Friday, March 9, 2007

इतिहास


ईसाइयत इतिहास के पूर्व काल में आत्महत्या पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया था किन्तु चौंथी शताब्दी के समय चर्च ने आत्महत्या के विरोध का रूख अपनाना प्रारम्भ किया । धीरे-धीरे जीवन को समाप्त करने का अर्थ यह लगाया जाने लगा कि ईश्वर की दी हुई वस्तु का वह निरादर कर रहा है।

ईसा पूर्व 500 में प्राचीन ग्रीस में आत्महत्या को शर्मनाक करतूत माना जाता था। आत्महत्या के माध्यम से मृत शरीर का अंतिम संस्कार उन विधि-विधान तथा रीति-नीति के अनुसार नहीं किया जाता था जैसा कि प्राकृतिक रूप से हुई मृत्यु होने पर होता था। उस समय यह समझा जाता था कि जीवन देने और लेने का अधिकार केवल भगवान को ही है। आत्महत्या के माध्यम से जीवन को स्वयं समाप्त करना भगवान से विद्रोह करना है। इसी कारण इस स्थिति में मृत व्यक्ति को इसके दुष्परिणाम स्वरूप दैवी प्रकोप तो झेलना ही पड़ेगा।
ईसा पूर्व 424-322 में प्लेटो का कथन था कि मनुष्य केवल भगवान की संतान ही नहीं है वह उनका एक सिपाही भी है और आत्महत्या करने का अभिप्राय है कि वह सेना का भगोड़ा है । उसका निश्चित अभिमत था कि आत्महत्यारा शरीर को एक सुनसान स्थान पर बिना किसी सम्मान के दफनाया जाए जहाँ उसकी कब्र पर कोई स्मारक न बनाया जा सके ।
ईसा पूर्व 384-322 में अरस्तू ने भी आत्महत्या को मातृभूमि से विश्वासघात करना कहा था, क्योंकि जीवन देश के लिए होता है और आत्महत्या करके व्यक्ति नागरिक के कर्तव्य की अवहोलना करता है। ईसा पूर्व लगभग 300 में जेनो ऑफ सिरियम ने ग्रीस में ‘स्टोइक’ सम्प्रदाय की स्थापना की थी जो एक दार्शनिक सम्प्रदाय था। ‘स्टोइकों? का अभिमत था कि व्यक्ति औरों के लिए जीवित रहने को कर्त्तव्यबद्ध है।

“रज्जुशस्त्र विषैर्वापि कामक्रोधवशेन यः।
धातयेत्स्मयमात्मानं स्त्री वा पापेन मोहिता ।।

रज्जुना राजमार्गे तां चण्डालेनापकर्षयेत्।
न श्मशानविधिस्तेषां न संबंधिक्रियास्तया।।

बन्धुस्तेषां तु यः कुर्यात्प्रेतकार्यक्रियाविधिम्।
तद्गतिं स चरेत्पश्चात्स्वाजनाव्दा पभुच्यये ।।”
कौटिल्य का अर्थशास्त्र-/7/82

“जो व्यक्ति काम व क्रोध के वश में होकर रस्सी, शस्त्र एवं विष से अपने आप को मार डाले या कोई महिला किसी पाप के कारण आत्महत्या कर ले तो चण्डाल उसे रस्सी से बांध कर सड़क पर खींचे । उनको न श्मशान में जलाने दिया जावे तथा न उनकी लाश उनके संबंधियों को दी जावे। जो बान्धव आत्मघाती की प्रेत क्रिया आदि करे तो उसे अपनी जाति से च्युत करवा दे या फिर मरने के पश्चात् राजा उसे भी इसी तरह घसीटवाये।”

“इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका”ने सारांश में ‘आत्महत्या’ को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “आत्महत्या अपनी इच्छा से तथा जानबूझ कर किया गया आत्म हनन है। इसी प्रकार” श्री एम.ए. इलियट एवं श्री एफ.इ.मेरिल ने भी परिभाषित किया है कि – आत्महत्या वैयक्तिक विघटन का दुःखद एवं अपरिवर्तनशील अन्तिम परिणाम है। यह व्यक्ति के दृष्टिकोणों में होने वाले उन क्रमिक परिवर्तनों का अन्तिम स्तर है जिनमें व्यक्ति के मन में जीवन के प्रति “मावनीय प्रेम के स्थान पर घृणा उत्पन्न हो जाती है।”

मैसाचुसेट्स स्थित कैंब्रिज अस्पताल के मनोश्चकित्सक “जान मैक” का मत है कि “आत्महत्या की गुत्थी सुलझाने में सभी प्रकार के रोग निदान निष्फल सिद्ध हुए हैं । आत्महत्या करने वाले कुछ लोग मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ होते है, किन्तु अधिकांश व्यक्ति नहीं ।” “फ्रायड” का कहना था कि “किसी प्रिय वस्तु के न मिलने पर उत्पन्न क्रोध को अपने ऊपर ही उतारने के कारण लोग आत्महत्या करते हैं ।” एक अध्यात्मचेता मनोवैज्ञानिक डॉ. अब्दुल एस. दलाल के अनुसार “मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आत्महत्या गहन अवसाद की अभिव्यक्ति है।”

जीव विज्ञानियों का विचार है कि मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन पैदा होने पर आत्महत्या की जाती है। समाजशास्त्री पारिवारिक विघटन जैसे किसी सम्बन्ध के अभाव को आत्महत्या का कारण बताते हैं। कुछ पादरियों का मत है कि आस्था समाप्त हो जाने के कारण व्यक्ति आत्महत्या करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से आत्महत्या उस भागवत सत्ता का अपमान जिसने जगत में अपने कार्य की पूर्णता के लिए मनुष्य को जीवन का उपहार दिया है।
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