Friday, March 9, 2007

विधि-विधान


यहुदियों में आत्महत्या की घटनाएँ अत्सन्त विरल हैं। यहुदियों के कानून के अनुसार आत्महत्या करना पापपूर्ण और अक्षम्य कृत्य है । जो आत्महत्या करते हैं उनको सम्मानपूर्ण रूप से दफन किये जाने का अधिकार नहीं मिलता । उनकी मृत्यु पर किसी को शोक करने का भी अधिकार नहीं दिया गया है ।

आत्महत्या मस्तिष्क का खेल नहीं मस्तिष्क के साथ संघर्ष है । वुद्धि के साथ अशुद्धि है। बौद्धिक दुष्कुति है । आत्महत्या वस्तुतः मानव मस्तिष्क की कमजोरी का दुष्परिणाम है । अज्ञानता एवं दुर्बलता के कारण जब व्यक्ति जीवन से, जीवन की वास्तविकताओं से अथवा जीवन की वास्तविक समस्याओं से डरकर अपने जीवन को समाप्त कर देता है तब उसे स्वयं के द्वारा स्वयं की हत्या अथवा आत्महत्या कहते हैं । दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, अपने जीवन के प्रति मोह समाप्त हो जाता है, साथ ही उसकी मरने की इच्छा तीव्र हो जाती है और जब व्यक्ति द्वारा प्रकृति प्रदत्त अंतकाल से पूर्व कृत्रिम साधनों के माध्यम से अपने आप को नष्ट कर दिया जाता है तब वह आत्महत्या कहलाता है ।

मृत्यु तो एक शास्वत सत्य है जिसे एक दिन स्वतः आना ही है । इसलिए समय पूर्व जीवन-लीला समाप्त करने विष्यक भरसक प्रयास अनावश्यक ही नहीं निरर्थक भी है । व्यक्ति को अपने जीवन में आने वाली तमाम चुनौतियों से संघर्ष करने हेतु यथाशक्ति साहस और दृढ़ता के साथ हरसंभव सार्थक प्रयास करना चाहिए । कर्तव्य के फूल में ही अधिकार के फन लगते हैं । इस कारण व्यक्ति को कर्तव्य पालन प्रति पूर्ण निष्ठा के साथ समस्त चुनौतियों के सामने ताल ठोककर खड़ा होना चाहिए और निरन्तर जीवन निर्वाह पथ की ओर अग्रसर होना चाहिए। शरीर त्याग की ओर नहीं, कतई नहीं, क्योंकि आत्महत्या अपने विद्या, बुद्धि और विवेक के प्रति किया गया अत्याचार है। आत्महत्यारे यह समझने की कोशिश ही नहीं करते कि संघर्ष का नाम ही जिन्दगी हार से ही शिक्षा लेकर उसकी नींव पर खड़े होकर भी जीत हासिल की जा सकती है। अतएव एन-केन-प्रकारेण पूर्णायु तक जीना ही सर्वोत्कृष्ट विजय है और समय पूर्व जीवन को हार जाना ही सबसे निकृष्ट पराजय।

जिस प्रकार प्रत्येक सिक्के के दो पहलू होते हैं, प्रत्येक वस्तु के दो स्वरूप होते हैं, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में परस्पर विरोध दो विचार सदैव प्रवाहित होती रहती हैं। अच्छा बुरा, उचित-अनुचित, सच्चा-झूठा, सत्य-असत्य, अमीरी-गरीबी, साधन सम्पन्न-साधन हीन, जिद्दी-भावुक, कठोर-लचीला, जोशीला-नशीला, आशावादी-निराशावादी उपेक्षित-सम्मानित, सामूहिक-अकेलापन, लाभ-हानि, हार-जीत, वृद्ध-युवा, स्वार्थी-परमार्थी इत्यादि-इत्यादि । वही मन एक तरफ सोचता है कि सफल रेल यात्रा उपरान्त मंजिल तक पहुंचना सुनिश्चित है और वही मन दूसरे तरफ सोचता है कि यदि कोई दुर्घना घट गई तब इसका दुष्परिणाम अंग-भंग, अपंग-अनाथ, कष्ट-पीड़ा और दर्द-वेदना लगभग तय है । जीवन में कभी न कभी ऐसे क्षण निश्चित रूप से आ जाते हैं जब इनमें से किसी एक का चुनाव और दूसरे का त्याग करना ही पड़ता है और जब दोराहा में खड़ा व्यक्ति किसी एक राह का चुनाव कर कुछ दूरी पार कर लेता है तब उसके लिए पुनः पीछे लौटकर दूसरे पथ की ओर कदम बढ़ाना लगभग नामुमकिन हो जाता है।

