Friday, March 9, 2007

उपसंहार



निद्रा का अभिप्राय नींद होता है, जिसमें मन की गतिविधियाँ रूक जाएँ, मन निष्क्रिय हो जाए अर्थात् सुख, चैन व शांति के साथ अत्यन्त आराम तलब गहरी नींद को निद्रा कहते हैं । यदि हम सपने देख रहे हैं तो फिर हम निद्रा की स्थिति में नहीं स्वप्न की स्थिति में ही हैं। स्वप्न की स्थिति वास्तव में जाग्रत अवस्था और सुषुप्त अवस्था के बीच की स्थिति होती है। इस बीच की स्थिति में न तो हम ठीक से जाग रहे होते हैं और न ठीक से सो रहे होते हैं। जब हम सोने की कोशिश करते हैं तब हमें पहले झपकी आती है, जिसे तन्द्रा कहते हैं। यह जागरण से निद्रा में प्रवेश करने से पहले की अवस्था होती है। इसमें हम अधजगे से तथा अधसोये से रहते हैं। जब हम जाग्रत अवस्था की समाप्ति तथा निद्रा अवस्था के प्रवेशद्वार पर होते हैं तब हम स्वप्न की स्थिति में होते हैं। तन्द्रा अधजगी स्थिति में स्वप्न वाली स्थिति है और स्वप्न अधसोई स्थिति की तन्द्रा होती है, न स्वप्न होते हैं और न मन । मन के न होने से हमें अपने आपके होने का ख्याल नहीं रहता, क्योंकि ख्याल तभी रहते हैं जब मन सक्रिय रहता है। ख्याल करने का ही नाम मन है। मन नहीं तो ख्याल नहीं या फिर यों कहें कि ख्याल नहीं तो मन नहीं । हम जब गहरी नींद सोकर जागते हैं तब स्फूर्ति तथा तरो-ताजगी का अनुभव करते हैं। मन की इस चौथी वृत्ति निद्रा के अनुसार उचित समय पर उचित अवधि तक गहरी नींद सोना शरीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए बेहद जरूरी है।

जन्म का प्रयोजन गर्भ से निकलकर जीवन धारण करना अथवा अस्तित्व में आना, उत्पत्ति आविर्भाव या पैदाईश होता है और ‘आत्महत्या’ का दुष्प्रयोजन होता है-पूर्णायु से पूर्व अनुचित तरीके से अपने आप को मार डालना । मृत्यु का आशय पूर्णायु पश्चात् विधाता द्वारा निर्मित विधि से प्राणों का शरीर से निकल जाना है और पुनर्जन्म का तात्पर्य है मरने के बाद फिर से दूसरे शरीर में जन्म ग्रहण करना या पुनः दूसरा शरीर धारण करना । अतएव तलनात्मक दृष्टिकोण से हम तन्द्रा को जन्म,स्वप्न को ‘आत्महत्या’ या प्रेतयोनि, निद्रा को मृत्यु और जागरण को पुनर्जन्म की अवस्था कह सकते हैं।

एक प्रकार से शरीर आत्मा का कारावास है। एक नियत काल तक कारावास की सजा प्राप्त कैदी यदि इस बीच कैदखाने से भाग जाता है तो वह कारागृह से मुक्त नहीं हो जाता, वह कारावास के नियमों को नष्ट करने के चक्कर में इधर-उधर जहाँ कहीं भी भटकता रहता है, उसे सभ्य समाज का कोई भी व्यक्ति व परिवार आश्रय नहीं देता । जब वह दुबारा पकड़ा जाता है तब उसे अपने पूर्व प्राप्त सजा के साथ ही जेल के नियमों को तोड़ने के एवज में नियमानुसार और अतिरिक्त सजा साथ-साथ भोगने हेतु अपेक्षाकृत और अधिक कष्टप्रद कारागृह की कालकोठरी में डाल दिया जाता है।

जब मनुष्य ‘आत्महत्या’ करता है तब उसकी आत्मा कुछ समय बाद चैत्य लोक अथवा चैत्यतरू (पीपल, अशोक या फिर अन्य कोई वृक्ष) में जाकर तब तक विश्राम करती है, जब तक कि मृत्युलोक पर एक दूसरे शरीर में जन्म लेने का समय नहीं आ जाता। इसी को प्रेतयोनि भी कहते हैं शरीर व्यक्ति के लिए एक अद्भुत दुर्ग है, जो सूक्ष्म शरीर को अन्य लोकों में निवास कर रहे विभिन्न प्राणियों के कूर व कठोर आक्रमणों से बचाता है। एक बार शरीर से बाहर जाते ही आत्मा के लिए एक भयानक खतरा उत्पन्न हो जाती है, जिसमें सम्भव है कि वह दीर्घकाल तक भटकती ही रहे।

