Friday, March 9, 2007

लेखक-परिचय

गौतम पटेल

जन्म
12 अक्टूबर 1948

जन्म- स्थान
मु.पो.-सालर
तहसील-रायगढ़
छत्तीसगढ़

शिक्षा
एमए, बीजे, कोविद, ज्योतिर्विद

उपाधि
ज्योतिष मर्मज्ञ

प्रकाशन
अग्रदूत, रौद्रमुखी, समवेत शिखर, महाकौशल, अमृत-संदेश, दैनिक भास्कर, नवभारत, जनसत्ता, संडे-मेल, हरिभूमि, नई दुनिया, पर्यावरण उर्जा टाइम्स, छत्तीसगढ़ी मानस हिंदी धारा, राष्ट्रीय न्यूज सर्विस(फीचर), रायगढ़ संदेश, जनकर्म, प्रखर समाचार, पहचान यात्रा, सृजनगाथा, आदि दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक पत्रिका में शताधिक रचनाओं का प्रकाशन

विशेष लेख
फ्यूचर समाचार, भारतीय प्राच्य दर्पण, ज्योतिष मंथन, ज्योतिष सागर, तंत्र-मंत्र

पुस्तकें
0 अमृत तुल्य स्तनपान (मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित)
0 हिरण्यगर्भ (शोध)
0 आत्महत्या (लघुशोध)

इंटरनेट पर ऑनलाइन कृति
0 हिरण्यगर्भ (http://hiranyagarva.blogspot.com/)

अप्रकाशित
0 हिंसा और अहिंसा
0 चौंसठ कर्म कलाकृति
0 लग्न कुंडली-योग मंडली

पदाधिकारी
राज्य प्रचार सचिव
छत्तीसगढ़ राज्य की महत्वपूर्ण संस्था - सृजन-सम्मान

संप्रति
छत्तीसगढ, शासन राजस्व विभाग में अधिकारी

संपर्क
पेंशनवाड़ा, रायपुर
छत्तीसगढ़
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प्रकाशक की ओर से

विदेह से सदेह की ओर गमनागमन । दूसरे शब्दों में आत्महत्या से आत्मरक्षा की ओर प्रस्थान । इसे हम यों भी कह सकते हैं कि जीवन- मरण से जीवन-भरण की ओर रवानगी । सम्पूर्ण संसार का सर्वाधिक हृदय विदारक महामारी यदि कोई कोई है तो वह है –‘आत्महत्या’।
इन दिनों अमेरीका,श्रीलका, इंग्लैण्ड, हालैण्ड भारत, पाकिस्तान, चीन और जापान में ही नहीं आखिल विश्व के कोने-कोने में आत्महत्या करने वालों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। ऐसा कोई दिन नहीं है जिस दिन के समाचार-पन्नों में आत्महत्या संबंधी समाचार प्रकाशित न हुआ हो । मरने के कारणों की सूची में आत्महत्या तमाम रोगों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। दुःख, कष्ट, व्यथा और व्याकुलता प्रत्येक युग में रहा है और रहेगा । लेकिन आत्महत्या किसी समस्या का समाधान किसी भी युग में न कभी रहा है और रहेगा । सभी धर्मो में ‘आत्महत्या’ को पाप माना गया है । सभी विधानों में ‘आत्महत्या को दण्डनीय अपराध माना गया है । इसके बावजूद इस दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं हे जो आत्महत्या जैसे घृणित निर्णय बड़ी आसानी से ले लेते हैं । इस शोध परक कृति में भागीरथ प्रयास किया गया है कि एन-केन-प्रकारेण आत्महत्या की हद तक बढ़ा हुआ व्यक्ति पुनः जीवन धारा की और कौट सके ।


जयप्रकाश मानस
सृजन सम्मान,रायपुर,छत्तीसगढ़

लेखकीय

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित एक प्रतिवेदन के अनुसार दस से पचपन वर्ष के उम्र में मरने वाले व्यक्तियों में जो पाँच प्रमुख कारण माने जाते है, उनमें से एक यही ‘आत्महत्या’ है। 1974 में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार सम्पूर्ण विश्व में प्रतिदिन 1000 व्यक्ति ‘आत्महत्या’ के माध्यम से अंतिम प्रस्थान करते हैं । 1983 के सर्वेक्षण के अनुसार यह संख्या बढ़कर प्रतिदिन 2400 व्यक्ति हो गया और विद्यमान 1993 के सर्वेक्षण के अनुसार यह संख्या बढ़कर प्रतिदिन 6000 व्यक्ति हो गया है । दूसरे शब्दों में प्रत्येक घंटे 250 व्यक्ति अथवा प्रत्येक मिनट 4.17 व्यक्ति ‘आत्महत्या’ करते हैं । यह संख्या किसी भी प्रकार की बीमारी ,दुर्घटना, प्राकृतिक प्रकोप तथा महामारी से मरने वालों की संख्या से अधिक है। इसे हम कालों का काल नहीं, कालों का महाकाल कहें तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।

जीते-जागते रहने का नाम है जीना और जीते जी मर जाने का नाम है आत्महत्या । प्राणधार अथवा प्राणाधारण करने वाले को ही बने रहना अथवा प्राण धारण किये रहना ही प्राणी का परम कर्त्तव्य है। दूसरे शब्दों में हर हाल में जीवन के दिन बिताना ही जीना है। इसमें अगर-मगर,किन्तु-परन्त, लेकिन, फिर भी के लिए कोई स्थान नहीं । निष्कर्ष यही कि हमें हर हाल में जीना है। मत्स्य नियम अर्थात बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। यह नियम तब भी था अभी भी है और आगे भी रहेगा । इसे हम किसी भी कीमत पर बदल नहीं सकते । जंगली विधान अर्थात् बड़े वृक्षों के नीचे छोटे वृक्ष नहीं पनप सकते । अतीत में भी नहीं, वर्तमान ममें भी नहीं और भविष्य में भी नहीं । यह एक प्राकृतिक विधि है। इसममें परिवर्तन प्रकृति को भी मान्य नहीं मवेशी कानून अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस । इसका अस्तित्व सदैव रहा है और रहेगा प्रत्येक युग में, प्रत्यंक मन्वन्तर में; प्रत्येक कल्प में। किसी भी सूरत में हम इससे मुकर नहीं सकते । इस कारण हमें चाहिए कि हम इन मत्स्य नियम, जंगली विधान और मवेशी कानून से प्रत्येक लड़ें-भिड़ें नहीं । इन पर हर हाल में मर-मिटें नहीं, अपितु प्रत्येक देश, काल और परिस्थिति में इनसे खुल्लमखुल्ला मुकबला करना चाहिए।

