Friday, March 9, 2007

आँकड़े


मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर हम सत्रहवीं शताब्दी को पुनर्जागरण-काल, अठारहवी शताब्दी को पुनर्विवेचन-काल, उन्नीसवीं शताब्दी को उन्नयन-काल और बींसवी शताब्दी को चिंतन-काल और इक्कीसवीं शताब्दी को चिंताकुल अथवा चिंतातुर-काल के नाम से संबोधित कर सकते हैं । भौतिकवाद और सार्वभौतिक अर्थाभाव का दूसरा नाम है – 21 वीं सदी । अतएव मानव जीवन का अभावग्रस्त होना सर्वथा स्वाभाविक है । अभाव के फलस्वरूप व्यक्ति का चिंतातुर, चिंताव्यग्र अथवा मानसिक तनावग्रस्त होना बिलकुल स्वाभाविक है । आलस्य, नैराश्य, संत्रास, कुंठा, ऊब, अनिद्रा, विक्षिप्तता और अंततः आत्महत्या आज हमारे जीवन का आवश्यक अंग सा बन गया है । घर-द्वार, अंदर-बाहर, जाति-समाज, देश-परदेश, आस-पास, कार्यालय-वासालय इत्यादि प्रत्येक स्थल पर तनाव विद्यमान है ।जहाँ कहीं भी मनमोहक कार्य नहीं हो पाता वहीं मन उद्वेलित हो जाता है और इसी के साथ उत्पन्न होता है – ‘यत्नसाध्य महाप्रयाण’ विषयक कुत्सित विचार ।

न्याय पद्धति का यह एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि प्रत्येक समस्या का समाधान है । जिस कारण तनाव होता है उस मानसिकता से मुक्ति संभावित है । वास्तव में तनाव का एक कारण अभाव होता है और दूसरा दुर्भाव । तनाव की स्थिति में हम यह सोचने लग जाते हैं कि हमारी स्थिति अन्य अनेक व्यक्तियों की अपेक्षा कितनी अधिक दयनीय है, चिंतनीय है, निंदनीय है जबकि हमें यह सोचना चाहिए कि हमारी स्थिति अन्य अनेक व्यक्तियों की अपेक्षा कितनी अधिक आदरणीय है, प्रशंसनीय है, वंदनीय है । ऐसा सोचने मात्र से हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जो हमारी अपेक्षा दीन-हीन, अभाव-दुर्भाव, पस्त तथा त्रस्त है । जब कभी भी हम अपेक्षाकृत निम्न व्यक्ति की सहायता हेतु योजना बनाने लगें तब तत्समय हमारा तनाव बिलकुल शिथिल पड़ जायेगा और हम एक नए व्यक्ति की भाँति आचरण करने लगेंगे, क्योंकि तत्समय हम अपने आपको उत्कृष्ट श्रेणी वाले व्यक्तियों के मध्य स्थित पायेंगे, क्योंकि चिंता केवल उन्हीं व्यक्तियों को सताती है जो केवल स्वार्थी होते हैं परमार्थी व्यक्ति को स्वार्थ संबंधी चिंता करके तनावग्रस्त होने का समय ही नहीं मिल पाता ।

प्रत्येक अवस्था वाले व्यक्ति के तनाव के भिन्न-भिन्न कारण होते हैं । बालकों के तनाव के मुख्य कारण होते हैं – पालकों तथा अभिभावकों का प्यार न मिलना, मनभावन वस्तुओं से वंचित रखना, अन्य बच्चों के साथ उनकी तुलना करना, अन्य बच्चों की प्रशंसा करना, अनावश्यक रूप से डाँट-डपट करना इत्यादि । युवा मन में तनाव के मुख्य कारण होते हैं – अर्थाभाव, शिक्षण-प्रशिक्षण में असफलता, असफल प्रेम संबंध, अउद्यम आदि । वृद्धजन के तनाव के मुख्य कारण होते हैं – दुर्बलता, संतानहीनता, अकेलापन, संतान का अयोग्य, अनुशासनहीन तथा कुमार्गी होना इत्यादि । आज व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, दूषित वातावरण इत्यादि अनेक ऐसे कारण हैं जो मानव जीवन को अस्वाभाविक एवं अमानवीय बना रहे हैं । दरअसल सादा जीवन उच्च विचार को हम रूढिवाद और पिछड़ेपन की पहचान मान रहे हैं और झूठा स्वाभिमान तथा दिखावा को प्रगति का प्रतीक । फलतः हमारा जीवन नारकीय बनता जा रहा है और हम चाह कर भी उससे छुटकारा पाने में अपने आपको असमर्थ पा रहे हैं । हमें ऐसी जीवन पद्धति अपनाना चाहिए जो तमाम तनावों से उत्पन्न अभिशापों से मुक्ति प्रदान करे । आत्महत्या कोई नई समस्या नहीं । यह सदियों से चली आ रही है, किन्तु वर्तमान में भारत में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में इसकी गति नये सिरे से क्रमशः बढ़ती ही जा रही है। अखिल विश्व में आत्महत्या की मात्रा व दर के सम्बन्ध में अब तक जो अध्ययन किये गये हैं तथा उनसे जो परिणाम व आँकड़ें प्राप्त हुए हैं उन्हें अधोलिखित शीर्षकों मे प्रस्तुत किया जा सकता है-

