रहा। पश्चिम में 19 वीं शताब्दी में आत्महत्या को पाप और अपराध से भी अधिक लज्जाजनक करतूत समझा गया।

यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद -21 के तहत दिये गये जीने के अधिकार में मौत का अधिकार शामिल नहीं है, इसलिए आत्महत्या का प्रयास करना अथवा इसमें सहायता देना भारतीय दंड संहिता की धारा -309 और 306 के तहत अपराध ही माने जायेंगे । भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा है कि भारतीय दण्ड संहिता के ये दोनों प्रावधान भारतीय सविधान के अनुच्छेद -14 कानून का नजर में समानता और अनुच्छेद -21 जीने के अधिकार का उल्लंघन नहीं करते इसलिए वैध है। न्यायमूर्ति जे एस. वर्मा की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय अन्य चार न्यायाधीश थे-व्यायमूर्ति जी.एन.राय, न्यायमूर्ति एन पी.सिंह, न्यायमूर्ति फैजनउद्दीन और न्यायमूर्ति जी.पी. नानावटी । न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने छह अपीलों पर निर्णय देते हुए यह फैसला सुनाया। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में मुम्बई उच्च न्यायालय, दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही पूर्व में दिए गए उन फैसलों को रद्द कर दिया है जिनके तहत भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 को असंवैधानिक माना गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के कउस निर्णय पर सहमति व्यक्त की है जिसमें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 की संबैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया था ।

यहाँ यह नितान्त प्रासंगिक है कि दैनिक समाचार पत्र ‘नवभारत ’-रायपुर संस्करण, रविवार, दिनाँक-18 जुलाई, 1999 पृष्ठ क्रमांक-4 में नियमित स्तम्भ – विश्व परिक्रमा के अंतर्गत एक समाचार प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है- ‘इच्छामृत्यु की अपील नहीं मानी गयी ।’ तदनुसार लंदन : ब्रिटेन में एक किशोरी हृदय रोग से इतना परेशान थी कि उसने इच्छामृत्यु की अपील की, जबकि डॉक्टरों का कहना था कि हृदय के प्रत्यारोपण से वह जिन्दा रह सकती है। अन्त में मामला अदालत तक पहुँचा और हाइकोर्ट ने फैसला सुनाया कि वह ऑपरेशन को मना नहीं कर सकती है। अंततः उस साढ़े पन्द्रह साल की किशोरी को अपने हृदय का प्रत्यारोपण कराना पड़ा । अब वह किशोरी धीरे-धीरे अस्पताल में स्वस्थ हो रही है। निष्कर्ष यह है कि न केवल भारत में अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी आत्महत्या एक दण्डनीय अपराध है।
*******

उत्तेजक और सचेतक तत्व



आत्महत्या दुष्कर्म का वह स्वरूप है जिसमें मात्र आत्महत्या का स्वनिर्णित निष्कर्ष, केवल आत्महत्या द्वारा स्वनिर्मित मत और सिर्फ आत्महत्या के लिए स्वसमर्थित स्वार्थ परायणता अनेक कारणों में से एक कारण अथवा एकमात्र कारण हो सकता है। किन्तु आत्महत्या के लिए कोई भी कारण वस्तुतः कारण नहीं, क्योंकि जिन-जिन कारणों से पूर्व में आत्महत्याएं किए गए हैं उन-उन से अधिकाधिक बहुत, भारी तथा व्यापक रूप से दीन-हीन, जीर्ण-विदीर्ण,त्रस्त-संतप्त, दलित,शोषित पीड़ित, खंडित, दुःखित, तापित और शापित व्यक्ति आज भी अभाव और बेभाव के बावजूद अपना जीवन यापन कर रहे हैं । निष्काम कर्मयोग का परिपालन कर रहे हैं । तमाम जिम्मेदारियों को बखूबी निबाह रहे हैं। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि आत्महत्या के लिए सभी कारण हो सकते हैं, आत्महत्या का कोई कारण नहीं हो सकता । वस्तुतः आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं, मानसिक तनाव की दुःखद परिणति है। वर्तमान विश्व में कोई भी ऐसी समस्या नहीं जिसका समाधान किसी न किसी रूप में विद्यामान न हो । साथ ही कोई भी ऐसा कारण नहीं जिसमें किसी समस्या का निदान अन्तर्निहित न हो । सभी कारणों में सुलझन संभव है। कोई भी समस्या अथवा कोई भी कारण अपने आप में इतना भयानक नहीं जिसकी निष्पत्ति आत्महत्या हो । सचेतना जब सोती है दुर्घटना तब होती है। वस्तुतः उत्तेजक और सचेतक परस्पर विरोधी तत्व हैं । उत्तेजक की विजय और सचेतक की पराजय का वाचक शब्द है –आत्महत्या

आज के इस अर्थ युग में अत्यन्त तेज और अतिभौतिकवादी दिनचर्या में व्यक्ति दो ही विकल्प चुन सकता है संघर्ष अथवा समर्पण। जिसमें जितना आत्मविश्वास होगा, वह उतना ही अधिक पराक्रम के साथ संघर्ष करेगा और जिसमें जितना कम आत्मविश्वास होगा, वह उतना ही अधिक कायरता के साथ आत्म-समर्पण करेगा। आत्महत्या के लिए आज की तनाव भरी जिन्दगी तथा उससे उपजी विसंगतियां कुछ हद तक दोषी तो है, लेकिन आत्महत्या के कारण नहीं, क्योंकि जिन तनाव भरी जिन्दगी से उबकर कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, अधिकांश व्यक्ति उससे भी अधिक तवाव भरी जिन्दगी जीते हैं। आत्महत्या के अधिकांश प्रकरणों में समाज तथा उसके द्वारा निर्मित परिस्थितियां काफी कुछ जिम्मेदार होती हैं, किन्तु वे भी आत्महत्या के कारण नहीं, क्योंकि उससे भी निम्नतम समाज में लोग अपेक्षाकृत उच्चतम जीवन जीते हैं। यद्यपि आत्महत्या के मूल में प्रायः कुछ समय पूर्व व्यतीत कोई गंभीर बात अवश्य होती है, तथापि आत्महत्या का मूल कारण व्यक्ति की शनैः-शनैः बनती बिगड़ती पलायनवादी मानसिकता ही होती है। वस्तुतः आत्महत्या के लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार होता है कोई उत्तेजक तत्व जिम्मेदार नहीं होता ।

आत्मविश्वास एक अलौकिक चमत्कारी शक्ति है। यह शक्ति इस मृत्युलोक के 84 लाख योनियों में से केवल मनुष्य को ही प्राप्त है। मात्र मानव ही इसका स्वामी है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्मविश्वास होता है। आत्मविश्वासी व्यक्ति की बात में सदैव वजन रहेगा । वह जो भी बात करेगा, पूर्णतः ठोक बजाकर करेगा। उसकी बोल-चाल आचार-व्यवहार, रहन-सहन इत्यादि सब कुछ इस बात को जाहिर करता है कि उसमें कितना आत्मविश्वास है। आत्मविश्वास के कराण व्यक्ति की शक्ति दुगुनी तथा उसकी क्षमता चौगुनी हो जाती है। किसी कार्य को पूर्ण पकने के लिए दृढ़ता के साथ अपने मन में संकल्प करना ही आत्मविश्वास कहलाता है । अन्य शब्दों में दृढ़ संकल्प का ही दूसरा नाम आत्मविश्वास है। मानव द्वारा किए गए अद्भुत, अलौकिक या चमत्कारी लगने वाले सभी कार्य आत्मविश्वास के बल पर ही संभव होते हैं । खूंखार जंगली जानवरों को पालतू बना लेना, अपने इशारे पर नचाना, सर्कस में एक से एक करिश्में दिखाना, वाहन-चलाना व लम्बी-कूदान, मीना बाजार में मौत की छलांग फिल्मों में डुप्लीकेट के रूप में एक से बढ़कर एक महान कार्य सफलता पूर्वक प्रदर्शित करना इत्यादि सभी आत्मविश्वास के ही कमाल हैं।