यहाँ एक पाशविक नियति का उल्लेख करना नितांत प्रासंगिक है। कहते हैं लोग कि शेर पीछे से वार नहीं करता, लेकिन वास्तविकता यह है कि शेर पीछे से ही वार करता है। हाँ, निश्चित रूप से वह धोखा नहीं देता । शेर कपटी, विश्वासघाती तथा धोखेबाज नहीं होता । वह कोई माया-जाल से नहीं अपनी चाल-चलन, चहल-कदमी से, संयमित पंजों के बल, नियंत्रित पंजों के बल हिरणीय झुण्ड के समीप पहुंचता है । शेरागमन की आहट को हिरण न सुन सके तो इसमें बेचारे शेर का क्या कसूर ? इनता ही नहीं वह अपने आक्रमण से पूर्व एक दहाड़ मारकर मानों ढिढोंरा पीटता है कि भागो, श्रवण-श्रोत से तुम्हें सूचना मिल चुकी कि अब तुम अपनी मौत करो । इसके तुरंत पश्चात जो हिरण अपने झुण्ड से पृथ्क, अलग, भिन्न अथवा अन्य दिशा की और भागता है शेर उसी का पीछा करता है। उसी को दौड़ाता है। अपेक्षाकृत तीब्र गति से सरपट दौड़ता है, छलांग लगाता है; झपटता है और अन्ततः अपने शिकंजे में दबोचता है। अब पछताये क्या होत है जब चिड़िया चुग गयी खेत । हिरण को काफी देर बाद अपने जीवन के अंतिम क्षणों में समझ में आया कि यदि मैं भी अपने झुण्ड के साथ मिलकर भागता तो निश्चित रूप से अपने साथी अनेक हिरणों से आगे रहता और आज मुझे अपनी जान से हाथ धोना नहीं पड़ता, क्योंकि शेर अपने सभी शिकार को भागने का, दौड़ने का पूरा-पूरा मौका देता है अवसर देता है, समय देता है और जो पीछे रह जाता है अथवा पीछे हो जाता है उसी को अपने शिकंजे में दबोचता है। यदि कोई वद्ध है, शावक हो, गर्भिणी है, आलसी अथवा निकम्मा हो तो भी इस शिकारी शेर-शिकार नियति के अन्तर्गत इस बेचारे शेर का क्या कसूर ? इसका सांकेतिक अभिप्राय यह है कि हमें तेज और तेज, आगे और आगे भागता है, दौड़ना है, निकलना है, कम से कम आक्रमक पंजों से आगे, प्रतिस्पद्धी पंजों से आगे, प्रतिद्वंदी पंजों से आगे ।

आत्महत्या से पूर्व लिखे गये पत्रों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से यद्यपि पूर्वाग्रह विद्रोही, विषयी, व्यभिचारी, कृत, विचलित, असंयमी, नियंत्रित, निराश, हताश, उदास, निकम्मा और अकर्मण्य छटपटाहट की बू आती है, तथापि निर्विवाद रूप से इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बहुतायत तंत्र, बहुसंख्यक तंत्र, घोटाला तंत्र, स्वार्थ तंत्र, अभाव तंत्र, चोर तंत्र लुटेरे तंत्र डकैत तंत्र, झूठ तंत्र, फरेब तंत्र, विश्वासघात तंत्र, घात तंत्र, हिंसा तंत्र, व्यभिचार तंत्र, अनाचार तंत्र, अत्याचार तंत्र, आलसी तंत्र, सुस्त तंत्र, निठल्ला तंत्र, अन्य न्यायमूर्ति तंत्र, अन्य व्यवस्थित न्याय व्यवस्था तंत्र, अन्य पीढ़ी न्याय तंत्र, अपमान तंत्र, अवहेलना तंत्र, अवमानना तंत्र, विवाह उपरांत तंत्र, सेवाकाल तंत्र, मरणोपंरात तंत्र, इत्यादि का अखण्ड साम्राज्य विद्यमान है। माना की जीने के अधिकार में मौत का अधिकार सम्मिलित नहीं है, पर जीवन के प्रति मोह को आर्थिक, मामाजिक, राजनीतिक और न्यायिक विसंगतियाँ समाप्त कर दें, यह अपने आप में भयानक तथ्य है, शर्मनाक तथ्य है, निन्दनीय तथ्य है, चिंतनीय तथ्य है, विचारणीय तथ्य है।

आत्महत्या की ओर उद्धत मानसिकता की सहायता के लिए “समारिटन” नामक एक समाज सेवी संस्था आगे आई है। इस संस्था के कार्यकर्ताओं का कहना है कि वे लोग दूरभाष के माध्यम से ऐसे व्यक्तियों की सहायता करते हैं । इस सहायता के लिए यह संस्था कोई शर्त नहीं रखती । “लायंस क्वब ऑफ मुम्बई पूर्व” द्वारा भी ऐसी ही सहायता प्रद्त्त कराई जा रही है। इस सम्बन्ध में “फादम्बिनी” नामक मासिक प्रकाशन सितम्बर 2005, वर्ष-45, अंक 11 वनशेष प्रशंसनीय है जिसके अन्तर्गत आत्महत्या के विरूद्ध व्यापक सामग्री उपल्ब्ध है। इसमें प्रकाशित कुछ भाव को यहाँ भी उजागर किया गया है। इस प्रकार और भी अनेकानेक संस्थाएँ दलित, शोषित पीड़ित, तापित, शापित, कंपित, लाचार, विवश, विक्षिप्त,आहत, घायल, अनाथ, असहाय, निराश्रित, अंगहीन, अपाहिज और अस्वस्थ व्यक्तयों की सेवा के लिए कापी लम्बे समय से उपना योगदान देती आ रही है। जिस काम को शासन शारकीय तौर-तरीके से नहीं कर पाती अथवा रका पाती उस काम को अशासकीय संस्थाएँ बखूबी कर लेतीं अथवा रका लेतीं हैं । चूँकि आत्महत्या महज एक शासकीय समस्या नहीं है, सिर्फ एक चिकित्सकीय समस्या नहीं है, केवल एक राष्ट्रीय समस्या नहीं है, मात्र एक सामाजिक या फिर सार्वजनिक संस्थाओं को ही नहीं अपितु प्रत्येक व्यक्ति को विशेष कर प्रबृद्ध वर्ग को व्यक्तिगत रूप से सामने आना चाहिए । महात्मा गाँधी के शब्दों में- “विचार पूर्वक किया हुआ श्रम उच्च से उच्चत्तम प्रकार की समाज सेवा है ।”
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कर्त्तव्य कर्म


