Friday, March 9, 2007

शास्त्र निर्देश


जहाँ धर्म-अधर्म, अर्थ-अनर्थ, कर्म-अकर्म में संदेह उत्पन्न हो जाए वहाँ शास्त्रों से सहायता लेने सम्बंधी निर्देश भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के सोलहवें अध्याय में निम्नानुसार दिया है-

“यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।।23।।”


जो लोग शास्त्र विधि की अवहेलना करके स्वच्छानुसार मनमाने ढंग से आचरण करते हैं, वे न तो अन्तःकरण की शुद्धि को प्राप्त करते है, न सांसारिक सुख को प्राप्त करते हैं और न परम गति को ही प्राप्त करते हैं । चूंकि वे स्वेच्छाचारिता के कारण आन्तरिक भावों और सिद्धांतों को समझने में असमर्थ रहते हैं । इस कार वाह्य आडम्बरों को ही श्रेष्ठ समझते है। जिस प्रकार रोगी अपनी दृष्टि से तो अखाद्य पदार्थो का त्याग और खाद्य पदार्थों का सेवन करता है, लेकिन वह वास्तव में आशक्तितवश खाद्य पदार्थों को छोड़कर अखाद्य पदार्थों का सेवन कर लेता है। फलतः वह अपेक्षाकृत और अधिक अस्वस्थ हो जाता है। ठीक उसी प्रकार मन के छः शत्रु-काम, क्रोध, लोभ मोह, मद, मत्सर-से ग्रसित लोग अपनी दृष्टि से तो यज्ञ, परोपकार इत्यादि अच्छ-अच्छे कार्य करते हैं, अरंतु वास्तव में शास्त्रविधि को छोड़कर स्वनिर्मित विधि के अनुसार काम करने लग जाते हैं, परिणाम स्वरूप वे पूर्व की अपेक्षा और अधिक पतन के गहन गर्त में डूब जाते हैं । चूँकि अहंकार के कारण वे भीतर से द्वेष, घृणा, दुर्गुण, दुर्भाव तथा दुराग्रह से प्रेरित रहते हैं और बाहर से विख्यात, त्यागी, तपस्वी तथा महात्मा बनना चाहते हैं, इस कारण उनका, त्याग-राग में, उनकी महिमा निन्दा में, उनके गुण-अवगुण में परिवर्तित हो जाते है और आगे चलकर वे अधोगति की ओर चले जाते हैं । आसुरी सम्मत जो लोग शास्त्र विधि को त्याग कर अशुभ कर्म करते है, उनको धनधान्य, मान-सम्मान आदि के रूप में कुछ प्रसिद्धि तो अवश्य मिलती है पर आन्तरिक शुद्धि जो वास्तविक सिद्धि है, वह उनको कदापि नहीं मिलती ।
पदार्थों के संयोग से होने वाला सुख-जो दुःखों का कारण है अथवा जिससे दुःख ही दुःख उत्पन्न होते हैं-उन्हें मिल सकता है परंतु पारमार्थिक मार्ग में मिलने वाला सात्विक सुख उनको बिल्कुल नहीं मिल सकता । चूँकि वे भ्रष्टाचार से आई हुई सम्पत्ति से ही श्रेष्ठ आचरण करते हैं । इसलिए उनके अच्छे आचरण भी कुमार्ग में चले जाते हैं, जिस कारण उनको परम गति भी नहीं मिलती । सारांश यह है कि जो लोग अनादि सिद्धांत रूपी शास्त्रों का त्याग करके स्वेच्छा से भोग-विलास में पड़े रहते हैं और परम लक्ष्य के मार्ग पर नहीं चलते वे न आन्तरिक सुख प्राप्त कर सकते हैं, न वाह्म सुख प्राप्त कर सकते हैं और न मोक्ष सुख ही प्राप्त कर सकते हैं ।

“तस्माचछस्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।24।।”


