Friday, March 9, 2007

भूमिका



पूर्वाग्रह का आशय किसी वस्तु अथवा व्यक्ति के बारे में पूर्व निर्धारित आग्रह से है। आग्रह का अभिप्राय किसी वस्तु अथवा व्यक्ति, पद तथा प्रतिष्ठा की उपलब्धि अथवा प्राप्ति हेतु अनुरोध, तथा, परायण, जोर, हल, बल, जिद्द, आवेश इत्यादि से है। इसमें हम किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थान इत्यादि के संबंध में बिना किसी परख या परीक्षण के भली अथवा बुरी धारणा बना लेते है। अपने पारिवारिक, संबंध, जातीय, सामाजिक, राष्ट्रीय, राजनैतिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक व्यवहार में हम कुछ लोगों से बिना किसी परीक्षा किए प्रेम करने लग जाते है । परिणामस्वरूप उसके प्रति या फिर उसका हमारे प्रति सहयोग तथा सहानुभूति की भावनाएँ जागृत हो जाती है। इसके विरूद्ध कुछ लोगों से हम घृणा करने लग जाते हैं । फलतः उसके प्रति अथवा उसका हमारे प्रति असहयोग तथा संघर्ष की भावनाएँ पैदा हो जातीं हैं । इस प्रकार के सत्याग्रह और दुराग्रह को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के लिए न तो वह किसी पूर्व प्रमाण की आवश्यता समझता है और न ही कोई पूर्व परीक्षण की । इसी कारण किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रहों को अपरिपक्व निर्णय की संज्ञा दी जाती है। निराधार, निर्मूल तथा बेबुनियाद होने के कारण पूर्वाग्रहों को अनर्गल प्रलाप, मिथ्या प्रत्यय, सफेद जूठ, कोरी कल्पना और अंध विश्वास भी कहा जाता है ।

पूर्वाग्रह का यथार्थ से सत्यार्थ से तत्वार्थ से तथा वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता । पूर्वाग्रहों को व्यक्ति बिना किसी पूर्व परख अथवा पूर्व परीक्षा के स्वीकार कर लेता है। पूर्वाग्रह अज्ञात, अज्ञान अथवा अनजान पर आधारित है। पूर्वाग्रह संवेगों से संबंधित है। पूर्वाग्रह अनिर्णित विश्वासों पर आधारित है । पूर्वाग्रह अतार्किक होता है, अचेतन होता है, ज्ञानशून्य होता है । दुरात्मा, दुराचारी, दुराग्रही, अड़ीयल, हठी तथा जिद्दी व्यक्ति का सोच-विचार, पठन-पाठन, चिंतन-मनन और संकल्प-विकल्प स्वनिर्णित होता है, स्वमान्य होता है । मुझे अमुक खिलौना मिलना चाहिए, यदि नहीं तो अंतिम झूला भूल जाऊँगा । मुझे अमुक पल चाहिए अन्यथा अमुख फल का सेवनकर जाऊँगा । मुझे अमुक धुआँ होना अन्यथा मौत का कुआँ । मुझे अमुख सुख होना अन्यथा विमुख । मुझे अमुक दुआ होना नहीं तो दवा-दारू । मुझे त्वरित रोग नाशक दवा होना अन्यथा कीटनाशक । ऐसी विकृत सोच-विचार का ही दूसरा है दूराचार, दुराग्रह, पूर्वाग्रह ।

विद्या किसी पाठाशाला, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय या फिर इसी प्रकार किसी भी शैक्षणिक संस्था द्वारा ज्ञान के किसी विशेष संकाय के अतंर्गत किसी विशेष विभाग के अधीन किसी विशेष विषय में कुछ ज्ञानियों द्वारा कुछ मात्र में प्रदत्त प्राप्तांक सूची है। बुद्धि कामना, मनोरथ, मनमाना अथवा वासना का दासी है। वह दासत्व सेवा करने तथा आज्ञा मानने के अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य नहीं कर सकती । विवेक अमूर्त शक्ति है जो मानव को निष्कर्ष निकालने में सहायता करती है। विवेक के माध्यम से व्यक्ति यह निश्चित करता है कि उसे क्या करना चाहिए अथवा क्या नहीं करना चाहिए । विभिन्न देश, काल और परिस्थितियों में व्यक्ति के समक्ष अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प का चयन करें यह निर्णय विवेक की सहायता से ही किया जा सकता है। परम पिता परमात्मा प्रदत्त, मालिक प्रदत्त या फिर प्रकृति प्रदत्त जलीय, थलीय, नभीय, मानवीय, पाशविक, जीवाण, अणु, परमाणु इत्यादि सम्पूर्ण शक्तियों में विवेक शक्ति सर्वश्रेष्ठ है, सर्वोच्च है, सर्वोपरि है, सर्वोत्कृष्ट है, सर्वोत्तम है। अतएव मानवीय दृष्टिकोण से व्यक्ति के लिए विवेक शक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मानवीय धरातल पर विवेक शून्य व्यक्ति के लिए कोई स्थान सुरक्षित नहीं ।