कर्म का आशय है-प्रारब्ध, भाग्य, काम, कार्य, कृत्य, क्रिया-कलाप, किसी सिद्धि के निमित्त किया जाने वाला प्रयत्न, जीविका, व्यवसाय, सेवा इत्यादि । इस जन्म में व्यक्ति आजीवन अग्रांकित कुल प्रमुखतः आठ प्रकार के कर्म का फल का स्वाद चखता है-

1 पूर्व जन्म का कर्म :
पूर्व जन्म के अंत मे अथवा अंतकाल के समय या फिर मृत्यु पूर्व जो अभिलाषाएं, इच्छाएं अथवा साकेतिक अभिप्राय यह है कि पूर्व जन्म का उक्त कर्म फल जीवात्मा को इस जन्म में भोगना ही पड़ता है। पूर्व जन्म की अपूर्ण अभिलाषाओं, इच्छाओं अथवा मनोकामनाओं को पूर्ण करने के मार्ग में जो-जो कठिनाईयां, परिशानियों और अवरोधक तत्व सामने आते हैं उन्हें पार करने हेतु व्यक्ति को अनेकानेक अत्यंत कठोर परिश्रम करना ही पड़ता है। इसे पूर्व जन्म का कर्म कहते हैं।

2. आनुवांशिक कर्म :
यह शरीर परदादा-परदादी, दादा-दादी, नाना-नानी और पिता-माता इन सबके रक्त के मेल से बना हुआ होने के कारण उन सबके कर्मों का प्रभाव अपने शरीर पर दृष्टिगोचार होता है जो व्यक्ति पुण्य कर्म और पाप कर्म करके भी उसके अच्छे तथा बुरे फल को नहीं भोगता तो भी वे कर्म फल नष्ट नहीं होते । उन कर्म फलों को उसके पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्रों को भोगना पड़ता है। इस कर्म को आनुवाशिक अथवा वंश-परम्परागत कर्म कहते है।

3. पितृ कर्म :
इसमें उन कर्मों को समावेश रहता है जो पिता द्वारा किये जाते हैं और जिसका फल सन्तान को भोगना पड़ता है। इसे पितृ कर्म कहा गया है।

4 . मातृ कर्म :
इसमें उन कर्मों का समावेश रहता है जो माता द्वारा किये जाते हैं और जसका फल सन्तान को भोगना पड़ता है। इसको मातृ कर्म कहा गया है ।

5. विरूद्ध लिंगीय कर्म :
इसमें पति-पत्नी अथवा प्रेमी-प्रेमिका संबंधी जो-जो अच्छे-बुरे कर्म पूर्व जन्म में अपने हाथों, हुए उन सब कर्मों का फल इस जन्म में भोगना पड़ता है। इसे विरूद्ध लिंगीय कर्म कहते हैं ।

6. पारिवारिक कर्म :
इसमें उन कर्मों का समावेश रहता है जो जनक-जननी तथा संतति द्वारा परस्पर किये गये कर्मों का फल एक-दूसरे को भोगना पड़ता है। इसको पारिवारिक कर्म के नाम से सम्बोधित किया जाता है ।

7. संसर्ग कर्मः
इसमें अपने मित्र-शत्रु, सज्जन-दुर्जन, संबंधी-विरोधी द्वारा परस्पर किये गये कर्मों का फल एक-दूसरे को भोगना पड़ता है। इसे संसर्ग कर्म अथवा कर्म का नाम दिया गया है।

8 . जन्म-भूमि कर्म :
इसमें अपने जन्म-स्थली, आस-पड़ोस, ग्राम्य-नगर, देश-परदेश द्वारा किये गये कर्मों का फल प्यक्ति को भोगना पड़ता है। इसे जन्म भूमि कर्म अथवा भू-कर्म कहा गया है।

यहाँ यह नितांत स्मरणीय बात है कि मनुष्य को इस जीवन में इन सब कर्मों का फल यथासमय भोगना ही पड़ता है। इसलिए मानव मात्र को आगन्तुक सर्वसम्बंधित शारिरिक कष्ट, हार्दिक दुःख और मानसिक वेदना को किसी भी देश-काल और परिस्थिति में झेलने हेतु सदैव तत्पर रहते हुए अपनी जीवन नैया को इस भवसागर से पार उतारना चाहिए ।
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शास्त्र निर्देश


जहाँ धर्म-अधर्म, अर्थ-अनर्थ, कर्म-अकर्म में संदेह उत्पन्न हो जाए वहाँ शास्त्रों से सहायता लेने सम्बंधी निर्देश भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के सोलहवें अध्याय में निम्नानुसार दिया है-

“यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।।23।।”