वस्तुतः व्यक्ति की नासमझी अथवा समझ की गलत तरीका का एक प्रकार से निष्फल है - आत्महत्या । जो व्यक्ति समझ लेता है कि उसका जीवन निरर्थक है, उसका तन-मन-धन और मन-वचन-कर्म कभी स्वस्थ नहीं रह सकता । सार्थकता की अनुभूति न होने की स्थिति में वह जिन्दगी को एक बोझ की तरह ढोता है और उस नीरस-निरानन्द स्थिति में सचमुच ही जीवन का बोझ बहुत भारी पड़ता है। मानसिक पराधीनता व्यक्तित्व विकास के लगभग सभी दरवाजा बन्द कर देती है। विवेक को बिकसित होने का अवसर न मिलने के कारण वह व्यक्ति अवांछित स्थिति में रहने और उसी में दम तोड़ने के लिए विवश हो जाता है। अत्यधिक जिद्दी और बेहद हठी विचारधारा को भी किसी और पर बलपूर्वक थोपना कि हमारी ही बात मानी जाए निर्विवाद रूप से बौद्धिक अत्याचार है। अपना जीवन तो अपना है ही किसी अन्य का जीवन भी अपना है। केवल उसी के सुख-सुविधाओं के लिए अन्य प्राणी मात्र की रचना की गई है। यदि उनकी पसंद नहीं करता तो फिर उनके जीवन का क्या लाभ ? ऐसी मनोकामना पूर्ण न होने की दशा में घुटना महसूस करना, कुण्ठित होना और अपने जीवन को निस्सार एवं निरर्थक मसझकर फांसी के फंदे को गले लगाना किसी भी दृष्टिकोण से मानव सभ्यता का विकास नहीं ।

इस मृत्यु-लोक में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा, जिसने बेहद निराशा के क्षणों में कभी न कभी अपनी जिन्दगी से ऊब महसूस न की हो। यह स्वाभाविक है कोई विशेष बात नहीं । हरेक प्राणी अपने जीवनकाल में कभी न कभी, कहीं न कहीं अपना रास्ता भूल जाता है। यदि दुबारा ऐसी ही पलायनवादी मानसिकता बनती है, तब यह निश्चित रूप से चिंतनीय है। जिस प्रकार गुप्त रोग का इलाज गोपनीयता भंग करने से ही संभव है ठीक उसी प्रकार जिन्दगी के प्रति अत्यधिक निराशा, गहन हताशा, खुद से नफरत व बेचैनी इत्यादि मनोमालिन्यता को अधिकाधिक सहेलियों, सहपाठियों, सहप्रशिक्षार्थियों, सहकर्मियों, निकट संबंधियों, इष्ट मित्रों एवं अन्य सहयोगियों के समक्ष भी उजागर करना चाहिए। यदि तीसरी बार ऐसी ही कायरतापूर्ण कुविचार मन को झकझोरता है तब आप बिना किसा रूकावट के, बिना किसी सलाह मंत्रणा के, बिना किसी पूछताछ के किसी मनोरोग चिकित्सक का पता पूछें और समय पर पहुंचकर उससे मदद लें । यदि आप किसी अन्य के खाने-पीने, सोने-जागने एवं चाल-चलन में बदलाव देखें, यदि वह व्यक्ति अपने प्रियजनों से या प्रिय वस्तुओं से लगाव न रखे, आत्महत्या संबंधी बातें करें, आत्महत्या करने संबंधी इरादा जाहिर करें, आत्महत्या की योजना बताये, आत्महत्या की धमकी दे तब आपका यह मानवीय कर्तव्य है कि ऐसे लोगों की बातें ध्यान से सुनें और उन्हें किसी मनोरोग विशेषज्ञ के पास ले चलें, क्योंकि आत्महत्या एक प्रकार का मस्तिष्क रोग भी है, मानसिक विकार भी है।