आत्मविश्वास के सहारे व्यक्ति सब कुछ कर सकता है। यदि व्यक्ति संकल्प कर ले कि वह अमुक कार्य करके ही रहेगा तो निःसंदेह वह कार्य पूरा होकर रहेगा । जब हमारा निश्चय कमजोर हो जाता है, तभी हम पराजित अथवा असफल होते हैं अन्यथा नहीं। आमतौर पर आत्मविश्वास बीच में ही टूट जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि हमारा आत्मविश्वास बिपरीत परिस्थितियों में भी मंझधार में न टूटे । हमारा आत्मविश्वास हमेशा हमें मजबूत बनाए रखता है, इसलिए यह जितना अधिक मजबूत होगा हम उतना ही अधिक सफल होंगे। जिनमें आत्मविश्वास नहीं है वह जीवन में कुछ नहीं कर सकता । जिसमें आत्मविश्वास की कमी है, उसे कई नया काम करते समय घबराहट होता है। थोड़ा सा परिश्रम करने पर उनके हाथ पैर फूल जाते हैं। सम्पूर्ण अभिलाषाएं धूल में मिल जाती है। थोड़ी-सी बाधा अथवा संकट आते ही वे अत्यंत भयभीत हो जाते हैं, काम छोड़कर भाग जाते हैं तथा अपेक्षाकृत और अधिक दुःखदायी रास्ते की ओर चलकर अंधेरे कुएं छोड़कर भाग जाते हैं तथा अपेक्षाकृत और अधिक दुःखदायी रास्ते की ओर चलकर अंधेरे कुएं में खत्म हो जाते हैं, गुमनामी की मौत मर जाते हैं या फिर आत्महत्या कर लेते हैं ।

ऊपरी तड़क-भड़क या केवल ऊपर से दिखलाने के लिए किया हुआ काम दिखावा कहलाता है। इसे हम आडम्बर अथवा झूठा स्वाभिमान भी कह सकते हैं । भारत कृषि प्रधान देश है। मध्यप्रदेश स्थित छत्तीसगढ़ अंचल “धान का कटोरा” के नाम से विख्यात है। इस अंचल में जिसके पास जितनी अधिक कृषि भूमि होती है वह कृषक उतना ही अधिक प्रतिष्ठित माना जाता है। एक ग्रामिण कृषक अपनी हैसियत से अधिक हर साल लगभग एक एकड़ जमीन खरीदने लगा ससुर से कर्ज लिया, बहनोई से कर्ज लिया । इतना ही नहीं अन्य सगे संबंधियों से भी कर्ज लिया । उधारी चुकाने का नाम नहीं । रिश्तेदार तगादा करने आते रहे, जाते रहे। गिलाशिकवा करते रहे, लेकिन उसकी औकात तो थी ही नहीं। चल सम्पत्ति तो बह पहले ही बेच चुका था। आखिर अब वह करे भी तो क्या करे ? रात-दिन की पारिवारिक कलह से तंग आकर अंततः उसने कोई कीटनाशक दवा का स्वन कर मौत को गले गला लिया । इसलिए व्यक्ति को निश्चित रूप से चादर से बाहर पैरे नहीं फैलाना चाहिए।

अहंकार का शाब्दिक अर्थ होता है घमंड। जिस व्यक्ति में “मैं” की भावना विद्यामान होती हे उसे अहंकारी कहते हैं। अपने आपको अन्य से श्रेष्ठ समझना तथा मैं को अपेक्षाकृत अधिक महत्व देना अहंकार होता है। यह अहं अपने मुकाबले दूसरों को तुच्छ समझने की भावना उत्पन्न करता है। जो यह सोचना है कि वह अखिल विश्व के बिना अपना काम चला लेगा वह अपने आपको धोखा देता है, साथ ही जो यह कल्पना करता है कि विधाता का कार्य उसके बिना नहीं चल सकता वह और भी बड़े धोखे में है । अहंकार पतन का कारण है। अहंकार करने वाले मनुष्य का एक-न-एक दिन पतन अवश्यंभावी है। नाश के पूर्व अपेक्षाकृत और अधिक अहंकारी हो जाता है। अहंकारी व्यक्ति दूसरों को अधिकारों को बरबस अपने हाथ में लेना चाहता है। वह दूसरों की वस्तुओं को अपनी मुट्ठी में करना चाहता है। वह दूसरों के जज्बातों से खेलता है। वह विधि के विधान को बदल कर स्वयं का एकछत्र आधिपत्य स्थापित करना चाहता है। वह सर्वशक्तिमान बनना चाहता है। जब किसी कारणवश उसका धमंड चूर हो जाता है तब उसे एहसास होता है कि उसने स्वयं को खो दिया है। दरअसल तब उसका कोई अस्तित्व नहीं रह जाता । उसे अत्यन्त कष्ट होता है, असहनीय आत्मीय पीड़ा । उसका सिर शर्म से झुक जाता है तथा दुनिया के सामने नज़र मिलाने के लिए वह अपने आप को नितान्त असमर्थ पाता है और आत्महत्या कर बैठता है ।

किसी विषय या कार्य की सिद्धि के संबंध में मन में बार-बार होने वाला विचार चिंता कहलाता है। वर्तमान विश्व में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं जो सुख नहीं चाहता हो, धन नहीं चाहता हो सुन्दर पत्नी नहीं चाहता हो, राजशाही ठाठ-बाट न चाहता हो । लगभग सभी इसकी इच्छा करते रहते हैं और रात-दिन स्वप्न देखते रहते हैं। सदा यही इच्छा रहती है कि उसे कोई आलौकिक शक्ति मिल जाए जिससे उसकी चिंता दूर हो जाए, लेकिन शायद ही ऐसा कोई चमत्कार किसी की जिन्दगी में होता है। जब कोई इच्छा पूरी नहीं हो पाती और कामनाएं धरी-की धरी रह जाती हैं । तब व्यक्ति अभाव व चिंताग्रस्त परिस्थितियों से जूझता रह जाता है। चिंता करने मात्र से कोई भी विपत्ति आज तक कभी नहीं टली । चिंता से बढञकर मनुष्य का कोई भी शत्रु नहीं । चिंता एक प्रकार से काली दीवार की भांति चारों तरफ से घेर लेती है, जिससे निकलने के लिए कोई गली दिखाई नहीं देती और व्यक्ति का दम घुटने लगता है, जिससे तंग आकर वह आत्महत्या कर लेता है।

निराशावादी व्यक्ति का चेहरा मलीन रहता है, उसके चेहरे पर उदासी छायी रहती है उसका स्वर मध्यम तक अस्पष्ट होता है। वह सिर झुकाकर चलता है। वह हमेशा अनपा रोना रोते रहता है। जब वह दुनिया को अपनी रोनी सूरत दिखाता है और दर्दभरी कहानी सुनाता है तो लोग तालियां बजाकर उसकी हंसी उड़ाते हैं । ऐसे संकट की घड़ी में आशावादी विचारधारा ही उसे सहारा देती है। उसकी उम्मीद उसे ढांढ़स बंधाता है कि कोई बात नहीं अमुक नुकसान हो गया, अमुक बात नहीं बनी, काम बिगड़ गया, पर आगे बन जाएगा। उम्मीद के अभाव में व्यक्ति टूट जाता है। जो नाउम्मीद हो जाते हैं, जिनको जन्दगी में चारों ओर केवल निराशा ही निराशा नजर आती है, उनका स्वयं का जीवन उनके अपने लिए भार हो जाता है और अन्ततः वे हताश होकर आत्महत्या कर लेते हैं। आत्महत्या करना जिन्दगी का सबसे बड़ा कायरतापूर्ण कार्य है। मानवता के नाम पर कलंक है। इसलिए किसी भी स्थिति में निराशा को मन में आने नहीं देना चाहिए। यदि निराशा मन में आ गई, तो वह क्रमशः बढ़ती ही जाती है और जब जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती है, तब व्यक्ति बिल्कुल टूट जाता है। निराशा की चरम स्थिति से ही आत्मघाती प्रवृत्ति का जन्म होता है।

मौसम का शाब्दिक अर्थ होता है- ऋतु। 20 वीं सदी के 9 वें दशक में आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा मानवजाति के व्यवहार और भविष्य विषयक किए गए शोध का निष्कर्ष यह है कि सर्द मौसम में मस्तिष्क सही ढंग से काम करता है जबकि गर्म मौसम में दिमागी प्रतिक्रियाएं अपेक्षाकृत अधिक तेज तथा असन्तुलित हो जाती है। परिणामस्वरूप उत्तेजना बढ़ती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में जनवरी से आत्महत्या की दर क्रमशः बढ़ती जाती है और मई में यह अपनी चरण सीमा पर पहुंच जाती है। जून से आत्महत्या की दर क्रमशः घटने लगती है और दिसम्बर में तो यह न के बराबर हो जाती है। भारत में मई से जुलाई तक आत्महत्या सर्वाधिक होती है। उक्त शोध में यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि विवाहित महिलाएं आमतौर पर शीत ऋतु में, अविवाहित लोग वर्षा ऋतु विशेषकर बैरी सावन में में और विद्यार्थी ग्रीष्म ऋतु में आत्महत्या करते हैं।