(1) विश्व
एक समय था जब न्यूयार्क के लगभग 108 वर्ष पुराने ब्रुकलीन ब्रिज तथा एम्पायर स्टेट बिल्डिंग (विश्व की सबसे ऊँची बिल्डिंग) आत्महत्या करने के लिए सर्वाधिक चर्चित थी, लेकिन अब तो अमरीका आदि देशों में पिस्तौल, बन्दूक बगैरह इतनी सहजता के साथ मिल जाते हैं कि कोई भी सामान्य व्यक्ति इस प्रकार के शस्त्रों को खरीदकर बड़ी आसानी से आत्महत्या कर लेता है। आज स्थिति यह है कि पूरे विश्व में प्रतिदिन केवल आत्महत्या के लगभग 1100 (एक हजार एक सौ) प्रकरण दर्ज किये जाते हैं।

(2) भारत :
भारत में प्रति 12 मिनट में एक आत्महत्या होती है। समूचे देश में सन् 1968 सन्1969 एवं 1970 में क्रमशः 40638, 43633 एवं 48428 आत्महत्याएँ हुई । सन् 1990 में भारत में कुछ करीब 49000 आत्महत्याओं के प्रकरणों में जहर तथा नींद की गोली खाकर मरने वालों की संख्या 10500, गले में फाँसी डालकर मरने वालों की संख्या 10000, कुआँ, तालाब, नदी तथा समुद्र में डूबकर मरने वालों की संख्या 7203, रेल से कटकर आत्महत्या करने वालों की संख्या 2700,मिट्टी तेल तथा पेट्रोल छिड़ककर व आग लगाकर जल मरने वालों की संख्या 3500 और ऊँची इमारतों से कूदकर मरने वालों की संख्या 554 से ऊपर थी । एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रतिदिन मरने वालों की संख्या में से तकरीबन 1.33 प्रतिशत लोग आत्महत्या करते हैं । भारत में प्रतिदिन करीब-करीब 120 व्यक्ति आत्महत्या करते हैं ।

(3) प्रदेश
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों के नवीनतम रिकार्ड, वर्ष 1988 के अनुसार भारत में आत्महत्या दर 8.1 प्रति एक लाख व्यक्ति थी। केरल, त्रिपुरा, तमिलनाडू तथा पश्चिम बंगाल में यह दर क्रमशः24.7, 21.1, 17.9तथा 15.7 प्रति एक लाख व्यक्ति थी । इसके बाद क्रमशः कर्नाटक, असम, बिहार तथा अन्य राज्यों का नम्बर आता है। आत्महत्या की सबसे कम घटनाएँ जम्मू-कश्मीर मे होती है। यहाँ प्रति एक लाख व्यक्ति के पीछे 0.22 लोग ही आत्महत्या करते हैं ।

(4) नगर:
भारत के महानगरों में आत्महत्या बहुत होती है। एक सर्वेक्षण के अनुसार इन शहरों में 01 जनवरी, 1988 से 15 जून, 1989 तक बेंगलूर में 664, मद्रास में 278, कानपुर में 227,नागपुर में 120, दिल्ली में 119, बम्बई में 108, अहमदाबाद में 79, पुणे में 60 और जयपुर में 22 आत्महत्याएँ हुई ।

(5) नागरीकरण :
प्राथमिक सम्बन्धों के कारण गाँवों में लोग प्रायः एक दूसरे के सुख-दुःख में हमेशा साथ देते हैं, लेकिन शहरों में सर्वथा इसका अभाव रहता है। नगरों में व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति का बोलबाला रहता है। अड़ोस-पड़ोस तथा अगल-बगल तो बहुत दूर की बात है पारिवारिक सदस्यों के सात बी धनिष्ठ सम्बन्ध नहीं रखते । यहाँ तक जीवन-साथी के सात भी लगभग प्रतिदिन सम्बन्ध बिच्छेद (तलाक) की घटनाएँ होती रहती हैं। इन समस्त कारणों से नगरों के खासकर महानगरों के व्यक्तियों में जीवन के प्रति स्वस्थ लगाव नहीं होता । फलतः आए दिन आत्महत्याएँ होती ही रहती हैं, जबकि ग्रामों में यह प्रायः नहीं के बराबर है।