तुम्हारे लिए कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि के अतंर्गत नियत कर्म को ही करने योग्य है – जिन लोगों को अपने प्राणों से मोह होता है वे किसमें प्रवृत्त होना है तथा किससे निवृत्त होना है यह नहीं जानते जिस कारण वे विशेष रूप से आसुरी सम्पदा की ओर प्रवृत्त होते हैं, इसलिए उनको सिद्धि प्राप्ति नहीं होती । इस कारण तू कर्तव्य और अकर्तत्य का निर्णय करने के लिए शास्त्र को ही सामने रखकर तद्नुसार अपने कर्तव्य का पालन कर, क्योंकि मानव जन्म की सार्थकता यही है कि वह शरीर और प्राण की मोह में न फँसकर केवल परम पद की प्राप्ति के उद्देश्य से शास्त्र संगत कर्तव्य कर्मों को करे । चूंकि इस भवसागर में मानव शरीर केवल श्रेष्ठ कर्म करके परम पद को प्राप्त करने के लिए ही मिला है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह इस अवसर को व्यर्थ न जाने दे । सदैव शास्त्र आदेशों का पालन करे ।
जिनकी महिमा शास्त्रों ने गायी है तथा जिनका व्यवहार शास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार होता है ऐसे महापुरूषों, ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं के आचरणों एवं वचनों के अनुसार चलना भी शास्त्रों अनुसार चलना है, क्योंकि उन महान आत्माओं और महान पुरूषों ने शास्त्रों को आदर दिया है तथा शास्त्रों के अनुसार चलने से ही वे श्रेष्ठ पुरूष तथा दिन्य आत्म बने हैं, परम आत्म तत्व को प्राप्त हुए हैं । वस्तुतः उन्हीं सदाचार-कदाचार का निर्णय करने से पूर्व इन अनुभवी शास्त्रकारों के अचल सिद्धांतों को जान लेना चाहिए और तदुपरांत उसका अनुसरण करने के पश्चात् आचार-विचार का निश्चय करना चाहिए ।

शाब्दिक दृष्टि से जो पुरूषार्थ-धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष-की प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम तथा निर्दोष उपायों को बतलाये, साथ ही सीमा के अन्दर अथवा मर्यादा के भीतर रहने की शिक्षा दे वह शास्त्र है। दूसरे शब्दों में जो जड़-चेतन सम्पूर्ण प्राणी जगत के लिए अनेकानेक प्रकार के सर्वोत्कृष्ट कर्त्तव्यों को सिखाए और विभिन्न प्रकार के निकृष्ट कर्त्तव्यों का निषेध करे वह शास्त्र है। इसका सांकेतिक आभिप्राय यह है कि सर्वसाधारण के हित के लिए विधि-विधान बनाने वाले ग्रन्थ का दूसरा नाम शास्त्र है । निष्कर्ष यह है कि क्रम से एकत्र किया गया किसी विषय संबंधी सम्पूर्ण ज्ञान का भण्डार ही शास्त्र है इस प्रकार इतना तो स्पष्ट है ही के शास्त्रों में नीति-नियम, विधि-विधान और कर्तव्य-कर्म होते ही हैं । भारतीय संस्कृति के अनुसार वे ही शास्त्र प्रामाणिक माने गये हैं जो वेदमूलक हैं । चार वेद, चार उपवेद, चार ब्राह्मण, छः वेदांग, छः वेद उपांग, पाँचवा वेद महाभारत और सम्पूर्ण मानव धर्मशास्त्रों में से सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य वाल्मिकी रामायण को पूर्णतः वेदमूलक माना गया है। अन्य धर्मशास्त्रो में बाइबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहब -----इत्यादि प्रमुख हैं । वैसे तो निर्विवाद रूप से जहाँ संदेह होता है वहाँ अन्तरात्मा की प्रवृत्ति ही सत्य का निर्देश करती है । इसका सांकेतिक प्रयोजन यह है कि सत्य-असत्य की परीक्षा के लिए स्वविवेक ही निष्कर्ष है ।
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1 comment:

बाल भवन जबलपुर said...

उत्तम पोस्ट
आपके ब्लाग पर बेहद उम्दा सामग्री है