वातावरण का अर्थ होता है- आसपास की परिस्थिति, जिसका जीवन या अन्य बातों पर प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में वह हवा जिसने पृथ्वी के चारों ओर से घेरा हुआ है। जलमय वातावरण आत्महत्या करने वालों के लिए विशेष सहायक होता है। नदी, तालाब, कुआ वगैरह का लबालब भरा होना भी आत्महत्या के अनेकानेक कारणों में से एक कारण अवश्य है। वैज्ञानिक यह मानते हैं कि हवा के दबाव में अचानक कमी होने से बारिश होती है तथा वातावरण में एकाएक नमी की बढ़ोत्तरी हो जाती है। इससे शरीर से निकलने वाले पसीने के सुखने पर असर पड़ता है। यह सूखने की प्रक्रिया (वाष्पीकरण) भी दिमाग को आत्महत्या हेतु उकसाती है। अमेरिकन मेडीकल एसोसिएशन के एक शोध के अनुसार वायु के दाब में परिवर्तन होने के कारण लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति जन्म लेती है. हवा का दबाव कम होने से खून का दबाव बढ़ जाता है और दिमाग को अधिक खून पहुंचता है, लेकिन आक्सीजन कम हो जाती है, जिससे दिमाग उत्तेजित हो जाता है और संवेदन शीलता बढ़ जाती है। फलतः व्यक्ति भावुकतावश आत्महत्या की ओर प्रेरित होता है। फिलाडेल्फिया (अमेरिका) में जब आत्महत्याओं की लगभग 527 घटनाओं की जांच की गई तो यह निष्कर्ष निकला की हवा के दबाव में प्रति 0.4 इंच से 0.3 इंच तक की कमी आने से आत्महत्याओं की संख्या अधिक हो जाती है।

ग्रहराज सूर्य सारी ग्रहमाला को एक सूत्र में नियमबद्ध गति से अपनी चारों ओर घुमाते हैं। साथ ही सारे ग्रहों को एक-एक बार अपने तेज से अस्तगत कर देते हैं। हमारी पृथ्वी भी सौर-मंडल की एक सदस्य है और वह भी सूर्य से आकर्षित होकर अनवरत उसकी परिक्रमा कर रही है। पृथ्वी में भी आकर्षण शक्ति है, जिस कारण उसे सूर्य अपना प्रकाश, ताप आदि भेंट करता रहता है। फलतः पृथ्वी के जीवधारियों में प्राण और शक्ति का संचार होता रहता है। पृथ्वी से सबसे निकट चन्द्रमा है। इसका जल तत्व पर विशेष प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक पूर्णिमा को समुद्र में ज्वार आना इसका स्पष्ट प्रमाण है। जिस प्रकार जन्द्रमा समुद्र के जल में उथल-पुथल मचा देता है उसी प्रकार वह शरीस के रूधिर प्रवाह में भी अपना प्रभाव डालकर समस्त प्राणियों को रोगी- निरोगी बना देता है। चन्द्र की चुम्कबीय शक्ति से जीवन का (मानसिक और शारीरिक दोनों ही दृष्टि से ) निर्माण होता है । दृष्टि से निर्माण होता है रक्षण भी होता है और विनाश भी। खगोल विशेषज्ञों के अनुसार चन्द्र मन का कारक ग्रह है, अर्थात् मन पर चन्द्र का स्वामित्व है। शरीर के समान मन पर भी चन्द्र का निश्चित रूप से अनुकूल व प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। चन्द्र के कारण ही हरेक पूर्णिमा को समुद्र में ज्वार आता है, इसी दिन पागलों का पागलपन बढ़ता है और इसी दिन आत्मघाती अपेक्षाकृत अधिक आत्महत्या करते हैं।

जिस प्रकार चन्द्र के कारण नियमित रूप से समुद्र में ज्वार-भाटे आते-जाते रहते हैं उसी प्रकार पृथ्वी के विभिन्न स्तरों में उतार-चढ़ाव होते रहते हैं । सूर्य और चन्द्रमा के समान ही अन्य ग्रहों का प्रभाव भी इस भू-मण्डल पर पड़ता रहता है तथा वे एक दूसरे को ओज आदि आदान-प्रदान करते रहते हैं । इस ग्रह-नक्षत्रों तथा अन्य तारागणों का सीधा प्रभाव मानव पर शारीरिक रूप से ही नहीं मानसिक रूप से भी पड़ता है। इसलिए मानव के सुख-दुख,लाभ-हानि, उत्थान-पतन आदि पर इनका निश्चित प्रभाव है। इनके प्रभाव के अनुकूल अथवा प्रतिकूल मानव जीवन पर ही नहीं वरन् अन्य थलचर, जलचर तथा नभचर के साथ-साथ वनस्पतियां भी संचालित होती है। परिणामस्वरूप पेड़-पौधे, फल-फूल तथा लताएं भी मौसम के अनुसार फलते-फूलते और परिवर्तित होते रहते हैं।

रक्त कुमुद दिन में खिलता है, रात में सिमट जाता है और श्वेत कुमुद रात में खिलता है, दिन में सिमट जाता है। कौरव-पाण्डव नामक प्रत्येक कली की पंखुड़ियां सूर्योदय के बाद ही खुलती है और सूर्यास्त तक ( केवल लगभग बारह घंटे) सदा-सदा के लिए बंद हो जाती है। रात-रानी रात में ही अपनी सुगंध बिखेरती है। उल्लू रात में ही देखता है। बिल्ली की नेत्र पुतली चन्द्रकला के अनुसार घटती बढ़ती रहती है। कुत्ते की काम-वासना आश्विन-कार्तिक मासों में अपनी चरम सीमा पर रहती है। बहुतेरे पशु-पक्षी, कुत्ते-बिल्ली, कौआ-सिआर आदि के मन में एवं शरीर पर तारागण का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे अपनी नाना प्रकार की बोलियों से मनुष्य को पूर्व ही सुचित कर देते हैं कि अमुक-अमुक घटनाएं घटने वाली है। लगभग सभी जीव-जन्तु ग्रह-नक्षत्र मंडल के प्रभाव से ही प्रकृति के अनुसार नाना प्रकार की हरकतें करते रहते हैं, जिनमें से एक हरकत आत्महत्या भी है, जिसके पीछे अन्य कारणों के साथ-साथ उपरोक्तानुसार खगोलीय कारण भी हुआ करते हैं। खगोलीय परिवर्तनों सी ही भूकम्प-ज्वालामुखी, अतिवृष्टि-अनावृष्टि, युद्ध-क्रांति, अराजकता व अकाल की स्थितियां पैदा होती है, मन में भय, तनाव व असंतोष उत्पन्न होता है । इन अस्थिर के सभी कारणों से मानव मस्तिष्क अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित होता है, जिस करण वह अनेक नाजुक निर्णय लेने में भी संकोच नहीं करता, जिनमें से आत्महत्या का निर्णय भी एक है।

प्रकृति का अर्थ होता है वह मूल शक्ति, जिसने अनेक रूपात्मक जगत का विकास किया है तथा जिसका रूप दृश्यों में दृष्टगोचर होता है। जगत का उपादान कारण अर्थात् वह कारण जो स्वयं कार्य के रूप में परिणित हो जाय । आत्महत्या की पृष्ठभूमि में प्राकृतिक प्रकोप अथवा प्राकृतिक विपदा भी प्रमुख भूमिका निभाती है। बाढ़ की चपेट, सूखे की मार, दुर्घटना शिकार एवं भूख की तड़प से व्यक्ति कंद-मूल, जड़ी-बूटी, पशु-पक्षी के अलावा कभी-कभी कीड़े-मकोड़े के साथ-साथ जहर भी खाने के लिए मजबूर हो जाता है। किसी ने कहा है कि कठपुतली करेगी भी क्या ? धागे तो किसी और के हाथ है, नाचना तो पड़ेगा ही । इसके अंतर्गत व्यक्ति करना नहीं चाहता या यो कहें कि व्यक्ति में मरने की चाह नहीं होती, लेकिन फिर भी वह आत्महत्या कर बैठता है।