इस आराम तलबी दुनिया में बिना महेनत के हम सब अधिकाधिक सुख शांति चाहते हैं मंगनी में दूध मिले तो भैंस कौन पाले ? आज प्रत्येक व्यक्ति को अलाउद्दीन का चिराग चाहिए। अलाऊद्दीन नाम का एक काल्पनिक आदमी रास्ते की धूल फांकता रहता था। एक दिन अचानक उसके हाथ एक मनगढ़ंत चिराग लग गया । उसकी विशेषता यह है कि उसे रगड़ते ही एक जिन्न प्रकट होकर सवाल करता है कि क्या हुक्म है मेरे आका ? फिर अलाऊद्दीन के आदेश का उस जिन्न द्वारा अक्षरशः पालन होता है। उसके जुबान में नहीं नाम का कोई शब्द है ही नहीं। अलाऊद्दीन उस जादुई चिराग को प्राप्त कर सब कुछ प्राप्त कर लेता है और सर्वश्रेष्ठ धनी, सर्वाधिक सुखी तथा अन्तर्राष्टीय ख्याति प्राप्त महात्मा बन जाता है। वैसे तो यह अनोखा दीपक कपोल कल्पना ही है, परन्तु वस्तुतः इसी प्रकार की अन्य दीपशिखा असंभव नहीं। सर्वेश्वर ने इस प्रकार का अद्धुत दीया बनाकर प्रत्येक मानव की सेवा में प्रस्तुत किया है। इसे प्राप्त करने हेतु मनुष्य मात्र के लिये अपने अन्तरात्मा को जगाने की नितान्त आवश्यकता नहीं। वस्तुतः चमत्कार नामक शब्द कोई जादू की पिटारी से नहीं निकला। यह एक परिश्रम साध्य वस्तु है, जिसे कोई भी कर्मनिष्ठ व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। यथायोग्य परिश्रम से मनोवाछित फल की प्राप्ति तो अवश्यंभावी है। अप्राप्ति या असफलता का कारण है परिश्रम या मेहनत की कमी । इसलिए हमें बिना किसी टीका-टिप्पणी के चिंतन-मनन और अध्ययन करना चाहिए । केवल स्वविवेक से लगन के साथ भगीरथ प्रयत्न करना चाहिए। कभी न मिलने वाला तथाकथित काल्पनिक दीपक उपलब्ध न होने पर भी आत्महत्या नहीं, कदापि नहीं।


आत्महत्या नैतिक पतन की अंतिम दुष्परिणति है और और चरित्र मानव को देवत्व प्रदान करने वाली संजीवनी घूटी है । एक सर्वव्यापी सर्वकालिक और सर्वविदित सूक्ति है कि यदि आप अपनी धन-सम्पन्नता से वंचित हो जाते हैं तो आपने कुछ नहीं खोया है, यदि आपके स्वस्थ्य की क्षति हो जाती है, तो आपकी कुछ हानि हुई है ओर यदि आपका चरित्र नष्ट हो जाता है तो आपका सर्वनाश हो जाता है। चरित्र का अर्थ सामान्यतः मात्र यौन संबंधों से ही लगाया जाता है, किन्तु यह अत्यन्त संकुचित अर्थ है। वस्तुतः मन, वचन एवं वाणी संबंधी समस्त क्रियाकलाप ही नहीं, व्यक्ति की चेतना विकास भी उसके चरित्र का अंग है। आचरण का संबंध धन-सम्पदा सदृश लौकिक उन्नति के सात बहुत कम होता है, उसका संबंध जीवन के मूल्यों के साथ अधिक रहता है। निर्विवाद रूप से जीवन-मूल्य, मानव-जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, धरोहर है, अमानत है। अतएव इसको हमेशा दृढ़ता व्यापकता और पूर्णता प्रदान करना चाहिए। जिस प्रकार अग्नि में तपने से सुवर्ण अपेक्षाकृत और अधिक निखरता है, ठीक उसी प्रकार वासनाओं को दमन करने, कठिनाईयों को जीतने, कष्टों को झेलने और दुःख दर्दों को सहन करने से चरित्र सुदृढ़, सर्वोच्च और निर्मल होता है। इसलिए चाहे जो मजबूरी हो व्यक्ति को पूर्णायु तक जीना ही चाहिए।

