Friday, March 9, 2007

लेखकीय

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित एक प्रतिवेदन के अनुसार दस से पचपन वर्ष के उम्र में मरने वाले व्यक्तियों में जो पाँच प्रमुख कारण माने जाते है, उनमें से एक यही ‘आत्महत्या’ है। 1974 में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार सम्पूर्ण विश्व में प्रतिदिन 1000 व्यक्ति ‘आत्महत्या’ के माध्यम से अंतिम प्रस्थान करते हैं । 1983 के सर्वेक्षण के अनुसार यह संख्या बढ़कर प्रतिदिन 2400 व्यक्ति हो गया और विद्यमान 1993 के सर्वेक्षण के अनुसार यह संख्या बढ़कर प्रतिदिन 6000 व्यक्ति हो गया है । दूसरे शब्दों में प्रत्येक घंटे 250 व्यक्ति अथवा प्रत्येक मिनट 4.17 व्यक्ति ‘आत्महत्या’ करते हैं । यह संख्या किसी भी प्रकार की बीमारी ,दुर्घटना, प्राकृतिक प्रकोप तथा महामारी से मरने वालों की संख्या से अधिक है। इसे हम कालों का काल नहीं, कालों का महाकाल कहें तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।

जीते-जागते रहने का नाम है जीना और जीते जी मर जाने का नाम है आत्महत्या । प्राणधार अथवा प्राणाधारण करने वाले को ही बने रहना अथवा प्राण धारण किये रहना ही प्राणी का परम कर्त्तव्य है। दूसरे शब्दों में हर हाल में जीवन के दिन बिताना ही जीना है। इसमें अगर-मगर,किन्तु-परन्त, लेकिन, फिर भी के लिए कोई स्थान नहीं । निष्कर्ष यही कि हमें हर हाल में जीना है। मत्स्य नियम अर्थात बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। यह नियम तब भी था अभी भी है और आगे भी रहेगा । इसे हम किसी भी कीमत पर बदल नहीं सकते । जंगली विधान अर्थात् बड़े वृक्षों के नीचे छोटे वृक्ष नहीं पनप सकते । अतीत में भी नहीं, वर्तमान ममें भी नहीं और भविष्य में भी नहीं । यह एक प्राकृतिक विधि है। इसममें परिवर्तन प्रकृति को भी मान्य नहीं मवेशी कानून अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस । इसका अस्तित्व सदैव रहा है और रहेगा प्रत्येक युग में, प्रत्यंक मन्वन्तर में; प्रत्येक कल्प में। किसी भी सूरत में हम इससे मुकर नहीं सकते । इस कारण हमें चाहिए कि हम इन मत्स्य नियम, जंगली विधान और मवेशी कानून से प्रत्येक लड़ें-भिड़ें नहीं । इन पर हर हाल में मर-मिटें नहीं, अपितु प्रत्येक देश, काल और परिस्थिति में इनसे खुल्लमखुल्ला मुकबला करना चाहिए।

यहाँ एक पाशविक नियति का उल्लेख करना नितांत प्रासंगिक है। कहते हैं लोग कि शेर पीछे से वार नहीं करता, लेकिन वास्तविकता यह है कि शेर पीछे से ही वार करता है। हाँ, निश्चित रूप से वह धोखा नहीं देता । शेर कपटी, विश्वासघाती तथा धोखेबाज नहीं होता । वह कोई माया-जाल से नहीं अपनी चाल-चलन, चहल-कदमी से, संयमित पंजों के बल, नियंत्रित पंजों के बल हिरणीय झुण्ड के समीप पहुंचता है । शेरागमन की आहट को हिरण न सुन सके तो इसमें बेचारे शेर का क्या कसूर ? इनता ही नहीं वह अपने आक्रमण से पूर्व एक दहाड़ मारकर मानों ढिढोंरा पीटता है कि भागो, श्रवण-श्रोत से तुम्हें सूचना मिल चुकी कि अब तुम अपनी मौत करो । इसके तुरंत पश्चात जो हिरण अपने झुण्ड से पृथ्क, अलग, भिन्न अथवा अन्य दिशा की और भागता है शेर उसी का पीछा करता है। उसी को दौड़ाता है। अपेक्षाकृत तीब्र गति से सरपट दौड़ता है, छलांग लगाता है; झपटता है और अन्ततः अपने शिकंजे में दबोचता है। अब पछताये क्या होत है जब चिड़िया चुग गयी खेत । हिरण को काफी देर बाद अपने जीवन के अंतिम क्षणों में समझ में आया कि यदि मैं भी अपने झुण्ड के साथ मिलकर भागता तो निश्चित रूप से अपने साथी अनेक हिरणों से आगे रहता और आज मुझे अपनी जान से हाथ धोना नहीं पड़ता, क्योंकि शेर अपने सभी शिकार को भागने का, दौड़ने का पूरा-पूरा मौका देता है अवसर देता है, समय देता है और जो पीछे रह जाता है अथवा पीछे हो जाता है उसी को अपने शिकंजे में दबोचता है। यदि कोई वद्ध है, शावक हो, गर्भिणी है, आलसी अथवा निकम्मा हो तो भी इस शिकारी शेर-शिकार नियति के अन्तर्गत इस बेचारे शेर का क्या कसूर ? इसका सांकेतिक अभिप्राय यह है कि हमें तेज और तेज, आगे और आगे भागता है, दौड़ना है, निकलना है, कम से कम आक्रमक पंजों से आगे, प्रतिस्पद्धी पंजों से आगे, प्रतिद्वंदी पंजों से आगे ।