विगत प्रसिद्ध घटनाओं के कालक्रम के अनुसार वर्णन को इतिहास कहते हैं. संभवतः आत्महत्या की पहली घटना ईसापूर्व पहली शताब्दी में घटित हुई । उस दौरान चेरा राजा ने तब आत्महत्या की थी, जब वे युद्ध में पराजित होकर दुश्मन के कारागार में बंदी थे। राजा ने अपने अंतिम पत्र में लिखा था कि गरिमा खोकर दूसरे की दया पर निर्भर रहने से मरना श्रेयस्कर है। बीसवीं सदी में भी एक विख्यात तथा भयानक घटना घटित हुई । द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम चरण में इटली विजय के पश्चास मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी के विभिन्न प्रदेशों पर बम-वर्षा प्रारम्भ कर दी। अप्रेल सन् 1944 में लगभग 81000 टन बम बरसाये गये । जर्मनी चारों ओर से शत्रुओं से घिर चुका था। हिटलर तथा उसके सहयोगियों की दशा अत्यन्त शोचनीय थी। अन्य देशों के अलावा इटली का भी पतन हो गया था और 28 अप्रैल सन् 1945 को मुसोलिनी को गोली से उड़ा दिया गया । अपना वीभत्स विनाश निश्चित जानकर 30 अप्रैल 1945 को हिटलर और उसकी पत्नी इबाब्रान ने आत्महत्या कर ली। ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं से भी आत्महत्या की प्रवृत्ति बलवती होती है।

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं स्नायुरोग संस्थान, बेंगलूर के प्रोफेसर श्री जे.पी. बालोजी और प्रसिद्ध मनोचिकित्सक प्रोफेसर श्री लोम सुंदरम, मद्रास के अनुसार संस्कृत तथा तमिल साहित्य आत्महत्या संबंधी घटनाओं व इनके औचित्य प्रतिपादन के प्रसंगों से भरा हुआ है । इस प्रकार के साहित्य आत्महत्या की ओर झुकी मानसिकता को अपेक्षाकृत और अधिक विचलित करते हैं। हेमलांक सोसायटी, यूगुन आकेगन का एक ऐसा संगठन है, जो आत्महत्या के तरीके सुझाता है। पूर्व ब्रिटेन निवासी तथा वर्तमान में हेमलॉक सोसायटी के प्रबन्ध निदेशक डेरेक हम्फ्री द्वारा लिखित “फाइनल एक्जिट” (अंतिम प्रस्थान) नामक पुस्तक में असाध्य रोगों से पीड़ित तथा जीवन से हताश लोगों के लिए आत्महत्या के तरीके सुझाए गए हैं। हेमलॉक सोसायटी द्वारा प्रकाशित तथा सेकासस, न्यूजर्सी के केरोल प्रकाशन द्वारा वितरित और न्यूयार्क टाइम्स की कैसे करें व अन्य परार्श देने वाली सजिल्द पुस्तकों की सूची में सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तक के रूप में अंकित यह किताब मानसिक रूप से अवसादग्रस्त एवं दिग्भ्रमित लोगों को आत्महत्या की ओर प्रवृत्त कर रही है।

वह जिस पर किसी विशेष उद्देश्य से दृष्टि रखी जाय लक्ष्य कहते हैं। उद्देश्यपूर्ण बात । जिस प्रकार तिनका-तिनका चुनकर पक्षी अपना घोसला बनाते हैं, एक-एक फूल चुनकर माली सुन्दर व सुगधित गुलदस्ता बनाते हैं, एक-एक ईंट जोड़कर कारीगर बहुमंजिली व भव्य इमारत बनाते हैं, बूंद-बूंद करके ही इतना अधिक पानी गिर जाता है कि नदियों में बाढ़ आ जाती है, उसी प्रकार हमें भी एक-एक मिनट का सदुपयोग करके प्रत्येक कदम पूर्व निर्धारित लक्ष्य की ओर ही बढ़ाने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए। अर्थात् हम जो भी करना चाहते हैं, जो भी बनना चाहते हैं या फिर जिस ढंग से भी अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं वह पूर्व निर्धारित होना चाहिए । हम जो कुछ भी करना या बनना चाहते हैं उसकी तैयारी प्रारम्भ से ही करनी चाहिए। अमूल्य समय का सदुपयोग, हितकारी कार्यारंभ, निरन्तर व भरपूर प्रयास ही व्यक्ति को सफल बनाता है। जो व्यक्ति अपना कीमती वक्त व्यर्थ गुजार देता है वह समय फिर कभी वापिस नहीं पाता। जो व्यक्ति अति महत्वाकांक्षी होता है, जिसे आलीशान इमारत की आखिरी मंजिल ही दिखाई देती है, जो सूरज को छूना चाहता है वही जलता है। उसी की शक्ति क्षीण हो जाती है। फलतः वह स्वयं का जीवन निर्वाह कर सके इस लायक नहीं रह जाता और तब वह अंततः आत्महत्या कर लेता है।

संकल्प का अर्थ होता है-कोई काम करने का पक्का इरादा या कोई कार्य करने से पहले अपना दृढ़ निश्चय प्रकट करना। हमारे मन में विभिन्न प्रकार की कल्पनाएं उठा करती हैं। जो कल्पनाएं उठती हैं और मिट जाती है उनका हमारे मास्तिष्क पर कोई अस्तित्व नहीं रहता। जो कल्पना बार-बार उठती है वह विचार बन जाती है। जब कोई विचार बारम्बार आता है, जमता है तथा मजबूत हो जाता है तब वह संकल्प बन जाता है। संकल्प जब हमारे आचरण में आता है तब वह कर्म बन जाता है और जब फल देता है वह भाग्य कहलाता है। इस प्रकार कल्पना आरम्भ है और भाग्य अन्त । इसलिए व्यक्ति को क्रमशः कल्पना से भाग्य तक पहुंचना चाहिए, भाग्य से कल्पना तक नहीं। मानसिक रूप से स्वस्थ बने रहने के लिए हमें दृढ़ संकल्प के प्रति सतर्क व सचेष्ट बने रहना चाहिए । मन में प्रकृति-विरूद्ध संकल्प का बने रहना मानसिक अस्वस्थता की निशानी और प्रकृति के अनुकूल संकल्प का बने रहना मानसिक स्वस्थता की निशानी है। संकल्प में बड़ी शक्ति होती है या फिर यों कहना ज्यादा उचित होगा कि शक्ति संकल्प में ही होती है। इसलिए व्यक्ति को ऐसा दृढ़ संकल्प कर लेना चाहिए कि मुझे प्रकृति के विरूद्ध कोई कर्म कदापि नहीं करना है। ऐसा करके ही वह अपने जीवन में प्रसन्न चित्त, खुशी, शांत व स्वस्थ रह सकता है वरना आत्महत्या जैसे घातक परिणाम भी सामने आ सकते हैं, आते रहे हैं, आ रहे हैं और आते रहेंगे।

मन में उठने वाली कोई बात को विचार कहते हैं। वह जो मन में सोचा या सोचकर निश्चित किया जाय । किसी बात के सब अंगों को देखना-परखना या सोचना-समझना। किसी प्रकरण की सुनवाई और निर्णय । विचार दो प्रकार के होते हैं-पहला आशावादी और दूसरा निराशावादी। यह बात एक उदाहरण, द्वारा अपेक्षाकृत और अधिक स्पष्ट हो जाएगी। दो व्यापारी मित्रों ने यह अनुमान लगाया कि इस वर्ष उन्हें अपने-अपने व्यापार में कम से कम 20-20 करोड़ रूपये का लाभ अवश्य होगा, किन्तु उन्हें मात्र, 15-15 करोड़ रूपये का लाभ हुआ । एक ने यह सोचते हुए निर्णय लिया कि चलो 15 करोड़ भी बहुत होते हैं, 15 करोड़ का लाभ अगले वर्ष भी हो जाएगा इस प्रकार कुल लाभ 30 करोड़ रूपये हो जायेंगे। इस आशावादी विचारधारा के सहारे वह ऐश व आराम के साथ जीवन व्यतीत करने लगा । दूसरे ने यह सोचते हुए निर्णय लिया कि एक वर्ष में 5 करोड़ रूपये घाटा । इसका मतलब अगले वर्ष पुनः 5 करोड़ रुपये का घाटा इस प्रकार कुल 10 करोड़ रूपये का घाटा । इस प्रकार निरंतर घाटा, मैं तो तबाह हो जाऊंगा, इस कदर घाटा खाने से तो अच्छा है फांसी के फंदे पर झूल जाना और वह आत्महत्या कर लेता है। एक दूसरा उदाहरण यह है कि दो शिकारी मित्र शिकार के पीछे दौड़ते हुए वन में भटक गए । जब वे थककर चूर हो गए तब वे पृथक-पृथक कल्प वृक्ष की छांह में बैठकर विश्राम करने लगे। दोनों शिकारियों को कल्पवृक्ष का ज्ञान न था। एक के मन में विचार आया कि कैसी जमकर भूख लग रही है, यदि इस समय भोजन मिल जाता तो कितना अच्छा होता. उसके समक्ष भोजन की थाली उपस्थित हो गई । वह भरपेट भोजन कर चैन की नींद सोने लगा । दूसरा भी भूख से व्याकुल हो रहा था। उसके मन मे विचार आया कि इस प्रकार भटक-भटक कर और भूख से तड़प-तड़प कर जीने से तो मर जाना अच्छा है। तत्काल उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