वर्तमान मानव अपने अभाव से त्रस्त्र नहीं, दुनिया के वैभव से त्रस्त्र है। वह वस्तु या चीज, सुख-सुविधा, रिश्ते-नाते, मान-सम्मान, कद्रदानी या मेहरबानी उनके पास है, हमारे पास नहीं और निकट भविष्य में मिलने की संभावना भी नहीं, शायद आजीवन न मिले। इसलिए क्या करें ? जीवन रक्षा हेतु रोटी, तन ढकने हेतु कपड़ा और सर छूपाने हेतु मकान की कमी हो तो एक बार कोई बात समझ में आती है, मगर नहीं, यह भी चाहिए और वह भी चाहिए। तमाम भौतिक सुख-सुविधाएं हमारे लिए ही है इसलिए उनका उपभोग हम ही करेंगे । वे क्यों करें ? रोटी मिला तो कपड़ा चाहिए, कपड़ा मिला तो मकान चाहिए, मकान मिला तो दुकान चाहिए, दुकान मिला तो किरायेदार चाहिए, और इनके से कोई एक नहीं मिला तो आत्महत्या । छोटी नहीं वर्तमान से बड़ी स्कूल, डिग्री, नौकरी चाहिए नहीं तो आत्महत्या । परिवार से पृथक उद्योग-धंधे चाहिए, उद्योग-धंधे से पृथक बीबी चाहिए, बीबी की कमाई से पृथक कालाधन चाहिए, लेकिन फिर भी घाटा तब आत्महत्या। हे मालिक। पडौ़सी का खजाना डकैतों से खाली करा दें और सोने के ईटों की वर्षा मेरे आंगन में करा दें। हे सर्वेश । पड़ौसी को सौ लड़की दे दे और मुझे केवल एक होनहार लड़का । यदि जाने-अनजाने कहीं सर्वेश्वर ने हमें 4-6 लड़कियां दे दी तो फिर सामूहिक आत्महत्या। वर्तमान विश्व समाज में उक्त विकृत तथ्यों को गलती से दुनियादारी मानने की परम्परा लम्बे अरसे से चली आ रही है, जो वास्तव में भौतिक अनाचार है।

आप मत करो विश्वास उस पर, जो आपने सुना है । आप स्वयं विश्लेषण करो। आप स्वयं विश्वास निर्मित करो और उस पर विश्वास करो। यही सुनिश्चित है, वास्तविक है, यथार्थ है, क्योंकि वह स्वनिर्मित है। जन्म से कर्म अधिक आदरणीय है। सम्माननीय है। प्रकाशनीय है। इसलिए कमरे से बाहर आइये । दुनिया के समक्ष अपना उज्जवल मुखड़ा दिखाइये। लटका हुआ मुखड़ा नहीं, झुलता हुआ चेहरा नहीं, खून से लथपथ मृतकाय नहीं, काला-कलूटा शव नहीं। अपने लिए न सही दूसरों के लिए । अपनों के लिए न सही परायों के लिए । देस के लिए न सही विदेस के लिए । स्वजाति के लिए न सही मानव जाति के लिए। जिस प्रकार भौंरा फूलों की रक्षा करते हुए मधु को ग्रहण करता है । जिस प्रकार गाय स्वयं दूध नहीं पीती तथा अपने बछड़े को ही नहीं पिलाती, अन्य प्राणियों के लिए भी दूध देती है और मधुमक्खी अन्य प्राणियों के लिए मधुरस निर्माण करता है, ठीक उसी प्रकार स्वार्थ के लिए न सही परमार्थ के लिए ही सही इस जीवन को हरहाल में नष्ट न करें।