जो लोग शास्त्र विधि की अवहेलना करके स्वच्छानुसार मनमाने ढंग से आचरण करते हैं, वे न तो अन्तःकरण की शुद्धि को प्राप्त करते है, न सांसारिक सुख को प्राप्त करते हैं और न परम गति को ही प्राप्त करते हैं । चूंकि वे स्वेच्छाचारिता के कारण आन्तरिक भावों और सिद्धांतों को समझने में असमर्थ रहते हैं । इस कार वाह्य आडम्बरों को ही श्रेष्ठ समझते है। जिस प्रकार रोगी अपनी दृष्टि से तो अखाद्य पदार्थो का त्याग और खाद्य पदार्थों का सेवन करता है, लेकिन वह वास्तव में आशक्तितवश खाद्य पदार्थों को छोड़कर अखाद्य पदार्थों का सेवन कर लेता है। फलतः वह अपेक्षाकृत और अधिक अस्वस्थ हो जाता है। ठीक उसी प्रकार मन के छः शत्रु-काम, क्रोध, लोभ मोह, मद, मत्सर-से ग्रसित लोग अपनी दृष्टि से तो यज्ञ, परोपकार इत्यादि अच्छ-अच्छे कार्य करते हैं, अरंतु वास्तव में शास्त्रविधि को छोड़कर स्वनिर्मित विधि के अनुसार काम करने लग जाते हैं, परिणाम स्वरूप वे पूर्व की अपेक्षा और अधिक पतन के गहन गर्त में डूब जाते हैं । चूँकि अहंकार के कारण वे भीतर से द्वेष, घृणा, दुर्गुण, दुर्भाव तथा दुराग्रह से प्रेरित रहते हैं और बाहर से विख्यात, त्यागी, तपस्वी तथा महात्मा बनना चाहते हैं, इस कारण उनका, त्याग-राग में, उनकी महिमा निन्दा में, उनके गुण-अवगुण में परिवर्तित हो जाते है और आगे चलकर वे अधोगति की ओर चले जाते हैं । आसुरी सम्मत जो लोग शास्त्र विधि को त्याग कर अशुभ कर्म करते है, उनको धनधान्य, मान-सम्मान आदि के रूप में कुछ प्रसिद्धि तो अवश्य मिलती है पर आन्तरिक शुद्धि जो वास्तविक सिद्धि है, वह उनको कदापि नहीं मिलती ।
पदार्थों के संयोग से होने वाला सुख-जो दुःखों का कारण है अथवा जिससे दुःख ही दुःख उत्पन्न होते हैं-उन्हें मिल सकता है परंतु पारमार्थिक मार्ग में मिलने वाला सात्विक सुख उनको बिल्कुल नहीं मिल सकता । चूँकि वे भ्रष्टाचार से आई हुई सम्पत्ति से ही श्रेष्ठ आचरण करते हैं । इसलिए उनके अच्छे आचरण भी कुमार्ग में चले जाते हैं, जिस कारण उनको परम गति भी नहीं मिलती । सारांश यह है कि जो लोग अनादि सिद्धांत रूपी शास्त्रों का त्याग करके स्वेच्छा से भोग-विलास में पड़े रहते हैं और परम लक्ष्य के मार्ग पर नहीं चलते वे न आन्तरिक सुख प्राप्त कर सकते हैं, न वाह्म सुख प्राप्त कर सकते हैं और न मोक्ष सुख ही प्राप्त कर सकते हैं ।

“तस्माचछस्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।24।।”


तुम्हारे लिए कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि के अतंर्गत नियत कर्म को ही करने योग्य है – जिन लोगों को अपने प्राणों से मोह होता है वे किसमें प्रवृत्त होना है तथा किससे निवृत्त होना है यह नहीं जानते जिस कारण वे विशेष रूप से आसुरी सम्पदा की ओर प्रवृत्त होते हैं, इसलिए उनको सिद्धि प्राप्ति नहीं होती । इस कारण तू कर्तव्य और अकर्तत्य का निर्णय करने के लिए शास्त्र को ही सामने रखकर तद्नुसार अपने कर्तव्य का पालन कर, क्योंकि मानव जन्म की सार्थकता यही है कि वह शरीर और प्राण की मोह में न फँसकर केवल परम पद की प्राप्ति के उद्देश्य से शास्त्र संगत कर्तव्य कर्मों को करे । चूंकि इस भवसागर में मानव शरीर केवल श्रेष्ठ कर्म करके परम पद को प्राप्त करने के लिए ही मिला है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह इस अवसर को व्यर्थ न जाने दे । सदैव शास्त्र आदेशों का पालन करे ।
जिनकी महिमा शास्त्रों ने गायी है तथा जिनका व्यवहार शास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार होता है ऐसे महापुरूषों, ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं के आचरणों एवं वचनों के अनुसार चलना भी शास्त्रों अनुसार चलना है, क्योंकि उन महान आत्माओं और महान पुरूषों ने शास्त्रों को आदर दिया है तथा शास्त्रों के अनुसार चलने से ही वे श्रेष्ठ पुरूष तथा दिन्य आत्म बने हैं, परम आत्म तत्व को प्राप्त हुए हैं । वस्तुतः उन्हीं सदाचार-कदाचार का निर्णय करने से पूर्व इन अनुभवी शास्त्रकारों के अचल सिद्धांतों को जान लेना चाहिए और तदुपरांत उसका अनुसरण करने के पश्चात् आचार-विचार का निश्चय करना चाहिए ।

शाब्दिक दृष्टि से जो पुरूषार्थ-धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष-की प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम तथा निर्दोष उपायों को बतलाये, साथ ही सीमा के अन्दर अथवा मर्यादा के भीतर रहने की शिक्षा दे वह शास्त्र है। दूसरे शब्दों में जो जड़-चेतन सम्पूर्ण प्राणी जगत के लिए अनेकानेक प्रकार के सर्वोत्कृष्ट कर्त्तव्यों को सिखाए और विभिन्न प्रकार के निकृष्ट कर्त्तव्यों का निषेध करे वह शास्त्र है। इसका सांकेतिक आभिप्राय यह है कि सर्वसाधारण के हित के लिए विधि-विधान बनाने वाले ग्रन्थ का दूसरा नाम शास्त्र है । निष्कर्ष यह है कि क्रम से एकत्र किया गया किसी विषय संबंधी सम्पूर्ण ज्ञान का भण्डार ही शास्त्र है इस प्रकार इतना तो स्पष्ट है ही के शास्त्रों में नीति-नियम, विधि-विधान और कर्तव्य-कर्म होते ही हैं । भारतीय संस्कृति के अनुसार वे ही शास्त्र प्रामाणिक माने गये हैं जो वेदमूलक हैं । चार वेद, चार उपवेद, चार ब्राह्मण, छः वेदांग, छः वेद उपांग, पाँचवा वेद महाभारत और सम्पूर्ण मानव धर्मशास्त्रों में से सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य वाल्मिकी रामायण को पूर्णतः वेदमूलक माना गया है। अन्य धर्मशास्त्रो में बाइबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहब -----इत्यादि प्रमुख हैं । वैसे तो निर्विवाद रूप से जहाँ संदेह होता है वहाँ अन्तरात्मा की प्रवृत्ति ही सत्य का निर्देश करती है । इसका सांकेतिक प्रयोजन यह है कि सत्य-असत्य की परीक्षा के लिए स्वविवेक ही निष्कर्ष है ।
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भूमिका