व्यसन का शाब्दिक अर्थ होता है कोई बुरा शौक, कोई बुरी लत, कोई अमांगलिक बात, विषयों के प्रति आसक्ति, व्यर्थ का उद्योग, असमर्थ होने का भाव, काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि विकारों से उत्पन्न दोष इत्यादि । किसी को इज्जत लूटने, किसी को खून करने, किसी को अपना जेब भरने अथवा दूसरे का पाकिट मारने, किसी को लापता करने इत्यादि विभिन्न प्रकार के बुरे शौक होते हैं। तत्संबंधी व्यक्ति उपयुक्तानुसार व्यर्थ उद्योग करते-करते जीवन के अंतिम चरण में थक जाते हैं या फिर उक्त कुकर्म से उब जाते हैं। जब कभी वे एकांत में आत्मविवेचन अथवा आत्मचिंतन करते हैं, खुद की नज़र में गिर जाते हैं। दुनिया की नज़र से बचना बहुत आसान हैं, लेकिन अपने आप की नज़र से बचना लगभग असंभव है। ऐसे व्यक्ति आत्मग्लानि से अपने आपको नहीं बचा सकते और आत्महत्या तक कर बैठते हैं । ऐसी आत्महत्या की पृष्ठभूमि में कोई शर्म बोध या फिर कोई अपराध बोध भी होता है।

मन क्या है ? मन कामनाओं का अथाह सागर है, जिसमें सदा कामनाओं की, इच्छाओं की तथा महत्वाकाक्षाओं की लहरें उठा करती हैं। एक लहर उठकर गिरी नहीं कि दूसरी पैदा हो जाती है। मन की लहरों को समाप्त करना अत्यन्त कंठिन ही नहीं, असम्भव है। जब तक जीवन है इन लहरों का अंत ही नहीं। आत्मा, इन्द्रियां और विषय-इन तीनों का संयोग होने पर जब मन भी इनके साथ संयोग करता है तब ही हमें किसी प्रकार का ज्ञान होता है। यदि इन तीनों के साथ मन का संयोग न हो तो ज्ञान नहीं होता। गन सदा चंचल तथा गतिशील होता है। इसके सहयोग के बिना बुद्धि काम नहीं कर सकती, कोई भी इन्द्रिय अपने विषय से संबंध नहीं रख सकती तथा शरीर कोई गतिविधि अथवा कार्य नहीं कर सकता । दरअसल, मन शरीर रूपी राज्य का राजा व प्रशासक है। यह प्रकाश से भी अत्यन्त तीब्र गति से जहां चाहे पहुंच सकता है. किसी बात की ओर ध्यान देना, चिंतन-मनन करना, किसी कार्य की योजना बनाना तथा उसे क्रियान्वित करना मन के ही कार्य हैं। आत्महत्या संबंधी निर्णय को अंतिम रूप देने में भी कार्यपालिका प्रधान मन ही है ।

काम का शाब्दिक अर्थ होता है मनोरथ, कामना, सहवास की इच्छा इन्द्रियों की अपने-अपने विषयों की ओर आकर्षिक करने की प्रकृति, कर्म आदि । भारतीय ब्रह्मर्षियों, महर्षियों एवं देवर्षियों ने मनुष्यों के लिए जीवन में चार पुरूषार्थ करने का निर्देश दिया है। ये चार पुरूषार्थ हैं-धर्म,अर्थ काम और मोक्ष । इन चार पुरूषार्थों में से ‘काम’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए हमें न तो ‘काम’ की उपेक्षा करना चाहिए और न ही इसका गलत ढंग से उपयोग करना चाहिए । काम बहुत आवश्यक है, महत्वपर्ण है और उपयोगी भी क्योंकि अखिल विश्व में जो भी सृजन कार्य हो रहा है वह काम की ऊर्जा से ही हो रहा है, लेकिन काम का उपयोग सृजन के लिए न करके केवल मौज-मस्ती, ऐश व आराम के लिए करना विनाशकारी सिद्ध होता है। ऐसे व्यक्ति, जो काम के वेग को नहीं रोकते और हमेशा कामुक विचारों को अबाध गति से मन में आने देते रहते हैं उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। उल्लू को दिन में और कौए को रात में दिखाई नहीं देता, किन्तु जो कामान्ध होते हैं उन्हें न तो दिन में दिखाई देता है और न रात में ऐसे व्यक्तियों के मन यंत्रणा, आशंका, चिंता, ग्लानि, अपराधबोध एवं पश्चाताप की भावना व याचनापूर्ण विचारों से भरे हुए होते हैं । इनके मन में अधीनता, व्याकुलता तथा निराशा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं बशर्तें उन्हें इस मानसिक वेदना से छुटकारा मिल जाए । कुछ तो आत्महत्या तक कर बैठते हैं।

क्रोध का जन्म काम की पूर्ति में बाधा पड़ने पर होता है। अर्थात् हमारी इच्छा या कामना के विपरीत स्थिति उत्पन्न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। जब कोई व्यक्ति क्रोध करता है तब क्रोध की मार से उसके अपने ही हाथ पैर कांपने लगते हैं क्योंकि क्रोध से जो तनाव उत्पन्न होता है उसे शरीर के स्नायु सह नहीं पाते । शरीर का कांपना कमजोरी का सूचक होता हैऔर यह कमजोरी क्रोध के प्रभाव से उत्पन्न होती है। क्रोध से हमारे स्नायुओं पर बार-बार तनाव आता है इससे हमारा स्नायविक संस्थान दुर्बल होता जाता है। क्रोध हमारे स्नेहभाव, उदारता ,अपनत्व और सम्बन्धों का नाश करके हमारी लोकप्रियता और प्रतिष्ठा को भी नाश करता है। क्रोध करने से नुकसान के सिवाय फ़ायदा कुछ भी नहीं होता । क्रोधी मनुष्य का स्वाभाव ऐसे तिनके के समान होता है, जिसे क्रोध की आंधी कभी भी उड़ाकर मौत के कुएं में गिरा सकती है। क्रोध से घृणा, हिंसा और प्रतिशोध की भावना का जन्म होता है। जो व्यक्ति क्रोधी स्वभाव के होते हैं उनका धैर्य तो नष्ट होता ही है, कभी-कभी स्वास्थ्य व शरीर भी नष्ट हो जाता है। क्रोध का सबसे बुरा प्रभाव यह पड़ता है कि क्रोध उत्पन्न होते ही व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है और बाद में क्रोधवश क्रोध व्यक्ति विवेकहीन होकर आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध भी कर डालता है।

लोभ का अर्थ है लालच या लिप्सा । जिस प्रकार कामुक व्यक्ति काम से और क्रोधी व्यक्ति क्रोध से अंधा होता है उसी प्रकार लालची व्यक्ति लोभ से अंधा होता है। लोभ में फंसकर ही लोग मुसीबतों में फंस जाते हैं। किसी कवि ने सर्वथा उचित ही कहा है कि –

“मख्खी बैठी शहद पर पंख लिये लिपटाय ।
हाथ मले और सिर धुने लालच बुरी बलाय।।”


लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से ही वासना की उत्पत्ति होती है तथा लोभ से ही पाप का प्रादुर्भाव होता है, संवभतः इसीलिए लोभ को नाश का कारण माना गया है। श्रीमाद् भगवद्गीता-16/21 में निम्नानुसार उल्लेख है :-

“त्रिविधिनरकस्येदं द्वारं नाशनमातमनः
कामः क्रोधस्तधा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।”

“काम, क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले हैं अर्थात् आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले हैं, इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए ।” इस जीवन में तथा मृत्यु के बाद भी अपना भला चाहने वाले व्यक्ति को तन, मन और वचन से निन्दित इस तीनों (काम, क्रोध व लोभ) कर्मों के वेग को रोकना चाहिए । बुद्धिमानी इसी में है कि हम इन बेगों से बचकर रहे, क्योंकि इन मानसिक वेगों को रोकने वाला व्यक्ति ही इनके दुष्प्रभाव से बचा रह सकता है अन्यथा इनसे होने वाले दुष्परिणामों में से आत्महत्या का शिकार भी हो सकता है।