(6) आयु :
यद्यपि आयु की वृद्धि के साथ-साथ लोगों मे प्रौढ़ता एवं गम्भीरता की वृद्धि होती जाती है, तथापि कम आयु के लोगों की अपेक्षा अधिक आयु के लोगों की आत्महत्या दर अधिक होती है।

(7) लिंग :
भारत में स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों में आत्महत्या की दर अधिक है. आत्महत्या करने वाले भारतीयों में 61 प्रतिशत पुरूष तथा 39 प्रतिशत महिलाएँ होती हैं। यहाँ सफल आत्महत्याओं की संख्या पुरूषों में अधिक है और असफल आत्महत्याओं की संख्या महिलाओं में अधिक है।

(8) रंग :
गोरे लोग साँवलें व काले लोगों की अपेक्षा अधिक आत्महत्या करते हैं।

(9) धर्म :
कैथोलिकों की अपेक्षा प्रोटेस्टेंटों में आत्महत्याएं अधिक होती हैं ।
एक समय वह भी था जब बिल्कुल अन्जान व्यक्ति की मौत का समाचार सुनते ही सारे शहर में भयानक सन्नाटा छा जाता था, लेकिन वर्तमान समय में पड़ोसी की लाश को अनदेखा कर अपने रास्ते चल देने वालों की संख्या-क्रमशः बढ़ती ही जा रही है। आजकल प्रत्येक सुबह हर अखबार की सुर्खियों में हत्याओं के बीभत्स वर्णन होते ही हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद भी हमारे दिलों की धड़कर, साँसों की गति तथा नाड़ियों का स्पन्दन अप्रभावित रहते हैं। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से जघन्य से जघन्य अपराध का समाचार सुनकर अथवा क्रूर से क्रूर हत्याकाण्ड को देखकर भी हमारे रोंगटे खड़े नहीं होते । मौत की गंध अब वातावरण में इस कदर घूल-मिल गई है कि हम उसके आदी हो गये हैं। आज स्थिति यह है कि मरना भी दैनिक आवश्यताओं की वस्तुओं के समान एक प्रकार से रोजमर्रा की खबर बन चुकी है। अब शमशानों का भयावह सन्नाटा और नाट्य मण्डली के वातावरण में कोई विशेष अन्तर नहीं रह गया है।

न केवल भारतीय संविधान में वरन् संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकार सम्बन्धी घोषणा पत्र में भी मात्र अधिकार एवं सुख सुविधाओं पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया गया है। वैधानिक दृष्टकोण से परिवार, समाज, देश, धर्म, पंथ एवं विश्व बन्धुत्व की भावना के प्रति कोई विशेष विधान नहीं बनाया गया : परिणामस्वरूप व्यक्ति के मन में कर्त्तव्य एवं दायित्व निभाने सम्बन्धी मानसिकता आज तक नहीं बैठ पायी है। मिलनसार लोग ही वास्तव में स्वर्गीय आनन्द का अनुभव करते हैं। एकांगी जीवन व्यतीत करने वाले लोग मनोरंजनात्मक व प्रफुल्लित जीवन से वंचित रहते हैं। यहाँ कोई पराया नहीं, सारी दुनिया हमारी है। दुनिया को अपनाने की सीख सर्वोत्तम सीख है और अपनापन ही सर्वोच्च जीवन दर्शन।

जब हम यह तर्क प्रस्तुत करते हैं, कि गर्भधारण और प्रसव वेदना का अधिकारी केवल माता ही है। पालन-पोषण व दूध का कोई कर्ज नहीं होता । पितृ ऋण नामक कोई कर्त्तव्य होता ही नहीं तथा पढ़ाना-लिखना तो गुरू का दायित्व है। रोजगार उपलब्ध कराना प्रशासन की जिम्मेदारी है और दहेज प्रथा उन्मूलन समाज की, तब हम निश्चित रूप से दिग्भ्रमित हैं। ज्ञानीजन अपने स्वार्थ के लिए नहीं जीते इसलिए उनकी आत्मा परिपूर्णता को प्राप्त करती है। जब हम स्वहिताय जीते हैं और स्वसुखाय सोचते हैं कि दुनिया को मारे सुख सुविधाओं का ख्याल रखना चाहिए ,किन्तु दुनिया के सुख सुविधाओं का खयाल रखना हमारे लिए आवश्यक नहीं तब यही तथाकथित समझदारी हमारे लिए आत्मघातक सिद्ध होती है।
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