Friday, March 9, 2007

कर्त्तव्य कर्म


कर्म का आशय है-प्रारब्ध, भाग्य, काम, कार्य, कृत्य, क्रिया-कलाप, किसी सिद्धि के निमित्त किया जाने वाला प्रयत्न, जीविका, व्यवसाय, सेवा इत्यादि । इस जन्म में व्यक्ति आजीवन अग्रांकित कुल प्रमुखतः आठ प्रकार के कर्म का फल का स्वाद चखता है-

1 पूर्व जन्म का कर्म :
पूर्व जन्म के अंत मे अथवा अंतकाल के समय या फिर मृत्यु पूर्व जो अभिलाषाएं, इच्छाएं अथवा साकेतिक अभिप्राय यह है कि पूर्व जन्म का उक्त कर्म फल जीवात्मा को इस जन्म में भोगना ही पड़ता है। पूर्व जन्म की अपूर्ण अभिलाषाओं, इच्छाओं अथवा मनोकामनाओं को पूर्ण करने के मार्ग में जो-जो कठिनाईयां, परिशानियों और अवरोधक तत्व सामने आते हैं उन्हें पार करने हेतु व्यक्ति को अनेकानेक अत्यंत कठोर परिश्रम करना ही पड़ता है। इसे पूर्व जन्म का कर्म कहते हैं।

2. आनुवांशिक कर्म :
यह शरीर परदादा-परदादी, दादा-दादी, नाना-नानी और पिता-माता इन सबके रक्त के मेल से बना हुआ होने के कारण उन सबके कर्मों का प्रभाव अपने शरीर पर दृष्टिगोचार होता है जो व्यक्ति पुण्य कर्म और पाप कर्म करके भी उसके अच्छे तथा बुरे फल को नहीं भोगता तो भी वे कर्म फल नष्ट नहीं होते । उन कर्म फलों को उसके पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्रों को भोगना पड़ता है। इस कर्म को आनुवाशिक अथवा वंश-परम्परागत कर्म कहते है।

3. पितृ कर्म :
इसमें उन कर्मों को समावेश रहता है जो पिता द्वारा किये जाते हैं और जिसका फल सन्तान को भोगना पड़ता है। इसे पितृ कर्म कहा गया है।

4 . मातृ कर्म :
इसमें उन कर्मों का समावेश रहता है जो माता द्वारा किये जाते हैं और जसका फल सन्तान को भोगना पड़ता है। इसको मातृ कर्म कहा गया है ।

5. विरूद्ध लिंगीय कर्म :
इसमें पति-पत्नी अथवा प्रेमी-प्रेमिका संबंधी जो-जो अच्छे-बुरे कर्म पूर्व जन्म में अपने हाथों, हुए उन सब कर्मों का फल इस जन्म में भोगना पड़ता है। इसे विरूद्ध लिंगीय कर्म कहते हैं ।

6. पारिवारिक कर्म :
इसमें उन कर्मों का समावेश रहता है जो जनक-जननी तथा संतति द्वारा परस्पर किये गये कर्मों का फल एक-दूसरे को भोगना पड़ता है। इसको पारिवारिक कर्म के नाम से सम्बोधित किया जाता है ।

7. संसर्ग कर्मः
इसमें अपने मित्र-शत्रु, सज्जन-दुर्जन, संबंधी-विरोधी द्वारा परस्पर किये गये कर्मों का फल एक-दूसरे को भोगना पड़ता है। इसे संसर्ग कर्म अथवा कर्म का नाम दिया गया है।

8 . जन्म-भूमि कर्म :
इसमें अपने जन्म-स्थली, आस-पड़ोस, ग्राम्य-नगर, देश-परदेश द्वारा किये गये कर्मों का फल प्यक्ति को भोगना पड़ता है। इसे जन्म भूमि कर्म अथवा भू-कर्म कहा गया है।

यहाँ यह नितांत स्मरणीय बात है कि मनुष्य को इस जीवन में इन सब कर्मों का फल यथासमय भोगना ही पड़ता है। इसलिए मानव मात्र को आगन्तुक सर्वसम्बंधित शारिरिक कष्ट, हार्दिक दुःख और मानसिक वेदना को किसी भी देश-काल और परिस्थिति में झेलने हेतु सदैव तत्पर रहते हुए अपनी जीवन नैया को इस भवसागर से पार उतारना चाहिए ।
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