मद का अर्थ है नशा । नशा कई प्रकार का होता है सत्ता का नशा, जवानी का नशा, सौन्दर्य का नशा, धन का नशा आदि । नशा प्रारम्भ में नशा और अन्त में नाश सिद्ध होता है। नशा चेतना, स्फूर्ति, सतर्कता और बौद्धिकता का नाश करता है। नशा हमारी चेतना को क्षीण करके जड़ता की ओर ले जाता है, जीवन से मृत्यु की ओर ले जाता है। यद्यपि नशा अनेक प्रकार का होता है, तथापि यहां उस नशे की चर्चा प्रासंगिक है जो मादक द्रव्यों के सेवन से पैदा होता है। मादक पदार्थों में ,शराब, तम्बाखू, सिगरेट, बीड़ी, गांजा, भांग, अफीम, चरस के अलावा हशीश, हेरोइन, स्मेक, ब्राउन शुगर, ड्रग इत्यादि विशेष उल्लेखनीय है। नशा चाहे कोई भी हो हानिकारक ही होता है, थोड़ी देर तक मजा और काफी लम्बे समय तक बेहद कष्ट देता है, क्रमशः शरीर को खोखला तथा जर्जर करके अन्ततः नष्ट कर देता है। भोगवादी प्रवृत्ति के लोग मादक द्रव्यों का सेवन करके गम गलत करना चाहते हैं, पर इससे गम गलत नहीं होता अपितु परिणाम उलट जाता है।धीरे-धीरे मादक द्रव्यों का सेवन करने वाले आदत से लाचार नशेबाज अन्तिम चरण में जब नशा छोड़ना चाहते भी है तो छोड़ नहीं पाते। नशा उतरने के बाद जो भयानक पीड़ा होती है उसे बरदाशत करना उनके लिए अत्यन्त कठिन होता है। ऐसी हालत में उनके पास दो ही रास्ते रह जाते हैं। या तो वे फिर से नशों का सेवन कर लें ताकि पुनः बेहोश हो सके या फिर आत्महत्या ही कर डालें । यदि किसी कारणवश मादक न मिले तो वे यह गलत निर्णय लेने के लिए मजबूर हो जाते है कि मादक द्रव्यों का सेवन करके जीते जी मुर्दें के समान हो जाना अथवा खुद अपनी ही लाश को घसीटते रहना अच्छा नहीं, बार-बार से तो अच्छा है जहर खाकर एक ही बार मर जाना । इस प्रकार मदकी मद को नहीं खाता वास्तव में मद मदकी को खा जाता है।

मोह का शाब्दिक अर्थ है अज्ञान, भ्रम या भ्रान्ति। ईश्वर का ध्यान छोड़कर शारीरिक एवं सांसारिक वस्तुओं को ही अपना सब कुछ समझना । इसका दूसरा नाम माया भी है। भय, दुःख घबराहट, अत्यधिक चिन्ता आदि से उत्पन्न चित्त की विफलता को भी मोह कहते हैं। मोह का प्रादुर्भाव अज्ञान से होता है, अहंकार से प्रेरित होकर यह फलता-फूलता है, संकीर्ण भावना इसे शक्ति देती है, ममत्व इसकी खुराक है एवं शोंक इसका परिणाम है। शोक तथा दुखों का जन्म मोह से ही होता है। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-

“मोह सकल व्याधिन कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।”

मोह से ही शोक व अन्य प्रकार के दुःख पैदा होते हैं। मोह का एक अन्य अर्थ आसक्ति अथवा लगावट भी है । मोह एक ऐसा मानसिक बेग है, जो जितना अधिक बढ़ता है उतना अधिक दुःखी करता है। राजप्रासादों के मोह से मानव आजीवन मानसिक कारावास भोगता है। इसलिए व्यक्ति को मोह कदापि नहीं करना चाहिए, क्योंकि तत्संबंधी सुदृढ़ संकल्प करके ही वह जीवन में स्वस्थ, सुखी तथा प्रसन्न रह सकता है अन्यथा आगे चलकर आत्महत्या जैसे खतरनाक व घातक दुष्परिणाम भी भोगने पड़ सकते हैं।

मत्सर का अर्थ होता है डाह,जलन, ईर्ष्या। दूसरे के बड़प्पन तथा तरक्की को पसन्द न करना, अपेक्षाकृत अपने आप को हीन समझकर द्वेष भाव रखना ईर्ष्या कहलाता है। ईर्ष्या एक ऐसी भावना होती है जो ईर्ष्या करने वालो को ही कष्ट पहुंचता है, क्योंकि ईष्यालु व्यक्ति जिसके प्रति ईर्ष्या करता है उसको इसका भान भी नहीं होता। ईर्ष्या वस्तुतः हीन मनोवृत्ति की भावना से उत्पन्न होती है। ईर्ष्या, दरअसल उदारता नहीं, संकीर्णता है, महानता नहीं हीनता है। ईर्ष्या करके हम किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते, केवल अपने शरीर का नाश कर सकते हैं, क्योंकि यह एक ऐसी भावना है जो ईर्ष्यालु व्यक्ति के अन्दर कुण्ठा पैदा करती है इसलिए वह अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहता है। यह प्रवृत्ति बिना कुछ करे धरे ही हमारी मानसिकता को हानि पहुंचाती है, ईर्ष्या की आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रहती है और हमें जलाती रहती है । हमारा स्वभाव रूखा व चिड़चिड़ा हो जाता है. इस कुढ़न से एक अनावश्यक तनाव पैदा होता है। जिसका हमारे स्वायविक संस्थान पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हमारा मस्तिष्क लगभग विक्षिप्त सा हो जाता है। इसके दुष्परिणामों को न झेल सकने के कारण कुछ व्यक्ति आत्महत्या भी कर लेते हैं ।

मन ही मानव के बंधन तथा मोह का कारण है। यदि मन नियंत्रण में न हो तथा उचित आदर्शों का पालन न करता हो तो वह सबसे बड़ा शत्रु बन सकता है। अपनी अभिलाषाओं को वश में कर लेने के बाद मन को एकाग्र किया जा सकता है। मानव शत्रु ही मन को दूषित करते हैं। जब मन दूषित हो जाता है तब हमारे विचार दूषित हो जाते हैं। दूषित विचार हमारे आचरण और स्वभाव को दूषित कर देते हैं। दुष्परिणाम यह होता है कि हम मानसिक रूप से अस्वस्थ व विकारग्रस्त हो जाते हैं। क्रमशः हम एक ऐसे जाल में फंसते जाते हैं, जिससे जितना निकलने की कोशिश करते हैं उतना ही उलझते जाते हैं । अंतिम चरण में, हम उस जाल से निकलने की क्षमता खो बैठते हैं। मानसिक विकार से ग्रस्त रोगी की दशा शारीरिक रोगी की दशा से कही अधिक दयनीय कष्टपूर्ण और विभिन्न प्रकार की परेशानियों से भरी हुई होती है । शारीरिक रोगी तो स्वयं कष्ट भोगता है, जबकि मानसिक रोगी स्वयं कष्ट भोगने के अतिरिक्त बिभिन्न प्रकार के उत्पात मचाकर अन्य पारिवारिक व सामाजिक लोगों के लिए भी परेशानियां खड़ी करता है। सबके लिए चिंता व त्रास का विषय बना रहता है। कब क्या कर बैठे, इसका किसी को आभास न रहने के कारण सभी चिंचित तथा अशांत बने रहते हैं।

द्वेष का शाब्दिक अर्थ होता है किसी बात का मन को न भाना अथवा अप्रिय लगने की वत्ति । चिढ़, शत्रुता व बैर भाव को भी द्वेष कहते हैं। दूसरों की ओर से उदासीन हो जाना ही शत्रुता की चरण सीमा है। यह एक शत्रु सौ मित्रों के होते हुए भी काफी कुछ बिगाड़ सकता है। इसलिए व्यक्ति को अपने शत्रु के लिए अपनी ही भट्टी को इतना गरम नहीं करना चाहिए कि वह उसे ही भूनकर रख दे। मन ही मनुष्य को मानव बनाता है तथा मन ही मानव को दानव बनाता है। मन के कारण ही मनुष्य पशुओं से ऊपर उठा है, मन के कारण ही वह इस संसार में फंसा है और मन के कारण ही मनुष्य समय पूर्व इस संसार से अंतिम प्रस्थान भी कर जाता है। यदि हमारे संस्कार अच्छे होंगे तो हमारी मनोवृत्ति भी अच्छी होगी और यदि हमारे संस्कार दूषित होंगे तो हमारी मनोवृत्ति भी दूषित होगी। द्वषपूर्ण मनोवृत्ति वाला व्यक्ति अपने मानसिक बल का दूरूपयोग ही करता है, दुराचारण ही करता है, साथ ही आत्महत्या जैसे घात क अपराध भी कर सकता है।

