Friday, March 9, 2007

स्वेच्छामृत्यु


सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न गणराज्य भारत में सन् 1980 में “मर्सी फिलिंग बिल” लाया गया था, लेकिन सदन ने उसे स्वीकार नहीं किया। विपक्षियों की यह दलील थी कि कसी भी सम्पन्न रोगी के रिश्तेदार उसकी सम्पत्ति के लोभ में “निजात मौत” के नाम पर उसी जान ले सकते हैं। सन् 1986 में प्रो. वर्धे ने “इच्छा मृत्यु” संबंधी विधेयक पेश किया था । इसमें विशेष रूप से यह प्रावधान रखा गया था, कि एक तो किसी डॉक्टर को रोगी की स्वेच्छा के बिना उसकी चिकित्सा बन्द करने का अधिकार नहीं होगा और दूसरी बात डॉक्टर रोगी की स्वेच्छा से भी चिकित्सा केवल तभी बन्द कर सकता है जब संबंधित रोगी की चिकित्सा के लिए कोई दवा अथवा अन्य साधन उपलब्ध न हो । सदन ने इसे भी स्वीकार नहीं किया ।

चीन में यद्यपि “सुख-मृत्यु” अथवा “निजात मौत” की अनुमति देने वाला कोई कानून नहीं है, लेकिन फिर भी वहां “निजात मौत” के अनेक मामले सामने आये हैं । चीन के कई चिकित्सालयों में ऐसे मरीजों को कष्ट कर जीवन से मुक्ति दिलाना आम बात बन गई है जिनकी जीवन रक्षा लगभग असभव हो गई हो । लगभग चार वर्ष पूर्व शंघाई में आयोजित एक गोष्ठी के अनुसार एक चिकित्सालय में पिछले तीन वर्षा में हुई 563 मरीजों की मृत्यु में से 28प्रतिशत निजा तमौत के तरीके से हुई है ।

अमरीका के 62 वर्षीय डॉ, जैंक केबोर किंयन ने तिल-तिल कर मरते लोगों को मौत की सुखद नींद सुलाने के लिए “डेथ मशीन” का आविष्कार किया था , परन्तु फरवरी सन् 1991सें उस पर मुकदमा चलाया गया । न्यायालय ने चिकित्सक को हत्या के अपराध से बरी करते हुए आदेश दिया कि “डेथ मशीन” का प्रयोग न करें।

सन् 1991 में ही ग्रेंड जूरी के उस निर्णय ने “डेरेक हम्फ्री” द्वारा लिखित “फाईनल एक्जिट” अथवा “अन्तिम प्रस्थान” नामक आत्महत्या के तरीके मुझाने वाली पुस्तक की लोकप्रियता में चार चांद लगा दिया, जिसमें आदेश दिया गया कि “ल्यूकेमिया” नामक रोग से पीड़ित एक हताश मरीज को आत्महत्या करने के तरीकों की जानकारी देने के लिए “हेमलॉक सोसायटी” के सुपुर्द करले वाले डॉक्टर निमोथी ईक्विंल पर कोई अभियोग न लगाया जाए ।

कनाडा को एक महिला “श्रीमती सूई रोडरिग्ज” की एक गुमनाम डॉक्टर की सहायता से हाल ही में हुई मृत्यु ने कनाडा में “इच्छामृत्यु” के अधिकार के पक्ष में विधान बनाए जाने की मांग को जन्म दिया है । कनाडा के एक सांसद “श्री स्वेन्द राबिन्सन” को इसका पता चला तो उन्होंने इस स्वत्व को वैधानिक मान्यता दिलाने के लिए एक गैर सरकारी विधेयक संसद में प्रस्तुत कर दिया है। उनकी यह मान्यता है कि ऐसी घातक बीमारी से पीड़ित मरीज को जिसका कोई ज्ञात इलाज है ही नहीं, सांस लेने की कृत्रिम यंत्रों से बंधे पड़े रहकर सम्मान-शून्य जीवन को घसीटने के लिए विवश किए जाने का कोई औचित्य नहीं है। वैसे “श्रीमती सूई रोडिरग्ज” ने इस स्वत्व के लिए कनाडा के उच्चतम न्यायालय लड़ी थी, पर असफल रहीं।

जर्मनी में तो “डेर्थ विद डिग्निटी” (सम्माननीय मृत्यु) नामक संस्था कई वर्ष से काम कर रही है। इस संगठन के पास अपने सादस्यों की लिखित सहमति का भरपूर भण्डार जमा है । यह सहमत उन्होंने स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन की अवस्था में अंकित की है। इस संस्था के सदस्यों की मान्यता है कि यदि जिन्दगी जीने लायक न रहे तो फिर जीने से क्या लाभ ?