पूर्वाग्रह का आशय किसी वस्तु अथवा व्यक्ति के बारे में पूर्व निर्धारित आग्रह से है। आग्रह का अभिप्राय किसी वस्तु अथवा व्यक्ति, पद तथा प्रतिष्ठा की उपलब्धि अथवा प्राप्ति हेतु अनुरोध, तथा, परायण, जोर, हल, बल, जिद्द, आवेश इत्यादि से है। इसमें हम किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थान इत्यादि के संबंध में बिना किसी परख या परीक्षण के भली अथवा बुरी धारणा बना लेते है। अपने पारिवारिक, संबंध, जातीय, सामाजिक, राष्ट्रीय, राजनैतिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक व्यवहार में हम कुछ लोगों से बिना किसी परीक्षा किए प्रेम करने लग जाते है । परिणामस्वरूप उसके प्रति या फिर उसका हमारे प्रति सहयोग तथा सहानुभूति की भावनाएँ जागृत हो जाती है। इसके विरूद्ध कुछ लोगों से हम घृणा करने लग जाते हैं । फलतः उसके प्रति अथवा उसका हमारे प्रति असहयोग तथा संघर्ष की भावनाएँ पैदा हो जातीं हैं । इस प्रकार के सत्याग्रह और दुराग्रह को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के लिए न तो वह किसी पूर्व प्रमाण की आवश्यता समझता है और न ही कोई पूर्व परीक्षण की । इसी कारण किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रहों को अपरिपक्व निर्णय की संज्ञा दी जाती है। निराधार, निर्मूल तथा बेबुनियाद होने के कारण पूर्वाग्रहों को अनर्गल प्रलाप, मिथ्या प्रत्यय, सफेद जूठ, कोरी कल्पना और अंध विश्वास भी कहा जाता है ।

पूर्वाग्रह का यथार्थ से सत्यार्थ से तत्वार्थ से तथा वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता । पूर्वाग्रहों को व्यक्ति बिना किसी पूर्व परख अथवा पूर्व परीक्षा के स्वीकार कर लेता है। पूर्वाग्रह अज्ञात, अज्ञान अथवा अनजान पर आधारित है। पूर्वाग्रह संवेगों से संबंधित है। पूर्वाग्रह अनिर्णित विश्वासों पर आधारित है । पूर्वाग्रह अतार्किक होता है, अचेतन होता है, ज्ञानशून्य होता है । दुरात्मा, दुराचारी, दुराग्रही, अड़ीयल, हठी तथा जिद्दी व्यक्ति का सोच-विचार, पठन-पाठन, चिंतन-मनन और संकल्प-विकल्प स्वनिर्णित होता है, स्वमान्य होता है । मुझे अमुक खिलौना मिलना चाहिए, यदि नहीं तो अंतिम झूला भूल जाऊँगा । मुझे अमुक पल चाहिए अन्यथा अमुख फल का सेवनकर जाऊँगा । मुझे अमुक धुआँ होना अन्यथा मौत का कुआँ । मुझे अमुख सुख होना अन्यथा विमुख । मुझे अमुक दुआ होना नहीं तो दवा-दारू । मुझे त्वरित रोग नाशक दवा होना अन्यथा कीटनाशक । ऐसी विकृत सोच-विचार का ही दूसरा है दूराचार, दुराग्रह, पूर्वाग्रह ।

विद्या किसी पाठाशाला, विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय या फिर इसी प्रकार किसी भी शैक्षणिक संस्था द्वारा ज्ञान के किसी विशेष संकाय के अतंर्गत किसी विशेष विभाग के अधीन किसी विशेष विषय में कुछ ज्ञानियों द्वारा कुछ मात्र में प्रदत्त प्राप्तांक सूची है। बुद्धि कामना, मनोरथ, मनमाना अथवा वासना का दासी है। वह दासत्व सेवा करने तथा आज्ञा मानने के अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य नहीं कर सकती । विवेक अमूर्त शक्ति है जो मानव को निष्कर्ष निकालने में सहायता करती है। विवेक के माध्यम से व्यक्ति यह निश्चित करता है कि उसे क्या करना चाहिए अथवा क्या नहीं करना चाहिए । विभिन्न देश, काल और परिस्थितियों में व्यक्ति के समक्ष अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प का चयन करें यह निर्णय विवेक की सहायता से ही किया जा सकता है। परम पिता परमात्मा प्रदत्त, मालिक प्रदत्त या फिर प्रकृति प्रदत्त जलीय, थलीय, नभीय, मानवीय, पाशविक, जीवाण, अणु, परमाणु इत्यादि सम्पूर्ण शक्तियों में विवेक शक्ति सर्वश्रेष्ठ है, सर्वोच्च है, सर्वोपरि है, सर्वोत्कृष्ट है, सर्वोत्तम है। अतएव मानवीय दृष्टिकोण से व्यक्ति के लिए विवेक शक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मानवीय धरातल पर विवेक शून्य व्यक्ति के लिए कोई स्थान सुरक्षित नहीं ।

यथार्थ ज्ञान से मिथ्या मिट जाता है। मिथ्या ज्ञान के मिटने से राग-द्वेष इत्यादि विनष्ट हो जाते हैं । राग-द्वेष के नष्ट हो जाने से व्यसन-प्रवृत्ति विलुप्त हो जाती है व्यसन-प्रवृत्ति लुप्त हो जाने से दुष्कर्मों से भी निवृत्ति हो जाती है। अब जो भी कर्म किये जाते हैं वे केवल कर्म अथवा मात्र कर्त्तव्य कर्म-भावना से प्रेरित होते हैं । ऐसे कर्मों से भाग्य नहीं बनता । भाग्य के न बनने से जनम-मरण भी नहीं होते । जनम-मरण के न होने से सुख-दुख भी नहीं होते । सुख-दुःख की यही निपट-निरा निवृत्ति मानव जीवन का परम लक्ष्य है। तत्वार्थ ज्ञान का प्रमुख उद्देश्य है तत्वार्थ के स्वरूप को समझना । जो तत्वार्थ के स्वरूप को समझ लेता है वह अपने आपको समझ लेता है, आत्म तत्व को समझ लेता है, साथ ही सृष्टि के अन्य रहस्यों को भी समझ लेता है। इस प्रकार तत्वज्ञान ही मानव जीवन को वास्तविक दिशा प्रदान करता है मानव जीवन को यद्व्यवहार की ओर प्रेरित करता है और इसी से प्राणी के लोक और परलोक दोनों सुधरते हैं।