आत्महत्या शारीरिक द्रोह है, देह द्रोह है, अंगद्रोह है। आप एक मुर्गी को फांसी पर लटका कर देख सकते हैं कि वह किस कदर फड़फड़ाती है, तड़फड़ाती है ? आप कैसे मान सकते हैं कि फांसी पर लटकने वाला व्यक्ति मृतु पूर्व तड़फता नहीं होगा, इससे स्पष्ट है कि शरीर के लगभग प्रत्येक अंग आत्महत्या विरोधी है। आखिर कौन है जो जान-बूझकर योजनाबद्ध तरीके से हरेक अंग के सामूहिक विद्रोह को भी बलपूर्वक दबाकर उन्हीं के माध्यम से आवश्यक सामग्री जुटाकर क्रमशः आत्महत्या को अंतिम रूप देता है ? वह है दूषित मन, हताश मन, अशांत मन, बैचेन और कुंठित मन । माना कि हमें जलने या जलाने का कोई अनुभव नहीं, शांति का कोई स्थान नहीं। उसके सामीप्य में जलन, तपन, तड़पन, कोलाहल और कराह-ही-कराह है। दो-चार घंटा नहीं चार-छः माह । यदि उसी सप्ताह प्राणांत हो गया तो फिर शव-परीक्षण, अंग-भंग, चीर-फाड़ आदि। दुर्गंध और बीभत्स स्वरूप को स्वीकार ने करें तो भी आत्महत्या के देहद्रोह तो स्वीकारना ही पड़ेगा।

मानव क्षणभंगुर या नाशवान प्राणी है, मगर अंतरात्मा से वह सदासर्वदा के लिए जीवित रहना चाहता है। उसने अजर-अमर रहने के लिए सर्वसंभावित उपाय ढूंढ़ा है, ढूंढ रहा है और आगे भी ढूंढता रहेगा। उसने अमृत की खोज की है, तंत्र-मंत्र जप-तप और पूजा-अर्चना का सहारा लिया है और आज भी विश्वविख्यात बड़े-बड़े वैज्ञानिक ऐसे उपायों की खोज में लगे हैं, परन्तु उनको इस दिशा में सफलता मिलने संबंधी कोई आशाजनक लक्षण दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, लेकिन फिर भी मानव हार मानने वाला प्राणी नहीं है । वह मृत्यु पर विजय प्राप्त करने में विफल रहा, पर विवाहके माध्यम से परिवार के सृजन कर सन्तानोत्पत्ति द्वारा उसने मानव जाति को अमरत्व प्रदान कर दिया । संतान द्वारा अपने आपको सुरक्षित रखना ही नहीं वरन् वंशवृद्धि करना भी प्राणीजगत का सार्वभौम नियम है और उसका पालन करना संतान का परम कर्तन्य । ऐसी परिस्थिति में यदि कोई संतान आत्महत्या करता है तब वह अपने आपके साथ, परिवार के साथ और मानव जाति के साथ विश्वासघात करता है। मनुष्य संतानों के माध्यम से अपने आप का प्रसार करता है। पिता के अंग-अंद ते खून-पसीने से तत्क्षण निर्मित शुक्राणु से ही सन्तान की उत्पत्ति होती है। इसी कारण सन्तान को पिता का प्रतिरूप माना जाता है। इस प्रकार मनुष्य जाति की सुरक्षा और विकास के लिए भी अपना स्वरूप या सन्तान उत्पन्न करना नितान्त आवश्यक है। इस दशा में भी यदि कोई सन्तान आत्महत्या करता है। तो वह आत्महत्यारा ही नहीं कहलाएगा, बल्कि परिवार और मानव जाति का हत्यारा भी कहलाएगा।