यथार्थ ज्ञान से मिथ्या मिट जाता है। मिथ्या ज्ञान के मिटने से राग-द्वेष इत्यादि विनष्ट हो जाते हैं । राग-द्वेष के नष्ट हो जाने से व्यसन-प्रवृत्ति विलुप्त हो जाती है व्यसन-प्रवृत्ति लुप्त हो जाने से दुष्कर्मों से भी निवृत्ति हो जाती है। अब जो भी कर्म किये जाते हैं वे केवल कर्म अथवा मात्र कर्त्तव्य कर्म-भावना से प्रेरित होते हैं । ऐसे कर्मों से भाग्य नहीं बनता । भाग्य के न बनने से जनम-मरण भी नहीं होते । जनम-मरण के न होने से सुख-दुख भी नहीं होते । सुख-दुःख की यही निपट-निरा निवृत्ति मानव जीवन का परम लक्ष्य है। तत्वार्थ ज्ञान का प्रमुख उद्देश्य है तत्वार्थ के स्वरूप को समझना । जो तत्वार्थ के स्वरूप को समझ लेता है वह अपने आपको समझ लेता है, आत्म तत्व को समझ लेता है, साथ ही सृष्टि के अन्य रहस्यों को भी समझ लेता है। इस प्रकार तत्वज्ञान ही मानव जीवन को वास्तविक दिशा प्रदान करता है मानव जीवन को यद्व्यवहार की ओर प्रेरित करता है और इसी से प्राणी के लोक और परलोक दोनों सुधरते हैं।

सत्यार्थ को समस्त स्वरूप में देखना अथवा हृदयंगम करना असंभव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है । इस कारण विभिन्न दृष्टिकोण से इसे परखने हेतु वेद-पुराणों, उपवेद-उपनिषदों, काव्य-ग्रंथों, शास्त्र-साहित्यों की रचना हुई है। कुछ रचना परा विज्ञान और कुछ रचना अपरा विज्ञान से संबंधित होते हैं। किसी विशेष उद्देश्य के अनुरूप उनके प्रतिपादक विषय होते हैं। इसी कारण लगभग सभी रचना के प्रतिपाद्य विषय पदार्थ के नाम से सम्बोधित किये जाते है। विषयान्तर्गत शब्दकोष पद को कार्य, काम, कृत्य अथवा कर्म के नाम से सम्मानित करता है। कार्य का जो तात्पर्य होता है काम का जो धाम होता है कृत्य का जो वृत्य होता है, कर्म का जो मर्म होता है, पद का जो अर्थ होता है वही कार्यार्थ होता है, कामार्थ होता है, कृत्यार्य होता है, कर्मार्थ होता है, मर्मार्थ होता है, पदार्थ होता है।

पदार्थों, मर्माथों, कर्माथों, कृत्यार्थो, कामार्थों की परीक्षा के लिए प्रमाणों का निरूपण किया गया है। प्रमाण वह कसौटी है जिस पर कस कर किसी भी बात की सत्यता अथवा उसकी वास्तविकता को परखा जाता है। यथार्थ ज्ञान का साधकतम कारण जिसके उपस्थित होते ही तत्वार्थ ज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है, प्रमाण कहलाता है। प्रमाण के वोधक शब्द है-प्रतीति, विश्वसनीय, सच्चाई, निश्चय, चरितार्थ, सत्यार्थ तत्वर्थ, यथार्थ, पदार्थ इत्यादि । प्रमाण के अनेक साधन हैं, अनेक संधान हैं, अनेक विधि हैं, अनेक विधान हैं, अनेक युक्ति हैं, अनेक पद्धति हैं, अनेक संस्कार हैं, अनेक प्रकार हैं, अनेक आचरण है, अनेक उपकरण है । समझ-बूझकर, सुनकर, सूंघकर, छूकर, चखकर, तुलनाकर, तुलाकर, चिंतन-मननकर किसी भी बात को प्रमाणित किया जा सकता है।

(अ) तर्कशास्त्र के आधार पर कारित,कार्यरत, कार्यार्थों, कार्यकारी अथवा कार्यवाहक पदों, कार्यों अथवा कृत्यों को निम्नानुसार नौ प्रमुख भागों में विभक्त किया जा रहा है-