सत्यार्थ को समस्त स्वरूप में देखना अथवा हृदयंगम करना असंभव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है । इस कारण विभिन्न दृष्टिकोण से इसे परखने हेतु वेद-पुराणों, उपवेद-उपनिषदों, काव्य-ग्रंथों, शास्त्र-साहित्यों की रचना हुई है। कुछ रचना परा विज्ञान और कुछ रचना अपरा विज्ञान से संबंधित होते हैं। किसी विशेष उद्देश्य के अनुरूप उनके प्रतिपादक विषय होते हैं। इसी कारण लगभग सभी रचना के प्रतिपाद्य विषय पदार्थ के नाम से सम्बोधित किये जाते है। विषयान्तर्गत शब्दकोष पद को कार्य, काम, कृत्य अथवा कर्म के नाम से सम्मानित करता है। कार्य का जो तात्पर्य होता है काम का जो धाम होता है कृत्य का जो वृत्य होता है, कर्म का जो मर्म होता है, पद का जो अर्थ होता है वही कार्यार्थ होता है, कामार्थ होता है, कृत्यार्य होता है, कर्मार्थ होता है, मर्मार्थ होता है, पदार्थ होता है।

पदार्थों, मर्माथों, कर्माथों, कृत्यार्थो, कामार्थों की परीक्षा के लिए प्रमाणों का निरूपण किया गया है। प्रमाण वह कसौटी है जिस पर कस कर किसी भी बात की सत्यता अथवा उसकी वास्तविकता को परखा जाता है। यथार्थ ज्ञान का साधकतम कारण जिसके उपस्थित होते ही तत्वार्थ ज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है, प्रमाण कहलाता है। प्रमाण के वोधक शब्द है-प्रतीति, विश्वसनीय, सच्चाई, निश्चय, चरितार्थ, सत्यार्थ तत्वर्थ, यथार्थ, पदार्थ इत्यादि । प्रमाण के अनेक साधन हैं, अनेक संधान हैं, अनेक विधि हैं, अनेक विधान हैं, अनेक युक्ति हैं, अनेक पद्धति हैं, अनेक संस्कार हैं, अनेक प्रकार हैं, अनेक आचरण है, अनेक उपकरण है । समझ-बूझकर, सुनकर, सूंघकर, छूकर, चखकर, तुलनाकर, तुलाकर, चिंतन-मननकर किसी भी बात को प्रमाणित किया जा सकता है।

(अ) तर्कशास्त्र के आधार पर कारित,कार्यरत, कार्यार्थों, कार्यकारी अथवा कार्यवाहक पदों, कार्यों अथवा कृत्यों को निम्नानुसार नौ प्रमुख भागों में विभक्त किया जा रहा है-

1. रचना की दृष्टि से - सरल, जटिल तथा कुटिल
2. अर्थ की दृष्टि से - एकार्थक, अनेकार्थक तथा निरर्थक
3. वचन की दृष्टि से - एक वचनीय, बहुवचनीय तथा अवचनीय
4. संगठन की दृष्टि से - व्यक्तिगत, संगठित तथा विघटित
5. स्थिति की दृष्टि से - पदस्थ, पदच्युत तथा पदात्याग
6. अस्तित्व की दृष्टि से - निराकर, साकार तथा विकार
7. स्वभाव की दृष्टि से - आध्यत्मिक तथा आपराधिक
8. संबंध की दृष्टि से - आत्मीय, सम्बंद्ध तथा अलगाव
9. गुण की दृष्टि से - निर्गुण, सगुण तथा अवगुण

(ब) सांख्यशास्त्र के आधार पर कुल पच्चीस तत्वों को अग्रांकित चार वर्गो मं बांटा जा रहा है-

1. न प्रकृति न विकृति-
ऐसा तत्व जो न कारण हो और न कार्य अर्थात् न स्वयं किसी को उत्पन्न करता हो और न किसी दूसरे से उत्पन होता हो ।

2. प्रकृति-विकृति-
ऐसे तत्व जो कारण और कार्य दोनों हों अर्थात् दूरसों को उत्पन्न करते हों ।

3. प्रकृति-
ऐसा तत्व जो कारण हो, किंतु कार्य न हो अर्थात् अन्य सभी को उत्पन्न करता हो,किंतु स्वयं किसी से उप्पन्न न होता है ।

4. विकृति-
ऐसे तत्व जो कार्य हों, लेकिन कारण न हों अर्थात् स्वतः तो दूसरे से उत्पन्न होते हों लेकिन किसी को उत्पन्न न करते हों ।

(स) वैशोषिक दर्शन के आधार पर निम्नांकित पंचकर्म भेद प्रस्तुत किया जा रहा है-

1. उत्क्षेपण –
उत्क्षेपण का अर्थ है, ऊपर की ओर फेंकना, ऊपर जाना, ऊपर उठना, जिस कर्म के द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का ऊपरी प्रदेश के साथ संयोग होता है उसे उत्क्षेपण कहते है दूसरे शब्दों में इसे हम हवाई उड़ान, पांव जमीं पर न पड़ना, चादर से अधिक पांव पसारना भी कह सकते हैं।

2. अवक्षेपण –
अवक्षेपण का अर्थ है नीचे की ओर फैकना, गिराव, अधःपात, नीचेकी ओर गिरना, नीचे कजाना, अधःपतन जिस कर्म के द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का अधोप्रदेश से संयोग होता है उसे अवक्षेपण कहते है, दूसरे शब्दों मेंइस हम अधोगतदि, अवगति, दुर्गति, दुर्दशा अथवा नरक गमन भी कह सकते है।

3. प्रसारण -
प्रसारण का अर्थ है फैलाना, बढ़ाना, विस्तार करना जिस कर्म के द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ के अंग-प्रत्यंगों का दूरवर्ति प्रदेशों के साथ संयोग होता है उसे प्रसारण कहते हैं. दूसरे शब्दों में इसे हम फैलाव, बढ़ाव, तनाव अथवा उत्तेजन भी कह सकते हैं ।

4. आकुंचन-
आकुंचन का अर्थ है संकोचन, चिकुड़न, सिमटन, जिस कर्म द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का शरीर के और अधिक सन्निकट प्रदेश के साथ संयोग होता है उसे सांकुचन कहते है। दूसरे शब्दों में इसे हम संकुचित होना, हिचकना, झिझकना, कुंठित होना, तथा लज्जित होना भी कह सकते हैं।

5. गगन -
गगन का अर्थ है चलन, प्रस्थान, गतिमान। जिस कर्मके द्वारा वस्तु अथवा पदार्थ का चलनात्मक क्रिया के साथ संयोग होता है उसे गमन करते हैं ।दूसरे शब्दों में इसे हम चलायमान, चंचल, अस्थिर, अनिश्चित, असंयमित, असंतुलित, डांवाडोल तथा अठहराव भी कह सकते हैं।