निःसन्देह हम हिमालय की तराई में नहीं बसते, जहाँ साधु-सन्तों, ऋषि-मुनियों को किसी अन्य से कोई मतलब नहीं रहता । उनका परमलक्ष्य मोक्ष प्राप्ति होता है, जिसके लिए वे वर्षों तक धुनी रमाए कठोर तपस्या करते रहते हैं । उनका जीवन पूर्णतः व्यक्तिगत होता है। इसलिए हमारे लिए उनका कोई कर्त्तव्य नहीं होता, मगर हम सामाजिक प्राणी हैं । फलतः हम सामाजिक दायित्वों से बंधे हैं तथा राष्ट्रीय भावना से जुड़े हैं । परस्पर पारिवारिक सम्बन्ध के कारण अभी भी हममें माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन, सास-बहू, ससुर-दामाद, जाति-समाज का कर्त्तव्य बोध विद्यमान है। तो फिर जहर का प्याला या ज्वाला का कहर क्यों ? नींद की गोली या गोली बंदूक की क्यों ? फाँसी का फंदा या आत्महत्या का धंधा क्यों ? जो आप पढ़ रहे हैं वह किसी और न लिखा है। जिस पर आप बेठे हैं उसका निर्माण किसी और न किया है। जिस पर आप सोये हैं उसका प्रणेता कोई और है। जिस पर आप खड़े हैं उस धरातल का विधाता कोई और है। आपको किसी और ने भू-तल पर पाँव जमाना, चलना-फिरना, पढ़ना-लिखना, चिन्तन-मनन, सोच-विचार करना सिखाया है । आज दिनांक तक हम किसी अन्य पर आश्रित रहे हैं और आगे भी रहेंगे। सामाजिक प्राणी होने के नाते हम प्रत्येक क्षण परस्पर सहयोग दे रहे हैं या ले रहे हैं। सारा देश ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व हमारे जीवन को सुगन बनाने हेतु किसी न किसी रूप में अत्यन्त कठोर परिश्रम कर रहा है। हमारे लिए जो यह सब कर रहे हैं उनके लिए हमें कुछ भी नहीं करना चाहिए, यह कैसी मानसिकता है ?






साधारण अर्थों में अपराध एक ऐसा कार्य होता है जो सार्वजनिक अधिकारों और व्यवस्था को भंग करता है तथा समस्त समाज को प्रभावित करता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि अपराध एक असंवैधानिक कार्य होता है जिसके करने अथवा जिसका लोप करने से जन-सामान्य समाज एवं राष्ट्र को क्षति पहुँचती है। अर्थात् यह एक सार्वजनिक अपकार माना जाता है। आत्महत्या एक असंवैधैनिक कार्य है जिसके करने से परिवार-जन, समाज व राष्ट्र को आर्थिक क्षति पहुँचती है इस कारण इसे आर्थिक अपराध माना जाता है। लालन-पालन, पढ़ाई-लिखाई, वस्त्रभूषण, ऐश-व-आराम, शिक्षण-प्रशिक्षण, पद व प्रतिष्ठा प्राप्त करते तक व्यक्ति माता-पिता परिवार-समाज, निगम-संस्थान प्रदेश-राष्ट्र का बेहिसाब धनराशि बरबाद कर चुका होता है। परिणामस्वरूप यदि कोई जीवात्मा अपने जीवन के किसी भी उम्र में आत्महत्या करता है तो वह किसी न किसी का कर्जदार रहता ही है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आत्महत्या आर्थिक अपराध है। इसके अतिरिक्त यदि आप सन्तान हैं तो इस नसबंदी के जमाने में माता-पिता कहाँ जायें और यदि आप माता-पिता है तो इस महँगाई के जमाने में बच्चे कहाँ जायें ? यदि आप निर्माता-निर्देशक हैं तो कलाकारों को पारिश्रमिक कौन देगा और यदि आप कलाकार हैं तो निर्माता-निर्देशक को मुफ्त में कलाकार कौन देगा ? पारिश्रमिक तो आप अग्रिम में ले चुके थे।पूरी न सही आधी सही । आधी न सही एक चौथाई सही। निःसन्देह आप आत्महत्यारे के अलावा आर्थिक अपराधी भी कहलाएँगे-इसमें कोई दो राय नहीं।

वस्तुतः अपराधी को दण्डित करना राष्ट्र का पावन कर्त्तव्य है। दण्ड किसी भी अवैध कृत्य का वैध परिणाम है। यदि राष्ट्रध्यक्ष अपराधियों को यथोतित कठोर दण्ड से प्रताड़ित नहीं करता तब वह पशुता को बल प्रदान करता है। अपराधी को सुधारने तथा पुनः उसी दुष्कर्म को न करने की प्रेरणा देने हेतु उसे दण्डित किया जाता है। इसलिए अपराधी को सजा देना जायज है। भारतीय दण्ड संहिता का धारा 309 के अनुसार आत्महत्या करने का प्रयास करनाकिसी भी भाँति से, मात्र एक वर्ष के कारावास या जुर्माना या दोनों से दण्डनीय है। इस धारा के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त द्वारा आत्महत्या के लिए प्रयास किया गया हो तथा उसका कार्य प्रयत्न की कोटि आ सकने वाला हो।