ब्रिटेन की सरकार ने ऐसे विधान का प्रारूप बनाने का सचिवालय को आदेश दिया है कि जिसमें जीवित वसीयतों को मान्यता मिल जाएगी । इसके तहत रोगी यह वसीयत लिख सकता है कि जब उसकी जीवन रक्षा संभव न हो तो डॉक्टर उसकी पीड़ा को और न बढ़ाते हुए सभी जीवन रक्षक उपकरण हटा लें।

जापान में अपने सम्मान के लिए “हाराकारी” (आत्महत्या का एक प्रकार) कर लेने को धार्मिक तथा सामाजिक मान्यता भी प्राप्त हो गयी है। यद्यपि अधिकांश उन्नत देशों में आत्महत्या को अपराध नहीं माना जाता । पाश्चात्य देशों में इसके लिए दण्ड का कोई प्रावधान है ही नहीं, तथापि आज दिनांक तक किसी भी देश द्वारा, किसी भी प्रकार के आत्महत्या को वैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं हुआ है और होना भी नहीं चाहिए क्योंकि अधिकार पाया जाता है, लिया जाता है, देता कोई नहीं । यहां जयशंकर प्रसाद जी की यह उक्ति नितान्त प्रासंगिक है कि “अधिकार कितना मादक और सारहीन है। अपने को नियामक और कर्ता समझाने की बलवती स्पर्धा उससे बेगार कराती है।”

अपने आपको विधाता, निर्माता,मालिक,परम पिता परमेश्वर, सर्वेश्वर समझने वाले किसी शरीरांग विशेषज्ञ, किसी रोग विशेष के विशेषज्ञ, यंत्र संचालन विशेषज्ञ एवं अन्य अनेकानेक महान से महानतम विशेषज्ञों का अत्यन्त कातर स्वर, ह्रदय विदारक आर्तनाद, दर्दनाक कराह, बेहद बेचैन, विवशतापूर्ण, अधीर और लाचार विचार, धैर्यहीन दुःखित और व्याकुल गुहार है कि जिसका कोई ज्ञात इलाज न हो तो विशेषज्ञों को अज्ञात इलाज करने का अधिकार होना चाहिए । जिसकी चिकित्सा संभव न हो तो विशेषज्ञों को उसकी इहलीली समाप्त करने का अधिकार होना चाहिए । यदि रोगी के मुंह में डालने के लिए कोई दवा उपलब्ध न हो तो विशेषज्ञों को रोगी का मुंह बन्द करने का अधिकार होना चाहिए ।

मानव को चाहिए कि वह सांसारिक तथा लौकिक साधनों के साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, उनको महत्व देकर उनका दास न बने, अपने आपको उनके अधीन न माने, अपने लिये उनकी आवश्यकता न समझे । जैसे किसी को कोई अधिकार मिल जाता है तो उसके मिलने से उस अधिकार का प्रयोग के लिए वह अपने आपको स्वतंत्र समझता है, पर वास्तव में वह उस अधकार के अधीन हो जाता है, उस अधिकार का दास बन जाता है और अपना पतन कर लेता है । बड़ी विचित्र किन्तु सत्य बात यह है कि इस पतन में भी वह अपना उत्थान मानता है और उसके होकर भी वह अपने आपको स्वाधीन मानता है।

निष्कर्ष यह है कि स्वाभाविक मृत्यु से ही अपना आत्मोद्धार संभव है। सुख-मृत्यु, निजात मौत, दया मृत्यु, सम्माननीय मृत्य, तथाकथित स्वच्छा मृत्यु, देह त्याग का स्वत्व इत्यादि सभी आत्महत्या के ही विभिन्न स्वरूप हैं। जो आत्मा को अधोगति की ओर पहुंचाती है अथवा व्यक्ति को नैतिक दृष्ट से अपेक्षाकृत और नीचे गिराती है। इसलिए मानवीय दृष्टिकोण से स्वाभाविक मृत्यु के अतिस्क्त अन्य किसी भी प्रकार की आत्महत्या को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि देह त्याग का स्वत्व पूर्णतः अमानवीय है।

जीवन एक उपहार है, इसे अंगीकार करो।
जीवन एक जुनौती है ,इसे स्वीकार करो।
जीवन एक संघर्ष है, इसका मुकाबवा करो।
जीवन एक लक्ष्य है, इसे प्राप्त करो।
जीवन एक ज्योति है, इसे प्रज्जवलित करो।
इत्यादि –इत्यादि ।

उपरोक्तानुसार पृष्ठांकित प्रेरक प्रसंगों में कहीं भी पलायन करना, त्यागना, भागना, छोड़ना, हटाना, पृथक करना, हिंसा, हत्या इत्यादि शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है। अतएव निर्विवाद रूप से आत्महत्या एक व्यावहारिक शब्द नहीं है।