1. रचना की दृष्टि से - सरल, जटिल तथा कुटिल
2. अर्थ की दृष्टि से - एकार्थक, अनेकार्थक तथा निरर्थक
3. वचन की दृष्टि से - एक वचनीय, बहुवचनीय तथा अवचनीय
4. संगठन की दृष्टि से - व्यक्तिगत, संगठित तथा विघटित
5. स्थिति की दृष्टि से - पदस्थ, पदच्युत तथा पदात्याग
6. अस्तित्व की दृष्टि से - निराकर, साकार तथा विकार
7. स्वभाव की दृष्टि से - आध्यत्मिक तथा आपराधिक
8. संबंध की दृष्टि से - आत्मीय, सम्बंद्ध तथा अलगाव
9. गुण की दृष्टि से - निर्गुण, सगुण तथा अवगुण

(ब) सांख्यशास्त्र के आधार पर कुल पच्चीस तत्वों को अग्रांकित चार वर्गो मं बांटा जा रहा है-

1. न प्रकृति न विकृति-
ऐसा तत्व जो न कारण हो और न कार्य अर्थात् न स्वयं किसी को उत्पन्न करता हो और न किसी दूसरे से उत्पन होता हो ।

2. प्रकृति-विकृति-
ऐसे तत्व जो कारण और कार्य दोनों हों अर्थात् दूरसों को उत्पन्न करते हों ।

3. प्रकृति-
ऐसा तत्व जो कारण हो, किंतु कार्य न हो अर्थात् अन्य सभी को उत्पन्न करता हो,किंतु स्वयं किसी से उप्पन्न न होता है ।

4. विकृति-
ऐसे तत्व जो कार्य हों, लेकिन कारण न हों अर्थात् स्वतः तो दूसरे से उत्पन्न होते हों लेकिन किसी को उत्पन्न न करते हों ।

(स) वैशोषिक दर्शन के आधार पर निम्नांकित पंचकर्म भेद प्रस्तुत किया जा रहा है-

1. उत्क्षेपण –
उत्क्षेपण का अर्थ है, ऊपर की ओर फेंकना, ऊपर जाना, ऊपर उठना, जिस कर्म के द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का ऊपरी प्रदेश के साथ संयोग होता है उसे उत्क्षेपण कहते है दूसरे शब्दों में इसे हम हवाई उड़ान, पांव जमीं पर न पड़ना, चादर से अधिक पांव पसारना भी कह सकते हैं।

2. अवक्षेपण –
अवक्षेपण का अर्थ है नीचे की ओर फैकना, गिराव, अधःपात, नीचेकी ओर गिरना, नीचे कजाना, अधःपतन जिस कर्म के द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का अधोप्रदेश से संयोग होता है उसे अवक्षेपण कहते है, दूसरे शब्दों मेंइस हम अधोगतदि, अवगति, दुर्गति, दुर्दशा अथवा नरक गमन भी कह सकते है।

3. प्रसारण -
प्रसारण का अर्थ है फैलाना, बढ़ाना, विस्तार करना जिस कर्म के द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ के अंग-प्रत्यंगों का दूरवर्ति प्रदेशों के साथ संयोग होता है उसे प्रसारण कहते हैं. दूसरे शब्दों में इसे हम फैलाव, बढ़ाव, तनाव अथवा उत्तेजन भी कह सकते हैं ।

4. आकुंचन-
आकुंचन का अर्थ है संकोचन, चिकुड़न, सिमटन, जिस कर्म द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का शरीर के और अधिक सन्निकट प्रदेश के साथ संयोग होता है उसे सांकुचन कहते है। दूसरे शब्दों में इसे हम संकुचित होना, हिचकना, झिझकना, कुंठित होना, तथा लज्जित होना भी कह सकते हैं।

5. गगन -
गगन का अर्थ है चलन, प्रस्थान, गतिमान। जिस कर्मके द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का चलनात्मक क्रिया के साथ संयोग होता है उसे गमन करते हैं ।दूसरे शब्दों में इसे हम चलायमान, चंचल, अस्थिर, अनिश्चित, असंयमित, असंतुलित, डांवाडोल तथा अठहराव भी कह सकते हैं।

उपरोक्तानुसार वर्णित तथ्यों से स्पष्ट है कि कुटिल, अनर्थक ,अवचनीय, विघटित, पदत्याग, विकार आपराधिक, अलगाव, अवगुण, विकृति, उत्क्षेपण, अवक्षेपण, प्रसारण, आकुंचण, गगन अथवा अठहराव इत्यादि अनेक लगभग समान उत्प्ररेक अथवा उद्वेलक शब्दों की अंतिम दुःखद परिणिति है यत्न साध्य महाप्रयाण बनाम आत्महत्या ।
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