अतएव स्पष्ट है कि जिस प्रकार वैश्यावृत्ति, जुआ, सट्टा, जोरी, डकैती, लूट, छूरेबाजी, खून या हिंसा करना वैधानिक जुर्म नहीं, पकड़ाना और साबित होना वैधानिक जुर्म है, ठीक उसी प्रकार आत्महत्या स्वयं कोई अपराध नहीं। आत्महत्या करने का प्रयत्न करना अपराध है। पकड़ना अपराध है। यह एक ऐसा दुष्कृत्य है जो सफल या पूर्ण हो जाने पर दण्डनीय नहीं होता, क्योंकि उस अवस्था में अपराध करने वाला व्यक्ति दण्ड-सीमा से बाहर पहुंच जाता है, जहां तक वारंट, हथकड़ी या इस मृत्युलोक का विधान नहीं पहुंच सकता तथा साथ ही दण्ड विधि का उद्देश्य भी पूरा हो जाता है। हकीकत में आत्महत्या स्वतः किया गया आपराधिक मानव हत्या है। इसलिए हत्यारे को चाहे वह आत्महत्यारा ही क्यों न हो पकड़ाने तथा प्रमाणित होने पर सजा तो मिलनी ही चाहिए। ब्रिटेन मै सन् 1745 से ही आत्महत्या को अपराध घोषित किया गया है और उन देशों में भी जहाँ कभी इंगलैण्ड का शासन रहा। पश्चिम में 19 वीं शताब्दी में आत्महत्या को पाप और अपराध से भी अधिक लज्जाजनक करतूत समझा गया।

यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद -21 के तहत दिये गये जीने के अधिकार में मौत का अधिकार शामिल नहीं है, इसलिए आत्महत्या का प्रयास करना अथवा इसमें सहायता देना भारतीय दंड संहिता की धारा -309 और 306 के तहत अपराध ही माने जायेंगे । भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा है कि भारतीय दण्ड संहिता के ये दोनों प्रावधान भारतीय सविधान के अनुच्छेद -14 कानून का नजर में समानता और अनुच्छेद -21 जीने के अधिकार का उल्लंघन नहीं करते इसलिए वैध है। न्यायमूर्ति जे एस. वर्मा की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय अन्य चार न्यायाधीश थे-व्यायमूर्ति जी.एन.राय, न्यायमूर्ति एन पी.सिंह, न्यायमूर्ति फैजनउद्दीन और न्यायमूर्ति जी.पी. नानावटी । न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने छह अपीलों पर निर्णय देते हुए यह फैसला सुनाया। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में मुम्बई उच्च न्यायालय, दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ही पूर्व में दिए गए उन फैसलों को रद्द कर दिया है जिनके तहत भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 को असंवैधानिक माना गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के कउस निर्णय पर सहमति व्यक्त की है जिसमें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 309 की संबैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया था ।

यहाँ यह नितान्त प्रासंगिक है कि दैनिक समाचार पत्र ‘नवभारत ’-रायपुर संस्करण, रविवार, दिनाँक-18 जुलाई, 1999 पृष्ठ क्रमांक-4 में नियमित स्तम्भ – विश्व परिक्रमा के अंतर्गत एक समाचार प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है- ‘इच्छामृत्यु की अपील नहीं मानी गयी ।’ तदनुसार लंदन : ब्रिटेन में एक किशोरी हृदय रोग से इतना परेशान थी कि उसने इच्छामृत्यु की अपील की, जबकि डॉक्टरों का कहना था कि हृदय के प्रत्यारोपण से वह जिन्दा रह सकती है। अन्त में मामला अदालत तक पहुँचा और हाइकोर्ट ने फैसला सुनाया कि वह ऑपरेशन को मना नहीं कर सकती है। अंततः उस साढ़े पन्द्रह साल की किशोरी को अपने हृदय का प्रत्यारोपण कराना पड़ा । अब वह किशोरी धीरे-धीरे अस्पताल में स्वस्थ हो रही है। निष्कर्ष यह है कि न केवल भारत में अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी आत्महत्या एक दण्डनीय अपराध है।
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