किसी ने कहा है कि एक चित्रकार जानता है कि उसे अपनी चित्रकारी कहाँ समाप्त करनी है। चित्रकारी अर्थात् चित्र विद्या, चित्र वनाने की कला, चित्रकार का कर्त्तव्य कर्म, चित्रकार का काम अथवा चित्रकार का व्यवसाय। “एक तल या सतह (उक्त आधारभूत सतह मुख्यतः दीवार, पत्थर ,काठ, हाथीदाँत, चमड़ा, कपड़ा, तालपत्र या कागज होती है) पर चाहे वह सम हो या असन, पानी या तेल में घोले हुए अथवा सूखे, एक या अनेक रंग से आलेखन करके आकृति या लम्बाई, चौड़ाई तथा मोटाई दर्शाने को चित्रण कहते हैं।” “दूसरे शब्दों में” किसी समतल धरातल जैसे भित्ति, काष्ठ, फलक आदि पर रंग तथा रेखाओं की सहायता से लम्बाई, चौड़ाई,गोलाई तथा ऊँचाई को अंकित कर किसी रूप का आभास कराना ही चित्रकला है । “चित्रकार अथवा चितेरा मूलतः कलाकार होता है । चित्रकारी वस्तुतः कलाकृति है। कलाकौशल, कारीगरी, कला की चातुरी अथवा निपुणता । यथार्थ में एक चितेरा अथवा चित्रकार अपनी चित्रकारी को कभी समाप्त नहीं करता, अंत नहीं करता अपितु पूरा करता है पूर्ण करता है । एक चित्रकार यह कभी नहीं जानता कि कौन सा चित्र उसका अंतिम चित्र है या फिर किसी चित्र के कौन सा आंगिक चित्रण उसका अंतिम चित्रण है। कोई भी चित्रकार अपनी चित्रकारी की हत्या कभी नहीं करता । यह बात और है कि किसी कारणवश वह अधूरा रह जाए, पर वह उसे पूरा करने की हर संभव यथेष्ट चेष्टा करता ही है। अतएव व्यक्ति को चाहिए कि वह अंतिम क्षण तक जीने के प्रति दृढ़ संकल्पित रहे ।

किसी ने कहा है कि जन्म कुण्डली के अष्टम भाव से मरण का विचार किया जाता है। जब अष्टम भाव में शुभ ग्रहों की स्थिति और दृष्टि होती है तो मृत्यु सुखद होती है। इस भवन में स्थिति अथवा दृष्टि से कभी-कभी राहु अपने प्रभाव द्वारा आत्महत्या-संकल्प-बुद्धि को उत्तेजित करता है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी अष्टम भाव में वायु तत्त्व की राशि पड़ने पर भी जातक की विष सेवन अथवा आत्महत्या करने के कारण मृत्यु होती है। ध्यान रहे कभी-कभी, हमेशा नहीं । इसके अलावा कभी-कभी अनेकानेक संघ,पंथ, संस्था,उद्योग-घंधा (विशेषकर कृषि व्यवसाय) से संबंधित लोग तथा कुटुम्ब-परिवार के सदस्यगण भी सामूहिक रूप से आत्महत्या करते जा रहे हैं। हम सबके तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए सभी आत्महन्ताओं की कुण्डली में उपरोक्त योग था, यह विश्वास करना अपने आप में पूर्णतः संदिग्ध है, क्योंकि उपरोक्त योग वाले जातक आज भी पूर्णतः संतोषजनक स्थिति में जीवन यापन करते हुए पाये जाते हैं।
किसी ने कहा है कि में अपने जीवन का एक सौ चार सावन व्यतीत कर चुकी हूँ। आज मेरे सिर में बाल नहीं है, मुँह में दाँत नहीं है, आखों में रोशनी नहीं है और हाथ-पाँव में बल नहीं है । मेरा शरीर अशक्त है। अब मुझे अपने जीवन यापन के लिए अन्यों का सहारा लेना पड़ रहा है, इसलिए अब मैं जीना नहीं चाहती। आज और अभी से मैं अन्न-जल का परित्याग कर रही हूँ। मुझे मरण को वरण करने का अधिकार दिया जाय। मात्र एक सौ चार वर्ष तक के लिए ही आपके लिए इस धरातल को किसी और ने निर्मित किया, इस आवास को किसी और ने बनवाया, इस परिधान को किसी और ने सिलाई-बुनाई किया, इस अन्न को किसी और ने उत्पन्न किया, इस जल को किसो और ने लाया।-----इत्यादि,इत्यादि । निःसंदेह हम-आप संयुक्त रूप से एक सामाजिक प्राणी हैं । चूँकि हम हिमालय की तराई में नहीं बसते, इसलिए पृथक से हमरा कोई अस्तित्व नहीं । परस्पर सहयोग भाव अथवा परस्पर सहयोग व्यवहार ही हमारा जीवन है। विगत एक सौ चार वर्ष तक हमने सहयोग लिया और आज यह कहना कि अब मैं किसी ओर से सहयोग नहीं लेना चाहती, नितान्त असंगत, अतार्कित और अव्यवहारिक बात है।
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