Friday, March 9, 2007

वेदोपनिषद्



“असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के घात्महनो जनाः।।”

यदुर्वेद 40/33, ईशावारयोपनिषद्-3


“जो अन्धकार रूप आत्मा को ढक लेने वाले समागुण (इसके कारण मनुष्य बुरे से बुरा काम कर लेता है ।) से ढके वे लोग निशाचर या प्रेत कहलाने योग्य हैं। जो कोई भी अपनी आत्मा का धात या उसके विरूद्ध आचरण करते हैं, आत्मा या जीवों के देह का नाश या आत्महत्या करते हैं वे निश्चित रूप से प्रेत-लोक में जाते हैं। दूसरे शब्दों में “वे असुर सम्बन्धी लोक आत्मा के अदर्शन रूप अज्ञान से अच्छादित हैं। जो कोई भी आत्मा का हनन करने वाले हैं वे आत्मधाती जीव मरने के अनन्तर उन्हीं लोगों में जाते हैं।”

पण्डित जयदेव शर्मा के शब्दों में - वे लोक अर्थात् मनुष्य असुर कहाने योग्य केवल अपने प्राण को पोषण करने वाले पापाचारी हैं, जो अन्धकार रूप आत्मा से ढक लेने वाले तमोगुण से ढंके हैं। जो कोई लोग भी अपने आत्मा का घात करते हैं, उसके विरुद्ध आचरण करते हैं वे मर कर और जीवन काल में श्री उन उक्त प्रकार के लोगों को प्राप्त होते हैं।

जो प्राणी अपनी आत्मा का हनन करते हैं वे अपने कर्तव्य कर्म ज्ञान से अनभिज्ञ होते हैं। जो प्राणी यह नहीं जानते कि आत्मा के जीने और मरने का कर्तव्य कर्म कैसा होता है, वही आत्मघात करते हैं। आत्मा के विकास के मार्ग पर चलना ही सत्य मार्ग है और जब भी प्राणी आत्म के हास के मार्ग पर चलता है वो वह स्वयं ही अपनी आत्मा का हनन करता है। आत्मा तो अजर-अमर है, वह तो प्रकाश-ज्ञान है, इसकी नींव तो सत्य ही है। स्वार्थ, झूठ विश्वासघात, पाप हिंसा, भोग-विलास इत्यादि इसका हास करने वाले हैं, हनन करने वाले हैं। जो प्राणी सत्य मार्ग पर, उत्साह मार्ग पर और आत्म जीवन मार्ग पर चलते हैं उनकी ही आत्मा में प्रकाश का जन्म होता है, ज्ञान का जन्म होता है। जो लोग सत्य, अहिंसा, परमार्थ, आस्था, पुण्य कर्म और समान उपभोग पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं उसे ही कर्मनिष्ठ, आत्मा के जीवन की दृष्टि, जीवन-कला अथवा जीवनी कहते हैं । जो प्राणी असत्य मार्ग पर, हतोत्साह मार्ग पर, आत्महास और अन्ततः वे आत्महत्यारा, आत्मघाती, आत्मवधिक और आत्महिंसक जीवात्मा मरणोपरान्त पुनर्जन्म पश्चात पुनः तदनुसार ही जीवन यापन करने के लिए बाध्य किये जाते हैं।

आत्मा का स्वरूप तिरोधान-अन्तर्द्धान, अदर्शन-गोपन, लुकाव-छिपाव ही आत्मघात है। जो कोई भी अपनी आत्मा का घात अथवा नाश करते हैं, वे आत्मघाती हैं। अविद्या अथवा अज्ञान रूप दोष के कारण अपने नित्य सिद्ध आत्मा का तिरस्कार कर्म अथवा फल मरे हुए के समान तिरोहित रहता है। दूसरे शब्दों में अज्ञान ही वह दोष है जिसके कारण आत्मा का स्वरूप तिरोहित हो जाता है। अतएव अज्ञानी जीव ही आत्मघाती है और इसी आत्मघात रूप दोष के कारण ही वे पूर्वानुसार जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं।

जो प्राणी अपनी आत्मा का हनन करते हैं वे अपने कर्तव्य कर्मज्ञान से अनभिज्ञ होते हैं। जो प्राणी यह नहीं जानते कि आत्मा के जीने और मरने का कर्तव्य कर्म कैसा होता है, वही आत्मघात करते हैं। आत्मा के विकास के मार्ग पर चलना ही सत्य मार्ग है और जब भी प्राणी आत्मा के ह्रास के मार्ग पर चलता है वह स्वयं ही अपनी आत्मा का हनन करता है। आत्मा तो अजर-अमर है, वह तो प्रकाश, ज्ञान है, इसकी नींव तो सत्य ही है। स्वार्थ, झूठ, विश्वासधात, पाप, हिंसा, भोग-विलास इत्यादि इसका ह्रास करने वाले हैं, हनन करने वाले हैं। जो प्राणी सत्य मार्ग पर, उत्साह मार्ग पर और आत्म जीवन मार्ग पर चलते हैं उनकी ही आत्मा में प्रकाश का जन्म होता है, ज्ञान का का जन्म होता है। जो लोग सत्य, अहिंसा, परमार्थ, आस्था, पुण्य कर्म और समान उपभोग पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं उसे ही कर्मनिष्ठ, आत्मा के जीवन की दृष्टि, जीवन मार्ग पर चलते हैं उनकी अन्तरात्मा में अन्धकार छा जाता है, अज्ञान का जन्म होता है। और अन्ततः वे आत्महत्या, आत्मघाती, आत्मवधिक और आत्महिंसक जीवात्मा मरणोपरान्त पुनर्जन्म पश्चात पुनः तदनुसार ही जीवन यापन करने के लिए बाध्य किये जाते हैं।

आत्मा का स्वरूप तिरोधान-अन्तर्द्धन, अदर्शन-गोपन, लुकाव-छिपाल ही आत्मधात है। जो कोई भी अपनी आत्मा का घात अथवा नाश करते हैं, वे आत्मधाती हैं। अविद्या अथवा अधवा अज्ञान रूप दोष के कारण अपने नित्य सिद्ध आत्मा का तिरस्कार कर्म अथवा फल मेरे हुए के समान तिरोहित रहता है। दूसरे शब्दों में अज्ञान ही वह दोष है जिसके कारम आत्मा का स्वरूप तिरोहित हो जाता है। अतएव अज्ञान जीव हीआत्मधाती है और इसी आत्मधात रूप दोष के कारण ही वे पूर्वानुसार जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं।
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