उपरोक्तानुसार वर्णित तथ्यों से स्पष्ट है कि कुटिल, अनर्थक ,अवचनीय, विघटित, पदत्याग, विकार आपराधिक, अलगाव, अवगुण, विकृति, उत्क्षेपण, अवक्षेपण, प्रसारण, आकुंचण, गगन अथवा अठहराव इत्यादि अनेक लगभग समान उत्प्ररेक अथवा उद्वेलक शब्दों की अंतिम दुःखद परिणिति है यत्न साध्य महाप्रयाण बनाम आत्महत्या ।
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कृतघ्न


अन्यों की हत्या करने वाले हत्यारे तो पश्चाताप अथवा यथायोग्य सजा काटकर प्रायश्चित कर सकते हैं किन्तु आत्म-हत्यारों को तो प्रायश्चित करने का मौका भी नहीं मिलता । माना कि किसी ने उन पर अत्याचार किया हो किन्तु उनके सभी अनेक सम्बन्धियों की कृपा उन पर बनी रहती है। उनके द्वारा की गई कृपा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का मौका उन्हें नहीं मिलता। इस कारण वे सदा-सर्वदा के कृतघ्न बने रहते हैं।

एक समय था जब वनग्रामों में ही जीवन था। सही मायने में ग्रामीण अंचलों में ही परस्पर जुड़ाव था, लगाव था, मिलन था अन्यत्र कहीं भीं नहीं । सम्पूर्ण ग्राम्य जीवन एक सामूहिक जीवन दर्शन था । अस्त-वयस्त नहीं मस्त-मस्त था। ग्राम्य प्रमुख की एक व्यवस्था होती थी और ग्रामीणों का जीवन व्यवस्थित होता था। किसी भी समस्या का समाधान केवल साथ मिलकर ही करते थे । सम्पूर्ण ग्राम एक परिवार होता था ।संयुक्तीकरण, समन्वय और सामंजस्य स्थापित करना इनका प्रमुख कर्त्तव्य होता था। केवल समर्पण भाव का ही राज्य था। केवल युक्ति युक्त भक्ति भाव का ही गान था। निरन्तर सेवा भाव का ही प्रचलन थी। प्रागैतिहासिक काल के प्रारम्भिक चरण में जब किसी गाँव की कोई महिला गर्भवती होती थी तब उस गाँव के दूधारू गाय का स्वामी उस गर्भिणी महिला के घर निःशुल्क दूध पहुँचाना अपना कर्त्तव्य समझता था। क्योंकि ग्रामीण आपस में भावनात्मक रूप के जुड़े हुए थे।

धीरे-धीरे नवजात शिशु को जब दूध की आवश्यकता हुई तब उसके लिए निःशुल्क दूध पहुँचाना गोस्वामी अपना कर्त्तव्य समझने लगा । इसका मात्र एक ही कारण था समस्त ग्रामीणों का आपस में भावनात्मक रूप से जुड़ा होना । यही कारण था समस्त ग्राणीणों का आपस करने की प्रवृत्ति देखने-सुनने की भी नहीं मिलती थी। धीरे-धीरे शुल्क सहित शुद्ध दूध मिलने लगा। तदुपरान्त क्रमशः न्यूनाधिक रूप से कृत्रिम दूध भी नसीब नहीं। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि आज भाँति-भाँति के रासायनिक दूध का बाजार गर्म है। इसी गर्म जोशी में दूध दूषित होने के कारण लोगों की भावनाएँ भी दूषित हो गयी है और आत्महत्या न करने की प्रकृति दूषित होकर आत्महत्या करने की ओर तेजगति से अग्रसर हो रही है।

कृषि का व्यवसायीकरण कृषकों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर रहा है। कृषि आज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का साधन नहीं है। आज सरकार किसानों के साधारण जीवन शैली से सन्तुष्ट नहीं है। आज शासन अधिक अन्न उपजाओ का नारा देकर ऋण के ऊपर ऋण घर-घर पहुँचा रहा । आज किसानों को अपने पेट भरने के लिए अन्न-उत्पादन करने की आवश्यकता नहीं, अपितु राष्ट्र के नागरिकों के पेट भरने के लिए अधिक अन्न अत्पादन करने की आवश्यकता है। इस कारण शासन कृषकों को हरेक प्रकार के साधन उपलब्ध कराने के लिए कृत संकल्प है। फलतः कृषि के क्षेत्र में प्रत्येक साधन के लिए ऋण क्रमशः ऋण पर ऋण; कभी न समाप्त होने वाले ऋण । आज लगभग प्रत्येक कृषक का प्रत्येक अंग ऋण ग्रस्तता का शिकार है।

जहाँ तक फसल बीमा का सवाल है - कृषक के तमाम खेतों के लिए फसल बीमा नहीं किया जाता । जहाँ सिंचाई का साधन है वहीं का फसल बीमा किया जाता है। केवल 60 प्रतिशत उत्पादन को 100 प्रतिशत उत्पादन माना जाता है। फसल बीमा युक्त खेत पर फसल न होने से फसल बीमा का मुआवजा नहीं मिलता अपितु तहसील स्तर पर यदि वह तहसील अकाल ग्रस्त होने की स्थिति में मुआवजा मिलता है। केवल एक कृषक ही नहीं, बल्कि गाँव के समस्त कृष्कों का सकल खेत भी सूख कर राख हो जाय तो भी इसका हर्जाना केवल उन कृषकों को ही भुगतना पड़ता है। शासन का इससे कोई लेना देना नहीं । किसान चाहे माथा फोड़े अथवा सर कटाये, फाँसी चढ़े या फिर जहर खाये।

देश के विकास में हाथ बटाने के लिए भारतीय कृषक अधिकाधिक अन्न उत्पादन हेतु ऋण पर ऋण लेने के कारण कभी-कभार उस पर भारी हीन हीं बहुत भारी ऋण हो जाता है और फसलों के दाम गिर जाने अथवा फसल चौपट हो जाने के कारण एक स्थिति बन जाती है कि गन्ना कटाई अथवा फसल कटाई यहाँ तक फसल तोड़ाई (मिर्ची, मूँग,टमाटर) का खर्च भी वसूल नहीं हो पाता। इस स्थिति में लागत व्यय का सवाल तो कोसों दूर की बात है। इन परिस्थितियों में मुनाफा प्राप्ति की तो सपना भी नहीं देख सकते। और कोई चारा न रहने के कारण किसान खेत बेचने पर मजबूर हो जाता है। जब शत-प्रतिशत खेत से दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव नहीं थी तब कुछ कम खेत से पूर्ति कैसे सम्भव है ? फलतः निरन्तर खेत विक्रय की प्रकृति और अन्ततः सब-कुछ समाप्त होने के पश्चात् इस पिण्ड की आहूति या पिण्डत्याग अथवा आत्महत्या ।