प्रिय व्यक्ति की मृत्यु अथवा वियोग से होने वाले परम कष्ट को शोक कहते हैं। शोक का अर्थ होता है रंज, खेद व दुःख । किसी भी इन्द्रिय का अतियोग, अयोग तथा मिथ्या योग हमें दुःख कर देता है। मानसिक स्वास्थ्य रक्षार्थ हमें यथाशक्ति इनसे बचने हेतु सदा सतर्क एवं प्रयत्नशीन रहना चाहिए। हमें मुश्किलों का मुकाबला करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए । बार-बार कठिनाइयों का सामना करने से अत्यन्त कठिन काम भी सरल हो जाता है। जब व्यक्ति रंज का आदी या अभ्यस्त हो जाता है तब उसे रंज का अनुभव नहीं होता । दुःख की मात्र इस बात पर निर्भर करती हैकि हम दुःख का अनुभव कितनी मात्रा में तथा कितने समय तक करते हैं। यदि अनुभव न करें तो दुःख हो ही नहीं सकता । मृतक की मृत्यु का दुःख हम उतनी ही मात्रा मे अनुभव करते हैं जितनी मात्रा में हम मन से मृतक के साथ जुड़े होते हैं। फलतः पारिवारिक सदस्य की मृत्यु पर हमें जितना दुःख होता है उतना सामाजिक सदस्य की मृत्यु पर नहीं होता। किसी अपने की मृत्यु होने पर मात्र वही नहीं मरता, काफी हद तक हमारा अस्तित्व भी मर जाता है। जैसे-पति के मरने पर सुहागपन, पत्नी के मरने पर पतिरूप, माता के मरने पर मातृत्व और पिता के मरने पर पुत्रत्व भी मर जाता है। सन्तानोत्पत्ति के साथ मां-बाप का भी जन्म होता है। किसी अति निकट संबंधी के खोने के अतिरिक्त अप्राप्ति के फलस्वरूप अनाथ, बेसहारा, निःसंतान और बांझपन के कारण भी व्यक्ति अत्यधिक शोकाकुल अथवा व्यथित होता है और कदाचित भावावेश में आत्महत्या भी कर लेता है।

भय, आपत्ति अथवा अनिष्ट की आशंका से मन में उत्पन्न होने वाला एक मनोविकार है । जिस प्रकार किसी घातक की तलवार को देखकर कोई बीमार व्यक्ति रोग शैय्या से उठकर भागता है, ठीक उसी प्रकार किसी भारी विपत्ति के भय से भीरू, कायर, बुज़दिल या डरपोक व्यक्ति इस जीवन से ऊबरकर भागता है । यदि शरीर के साथ सब कुछ समाप्त हो जाता, यदि पैरों में कसी हुई बेड़ियां खुल जातीं, यदि अप्राप्त वस्तुएं मिल जातीं तो उन सबके लिए आत्महत्या एक वरदान सावित हो सकती, लेकिन जिस प्रकार रोग शैय्या छोड़कर भागने वाने व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल सकता, ठीक उसी प्रकार आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को मनोवांछित फल प्राप्त नहीं होता ।

किसी वस्तु या व्यक्ति की वह वृत्ति जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग न हो । किसी मान्य ग्रन्थ, आचार्य अथवा ऋषि द्वारा निर्दिष्ट वह कर्म पारलौकिक सुख की प्राप्ति के अर्थ से किया जाये । वह कर्म जिसका करना किसी सम्बन्ध, स्थिति या गुण विशेष के विचार से उचित तथा आवश्यक हो । वह वृत्ति या आचरण जो लोक अथवा समाज की स्थिति के लिए आवश्यक हो । वह आचार जिसके द्वारा समाज की रक्षा एवं सुख शांति की वृद्धि हो तथा परलोक में भी उत्तम गति प्राप्त हो । परमेश्वर के संबंध में विशेष आस्था तथा आराधना की विशेष प्रणाली । आपसी व्यवहार संबंधी नियम का पालन । सत्कर्म, सृकृति, सदाचार, कर्तव्य, स्वभाव, नीती, न्याय-व्यवस्था, ईमान तथा प्रकृति का दुसरा नाम “धर्म” है । प्राकृतिक नियम का पालन धर्म है और धर्म के विपरीत आचरण अन्य अनेकानेक स्वाभाविक कृत्यों को हिन्दू धर्म में पाप माना जाता है । साथ ही कभी-कभी हिन्दू-धर्मप्रिय व्यक्ति यह समझ बैठते हैं कि अमुक कर्म अथवा अमुक द्वारा किया गया कोई यदि पुण्य कर्म नहीं तो निश्चित रूप से पाप कर्म है और इस प्रकार के कृत्यों के कारण कई लोगों में पाप की भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि वे आत्म-ग्लानि के वशीभूत होकर आत्महत्या कर बैठते हैं । यद्यपि अखिल विश्व के किसी भी धर्म के अंतर्गत किसी भी पंथ, संप्रदाय अथवा मत का आत्महत्या से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता, तधापि वह लोगों में पाप-पुण्य की भावना उत्पन्न कर उन्हें आत्महत्या के लिए प्रेरित अवश्य करता है । यद्दपि किसी धर्म विशेष के तहत कोई मतावलंबी आत्महत्या को अपेक्षाकृत इतना बुरा नही बताता, तधापि वह इसकी निन्दा अवश्य करता है । धर्म में एक बार पाप व अपराध कर लेने पर व्यक्ति को किसी भी प्रकार की क्षमा मिल पाना लगभग असंभव है या इसे यों भी कह सकते हैं कि अपराध की सजा अथवा पाप का फल भोगना ही पड़ता है । फलतः बाद में पश्चाताप की भावना इतनी अधिक बढ़ जाती है कि कभी-कभी व्यक्ति यह सोचने लगता है कि किए गए पापों अथवा अपराधों को प्रयश्चित कदाचित मृत्यु उपरान्त ही संभव हो और वह आत्महत्या कर लेता है ।

जिन व्यवसायों में “व्यक्तिगत गतिशीलता” की मात्रा जितनी अधिक होती है, वे व्यक्ति को आत्महत्या की ओर उतना अधिक उन्मुख करते हैं । पत्रकारों, वैज्ञानिकों, मेडिकल प्रतिनिधियों, अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों में व्यक्तिगत गतिशीलता की अधिकता के कारण कृषक वर्ग की अपेक्षा आत्महत्या दर अधिक होती है । सैनिकों में बौद्धिक वर्ग के लोगों की अपेक्षा आत्महत्या की दर कुछ कम होती है । व्यापार में होने वाली हानि-लाभ का भी आत्महत्या पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसका एक उत्कृष्ट प्रमाण यह है कि सन् 1932 ई. में सम्पूर्ण विश्व में आर्थिक न्यूनता अपनी चरण सीमा पर पहुंचने के कारण उस समय आत्महत्या की दर सभी देशों में अधिक थी। व्यापारिक मंदी के कारण अनाप-शनाप घाटा आ जाना व्यक्ति को आत्महत्या के लिए बहुत अधिक प्रोत्साहित करता है। मनुष्य की इस आर्थिक हीन अवस्था को जिसमें ऋण चुकाने के लिए पास मैं कुछ भी न रह जाय, दिवाला निकलना या दिवालिया होना कहते हैं। दिवाला का अर्थ होता है किसी भी वस्तु अथवा गुण का सर्वथा अभाव । जैसे-बुद्धि का दिवाला । दिवालियापन भी कभी-कभी आत्महत्या के लिए आग में घी डालने का काम करता है।

अत्याधिक गरीबी की स्थिति में मनुष्य जब अपने बाल-बच्चों तथा पत्नी का तन नहीं ढक पाता और उनकी क्षुधा को भी शांत नहीं कर पाता तो उसका मन अत्यन्न खिन्न हो जाता है । वह सोचने लगता है कि जब मैं अपने बाल-बच्चों एवं पत्नी को जीवित रखने के लिए साधन नहीं जुटा पाता तो मेरे जीवित रहने से क्या लाभ ? यह सोचकर एक-आध दिन वह इतना अधिक संवेदनात्मक तनाव व दुःख अनुभव करने लगता है कि अंततः आत्महत्या कर बैठता है । आज चाहे फावड़ा और गुदाली चलाकर रोटियाँ खाने वाले श्रमिक हों, चाहे अनवरत बौद्धिक श्रम करने वाले विद्वान सभी बेकारी तथा बेरोजगारी के शिकार बने हुए हैं। उन्हें अपनी और अपने परिवार की रोटियों की चिंता है, चाहे उनका उपार्जन सदाचार से हो या दुराचार से। आज देश में चारों ओर छीना-झपटी, लुट-खसोट, चोरी-डकैती, मार-काट, दंगा-फसाद विद्यामान है।

“बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।
क्षीणाः नराः निष्करूणा भवन्ति।।”

“भूखा मनुष्य क्या पाप नहीं करता, धन से क्षीण मनुष्य दयाहीन हो जाता है।” उसे कर्तव्य तथा अकर्तव्य का विवेक नहीं होता और यही विवेकहीनता आत्महत्या के लिए भी बहुत कुछ उत्तरदायी होती है।

विद्या का अर्थ होता है परम-पुरूषार्थ की सिद्धि प्रदत्त करने वाला ज्ञान, परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति प्रदायक ज्ञान तथा शिक्षा आदि के द्वारा उपार्जित ज्ञान। अर्थात् वस्तुओं और विषयों की वह जानकारी जो मन में होती है, तत्वज्ञान, यथार्थ बात अथवा तत्व की पूर्ण जनकारी । अत्यन्त दुःख की बात है कि अखिल विश्व की सफल प्राणी जाति में सर्वाधिक वैज्ञानिक व शक्तिशाली समझने वाला मानव स्वयं को समझने में असमर्थ है, असहाय है। आज जिन्हें भी परम ज्ञानी होने का घमंड है, वे ही अपेक्षाकृत अधिक आत्महत्या करते हैं। उदहरणार्थ-अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्यों, स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों, कालों की अपेक्षा गोरों, ग्रामीणों की अपेक्षा नगर-निवासियों तथा निरक्षरों की अपेक्षा साक्षरों की आत्महत्या-दर अधिक है। बुद्धि का शाब्दिक अर्थ होता है सोचने-समझने और निश्चय करने की शक्ति, एकाग्रता । अरबी में इसे अक्ल कहते हैं । संस्कृत में प्रज्ञा और हिन्दी में समझ। जो समझ-समझ के फेर को समझ लेते हैं,वस्तुतः वे ही समझदार होते हैं और जो ठीक से नही समझते, लेकिन फिर भी समझते हैं कि वे समझदार हैं, दरअसल वे ही मूढ़,मर्ख अथवा बेवकूफ होते हैं। महाकवि जौक ने क्या खूब समझा है:-

“हम जानते थे इल्म से कुछ जानेंगे
जाना तो यह जाना कि न जाना कुछ भी ।।”

बुद्धि एक विकासशील पदार्थ है। सभी प्राणी या सभी मनुष्य इसका विकास एक समान नहीं कर सकते । विभिन्न स्थानों पर विकसित बुद्धि प्रत्येक बिषय पर पृथक-पृथक मत रखती है। इसी मतभेद के कारण संसार में धर्म-अधर्म न्याय-अन्याय, वाद-विवाद, क्रान्ति तथा युद्ध तक होते हैं । जब व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है तभी वह आत्महत्या करता है।

विवेक का अर्थ है मन की वह शक्ति जिससे भले-बुरे को ठीक तथा स्पष्ट ज्ञान होता है, सत्यज्ञान । कुछ लोग कहते हैं कि मैं अपने बच्चों को बेईमान बनाना पसंद करूंगा, क्योंकि इस जमाने में ईमानदारों को जीवन-निर्वाह करने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी विचारधारा से बेईमानों की संख्या बढ़ती जा रही है। कोई विधि के विधान का पालन करे या न करे, आदर्श तथा नैतिकता का पालन करे या न करे यह उसी के हाथ में है, लेकिन इसका परिणाम उसके हाथ मे नहीं । आज नहीं तो कल बुरे काम के बुरे नतीजे तो भोगने ही पड़ेंगे। निःसंदेह आदर्श व नैतिक काम देर से ही सही, मगर परिणाम अच्छे ही देते हैं । इसीलिए उत्तम काम करने के लिए विवेक का होना जरूरी माना गया है। जिसकी दुहाई देकर लोग बुरे काम करने की मजबूरी जाहिर करते हैं, एक दिन यही जमाना उसकी दुर्गति करके रख देता है। मानसिक रूप से स्वस्थ बने रहने के लिए यह जरूरी है कि विवेक का साथ कदापि न छोड़ें, क्योंकि अविवेक ही आत्महत्या करने के लिए मजबूर करता है।

न्याय मंदिर की पवित्रता स्वतंत्रता और तटस्थता की चर्चा ही न करें ऐसी मान्यता निराधार तथा गलत है। न्यायमूर्तियों के कदाचारों और न्यायपालिका की विसंगतियों का उल्लेख करना किसी न्यायालय की अवहेलना अथवा अवमानना नहीं है। कारण चाहे जो भी हों, वर्तमान स्थिति यह है कि देश,के सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न प्रान्तों के उच्च न्यायालय के समक्ष लगभग इक्कीस लाख मुकदमें लंबित पड़े हैं । उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में लगभग एक सौ न्यायाधीशों के स्थान रिक्त पड़े हैं। कहते हैं कि लगभग सात वर्ष पूर्व पूना में भोंसले राज परिवार के एक वारिस को एक मुकदमें का फैसला तकरीबन 175 साल बाद मिला । इस बीच, पांचवीं पीढ़ी का वह वंशज बेरोजगारी, गरीबी तथा तंगहाली की जिंदगी जी रहा था । “बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख ।” सौभाग्य से उसके बिना लड़े ही मुकदमें का निर्णय उसके पक्ष में हुआ। लगभग बीस एकड़ जमीन में बने बाजार का वह भूमिपति घोषित हुआ । उसके समक्ष बतौर मुआवजे करोड़ों रूपये पेश किए गए । उसकी तो मानो लाटरी ही लग गयी । खुदा का शुक्र है कि उसने इस अर्से में खुदकुशी नहीं की । माना कि यह एक अपवाद है मगर यहां तो आलम यह है कि करीब 15-30 वर्ष कोई मायने नहीं रखते । विधाता ने सभी व्यक्तियों का मस्तिष्क एक जैसा तो बनाया नहीं। दुनिया में जितने भी व्यक्ति थे, हैं और रहेंगे उतने ही प्रकार के दिमाग व चेहरे थे, हैं और रहेंगे । कोई बिजली का बल्व उसी दिन फ्यूज हो जाता है और कोई दस-बारह वर्ष या फिर इससे भी अधिक समय बाद । मस्तिष्क के सात भी उसकी क्षमता से अधिक जबरदस्ती नहीं की जा सकती । कोई –कोई तत्संबंधी मानसिक वेदना को 20-25 या इससे भी अधिक वर्ष झेल लेते हैं और कोई-कोई केवल 5-10 साल में ही आत्महत्या कर लेते हैं।

यद्यपि तत्कालीन घटना या परिस्थिति मामले को अपेक्षाकृत और अधिक गंभीर बना देते हैं, जिसका तत्कालिक परिणाम आत्महत्या ही होता है, तथापि जब तक व्यक्ति पहले से ही अत्यन्त गंभीर उद्वेगात्मक संघर्ष से परेशान नहीं होता, तब तक वह आत्महत्या के संबंध में नहीं सोचता । यद्यपि व्यक्ति के लिए आत्महत्या करना उसकी बहुत बड़ी विवशता का ही परिणाम है, तथापि बौद्धिक प्राणी होने के नाते व्यक्ति को स्वयं अपने बुद्धि पर नियंत्रण रखना चाहिए और गम्भीर से गम्भीर परिस्थितियों, समस्याओं तथा हृदय विदारक घटनाओं में भी आत्महत्या को टालने का हर संभव प्रयास करना चाहिए । वह ऐसी परिस्थितियां व समस्याएं उत्पन्न ही न होने दे, जिनसे उत्तेजित होकर आत्महत्या जैसी घृणित प्रक्रिया को भी अपनाने के लिए विवश हो जाय । वह आत्महत्या की ओर अंतिम प्रस्थान करने हेतु उकसाने वाले, भड़काने वाले, उभारक तथा उत्तेजक तत्वों पर पूर्ण नियंत्रण रखे, इन तत्वों के प्रति पूर्णतः सावधानी बरते, सतर्क रहे, सचेत रहे, क्योंकि चेतना की हार और उत्तेजना की जीत की ही अत्यन्त निंदित नियति है – आत्महत्या ।
**************