आत्महत्या से पूर्व लिखे गये पत्रों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से यद्यपि पूर्वाग्रह विद्रोही, विषयी, व्यभिचारी, कृत, विचलित, असंयमी, नियंत्रित, निराश, हताश, उदास, निकम्मा और अकर्मण्य छटपटाहट की बू आती है, तथापि निर्विवाद रूप से इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बहुतायत तंत्र, बहुसंख्यक तंत्र, घोटाला तंत्र, स्वार्थ तंत्र, अभाव तंत्र, चोर तंत्र लुटेरे तंत्र डकैत तंत्र, झूठ तंत्र, फरेब तंत्र, विश्वासघात तंत्र, घात तंत्र, हिंसा तंत्र, व्यभिचार तंत्र, अनाचार तंत्र, अत्याचार तंत्र, आलसी तंत्र, सुस्त तंत्र, निठल्ला तंत्र, अन्य न्यायमूर्ति तंत्र, अन्य व्यवस्थित न्याय व्यवस्था तंत्र, अन्य पीढ़ी न्याय तंत्र, अपमान तंत्र, अवहेलना तंत्र, अवमानना तंत्र, विवाह उपरांत तंत्र, सेवाकाल तंत्र, मरणोपंरात तंत्र, इत्यादि का अखण्ड साम्राज्य विद्यमान है। माना की जीने के अधिकार में मौत का अधिकार सम्मिलित नहीं है, पर जीवन के प्रति मोह को आर्थिक, मामाजिक, राजनीतिक और न्यायिक विसंगतियाँ समाप्त कर दें, यह अपने आप में भयानक तथ्य है, शर्मनाक तथ्य है, निन्दनीय तथ्य है, चिंतनीय तथ्य है, विचारणीय तथ्य है।

आत्महत्या की ओर उद्धत मानसिकता की सहायता के लिए “समारिटन” नामक एक समाज सेवी संस्था आगे आई है। इस संस्था के कार्यकर्ताओं का कहना है कि वे लोग दूरभाष के माध्यम से ऐसे व्यक्तियों की सहायता करते हैं । इस सहायता के लिए यह संस्था कोई शर्त नहीं रखती । “लायंस क्वब ऑफ मुम्बई पूर्व” द्वारा भी ऐसी ही सहायता प्रद्त्त कराई जा रही है। इस सम्बन्ध में “फादम्बिनी” नामक मासिक प्रकाशन सितम्बर 2005, वर्ष-45, अंक 11 वनशेष प्रशंसनीय है जिसके अन्तर्गत आत्महत्या के विरूद्ध व्यापक सामग्री उपल्ब्ध है। इसमें प्रकाशित कुछ भाव को यहाँ भी उजागर किया गया है। इस प्रकार और भी अनेकानेक संस्थाएँ दलित, शोषित पीड़ित, तापित, शापित, कंपित, लाचार, विवश, विक्षिप्त,आहत, घायल, अनाथ, असहाय, निराश्रित, अंगहीन, अपाहिज और अस्वस्थ व्यक्तयों की सेवा के लिए कापी लम्बे समय से उपना योगदान देती आ रही है। जिस काम को शासन शारकीय तौर-तरीके से नहीं कर पाती अथवा रका पाती उस काम को अशासकीय संस्थाएँ बखूबी कर लेतीं अथवा रका लेतीं हैं । चूँकि आत्महत्या महज एक शासकीय समस्या नहीं है, सिर्फ एक चिकित्सकीय समस्या नहीं है, केवल एक राष्ट्रीय समस्या नहीं है, मात्र एक सामाजिक या फिर सार्वजनिक संस्थाओं को ही नहीं अपितु प्रत्येक व्यक्ति को विशेष कर प्रबृद्ध वर्ग को व्यक्तिगत रूप से सामने आना चाहिए । महात्मा गाँधी के शब्दों में- “विचार पूर्वक किया हुआ श्रम उच्च से उच्चत्तम प्रकार की समाज सेवा है ।”
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