इस धरातल पर ईश्वर प्रदत्त श्रेष्ठत्तम अधिकार यदि कोई है तो वह है शरीरी रहना अथवा तन धारण करना। देह धारण कर आजीवन जीवन-यापन करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के शब्दों में जिस प्रकार स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। जीना हमारा हक है। हमें अपने हक को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जिस प्रकार हम अपने घर-गृहस्थी, मकान-दूकान, खेत-खलिहान का एक टुकड़ा भी छोड़ना परंद नहीं करते ठीक उसी प्रकार हमें अपने शरीर को भी छोड़ना पसंद नहीं करना चाहिए । जान है तो जहान है। आज तिथि तक जीतने भी आत्महत्या विषयक मौत के मुँह से बच कर नई जिन्दगी शुरु किये हैं उनमें से लगभग सभी को पछताना है कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यो किया ?

लोकनायक जयप्रकाश नारायण के शब्दों में जिस प्रकार समग्र क्रान्ति का नारा है - भावी इतिहास हमारा है, ठीक उसी प्रकार हमें भी समग्र संघर्ष का नारा देना है । असफलता का एक मात्र कारण है प्रयास में कमी । हमें भरसक प्रयास करना है मुँह मारने वालों को मुँहतोड़ जवाब देने के लिए। थोड़ा सा मुस्करा दोगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा ? मुस्करा दिए। थोड़ा सा हँस दोगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा ? हँस दिए और हँसे कि फँसे । फाँसी पर चढ़ने से पूर्व का यही एकमात्र मूल मंत्र है। आ बैठ मेरे पास और थोड़ा था मुखड़ा देखने दोगी तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा ? इतना कह देना मात्र बहुत दूर की बात हो गई । अब हम हाँ कहें या नहीं । इससे फर्क नहीं पड़ता । प्रथम चरण में मुस्कराना ही फँसना-फँसाना है। मुखड़ा ही नहीं मुखड़े के बोल भी हर हाल में आक्रामक होना चाहिए, केवल आक्रामक, संघर्षमय, क्रान्तिकारी । तभी हम इस बेदर्दी ज़माने से लोहा ले सकते हैं। अन्यथा जीवन अँधकारमय । घुटन-ही घुटन। पछतावा-ही पछतावा।

जहाँ तक वस्त्राभूषण का सवाल है - वस्त्र के रूप मे केवल एक लंगोटी नुमा परिधान और आभूषण के रूप में मात्र एक लाठी। एक महान अधिवक्ता के जुबान में केवल राम-राम अधिक हुआ तो ‘रघुपति राघव राजा राम’ । इससे और कम क्या हो सकता है ? हम में इन सबसे तो अधिक है ही। फिर काहे की चिन्ता ? ध्यान रहे चाह ही दुःख का कारण है। यह हुआ तो वह और वह हुआ तो पुनः वह। इस वह-वह की चाह कभी पूर्ण नहीं होती। इसलिए न चाहना ही ठीक। यह भी नहीं और वह भी नहीं।कोई चाह नहीं तो फिर दुःख काहे का । कोई दुःख नहीं, कोई कष्ट नहीं, कोई घुटन नहीं, कोई टूटन नहीं तो फिर फाँसी का फँदा कैसे ? कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी जर्जर अवस्था में भी जीवन की कामना करते हैं। उन्हीं के शब्दों में –

इस सुन्दर सृष्टि से विदा लेकर मैं मरना नहीं चाहता, मानवों के बीच रहते हुए मैं और “जीना चाहता हूँ।”

सुभाष चन्द्र बोस का एक नारा आज भी विद्यमान है- “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा।” यह केवल खून और आजादी से सम्बन्धित नारा नहीं है। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार इसका भावार्थ अथवा तत्त्वार्थ समझना चाहिए । न केवल इसी नारे का अपितु लगभग सभी महापुरुषों के नारों का भी केवल शब्दार्थ ही नहीं, अपितु तथ्यार्थ भी समझना चाहिए ।

विषयान्तर्गत अभी हम केवल सुभाष बाबू के ही शब्दों को लेते हैं। कुछ क्षण के लिए हम मान भी लेते हैं कि हम खून नहीं दे सकते और हमें आजादी नहीं चाहिए। तो फिर हम किसी को दो मिर्ची तो दे सकते हैं। दो नहीं सिर्फ एक सही । एक तुलसी पत्ता तो दे सकते हैं। एक पुदीना पत्ता तो दे सकते हैं। एक मीठी नीम की पत्ती तो दे सकते हैं। दे के तो देखें । हमें इतना सकून मिलता है कि हम उसका बखान नहीं कर सकते । मात्र एक मुट्ठी चावल किसी पात्र को देकर तो देखें। हमें इतना चैन मिलता है कि हमारे पास वे शब्द नहीं जिससे हम उसका वर्णन कर सकें। केवल एक मुट्ठी दाना बिखेर कर तो देखें । चिड़ियों के चुगने पर हमें कितना आनन्द मिलता है ? आजमायें तो सही। परखना तो सीखें । परीक्षण तो करें। अधिक दिन प्रतीक्षा दिन प्रतीक्षा करने की आवश्यकता बिल्कुल नहीं । निकट भविष्य में ही हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि मात्र एक-एक पत्ता और केवल एक-एक मुट्ठी दाना ने मूलतःहमारी प्रवृत्ति बदल दी है। हमें देने का अभ्यास हो गया हो गया है। अब हम केवल देना ही जानते हैं। लेना बिल्कुल नहीं। अब हम केवल प्राण देना ही जानेंगे प्राण लेना बिल्कुल नहीं चाहे वह अपने आपका भी क्यों न हो। अब हम जीवन जीना ही जानेंगे जीवन लेना कदापि नहीं, कथमपि नहीं; हरगिज नहीं।

धरा हमसे सम्पूर्ण भार लेकर आधार देती है,
सूरज खुद तपकर हमें जीवन दायिनी शक्ति देता है,
जल जल-भुनकर बदली बनकर जल आगार देता है,
वृक्ष अंगार ओढ़कर बाँह पसारे छाँह देता है,
तब हमें इन सबको मात्र बाँह पसारे राह क्यों नहीं देना चाहिए
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