हमारी आत्मा कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, कुछ विशिष्ट अनुभवों की प्राप्ति के लिए, कुछ सीखने व कुछ प्रगति कर गुजरने के लिए इस मृत्युलोक में आती है। उस नियत कार्य को पूरा करने से पहले यदि कोई व्यक्ति अपने शरीर को नष्ट कर देता है तो उसे अपेक्षाकृत और अधिक बुरी देश, काल और परिस्थितियों के साथ उस नियत कर्म की निष्पत्ति तक उसे बारम्बार जन्म लेना पड़ता है, जिससे छुटकारा पाने के लिए उसने ‘आत्महत्या’ का रास्ता अपनाया था। दूसरे शब्दों में ‘आत्महत्या’ करने का फल उन्हीं कठिनाईयों को अपेक्षाकृत और अधिक प्रतिकूल तथा नकारात्मक परिस्थितियों में पुनः प्राप्त करना है, जिन कठिनाईयों को उसने पूर्व जीवन-काल में हल नहीं किया था। पुनः-पुनःअन्यान्त जीवन में इसी धरती पर बारम्बार लौटकर उसे इन कठिनाईयों के बोझ को ढोना ही पड़ता है। अवरोधक को पार करने के उपरान्त ही जीवन-चक्र अपनी मंजिल की ओर गतिमान होता है।

हम वचनबद्ध हैं कि परम पिता परमात्मा द्वारा प्रदत्त प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करने के लिए ।अथक परिश्रम और घोर तपस्या प्राप्त 84 लाख योनियों में से सर्वोत्त्म मानव तन को त्यागकर किसी व्यक्ति विशेष, परिवार समाज, संघ, दल या देश विशेष को फायदा पहुँचना तो बहुत दूर की बात है, हम स्वयं के साथ भी न्याय नहीं कर पाते। हम स्वर्ग में ही नहीं नरक में भी प्रवेश से वंचित हो जाते हैं। हम नरक लोक से भी वीभत्स उस प्रेत लोक में प्रवेश पाते हैं जहाँ स्वरोपित वृक्ष के अलावा अन्य पेड़-पौधे अरनी छाया तले क्षण मात्र भी विश्राम करने की इजाजत नहीं देते । इस पेड़ से उस पेड़, इस डगाल से उस डगाल भटकने वाली प्रतात्मा की छबि किसी भी आईने में स्पष्ट रूप से उभर नहीं सकती । रूप चाहे जैसा भी हो, मानव मुखड़ा भूत-प्रेत से उज्जवल तो होगा ही। इसलिए तरीका चाहे जो भी हो ‘आत्महत्या’ अशोभनीय ही नहीं गृणित भी है। इसके अतिरिक्त लक्ष्य प्राप्ति तक या फिर पूर्णायु तक इन्हीं समस्याओं के साथ बारम्बार पुनर्जन्म तय है तब हम कुल कितने बार नींद की गोली खायेंगे ? कभी न कभी तो जहर का प्याला कड़ुआ बनेगा ही। तो फिर इसी जन्म में इसी शरीर और इसी न्यायालय से न्याय प्राप्त करने में क्या बुराई है ?

सर्वविदित है कि समय को संस्कृत में काल एवं अंग्रेजी में टाइम कहते हैं। वह संबंध सत्ता, जिसके द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्य की प्रतीति होती है उसे काल कहते हैं। काल का शाब्दिक अर्थ होता है समय, अवधि, अवसर, मौका, मृत्यु, अंतकाल, यमदूत, यमराज आदि। समय के उलट-फेर को ही काल चकक्र के नाम से संबोधित करते हैं। यहां यह प्रासंगिक है कि काल गणना के अनुसार एक चक्रयुग अथवा एक महायुग में चार युग होते हैं। तदनुसार सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग की आयु क्रमशः 1728000, 1296000, 864000 और 432000 वर्ष है। ईसा पूर्व 3100 से कलियुग प्रारम्भ हुआ है और वर्तमान ईसवी सन् 2007 चल रही है। अर्थात कुल मिलाकर मात्र 5106 वर्ष कलियुग बीता है और अभी 426894 वर्ष शेष है।

जिस युग में राजा दण्डनीति का शत-प्रतिशत याने सौ प्रतिशत क्रियान्वयन करता है उसे सतयुग कहा जाता है। इस युग में सत्य की अपने आप विजय होती है। इस युग में शत प्रतिशत खाद्यान्न स्वतः उत्पन्न होते हैं इसलिए सौ प्रतिशत उत्पादन को कुल उत्पादन माना जाता है। जिस युग में राजा दण्डनीति के तीन चौथाई अथवा तीन बंटे चार (3/4) अंशों का क्रियान्वयन करता है, उसे त्रेतायुग कहते हैं। इसमें सत्य पर विजय प्राप्त करने के लिए संघर्ष भी करना पड़ता है। इस युग में जोतने-बोने मात्र से ही तीन चौथाई खाद्यान्न उत्पन्न होते हैं। इसलिए 75 प्रतिशत उत्पादन को कुल उत्पादन मान लेते हैं। जब राजा दण्डनीति के दो चौथाई अथवा एक बटे दो (2/4या ½) भाग का क्रियान्वयन करता है तब उसे द्वापर युग के नाम से सम्मानित किया जाता है। इस युग में सत्य संदिग्ध हो जाता है। राज्य दो भागों में विभक्त हो जाता है। कपट की विजय होती है और खून की नदियां बहाने के बाद अंततः सत्य की विजय होती है। इसमें जोतने-बोने, सामयिक मेहनत और पर्याप्त श्रम के बाद भी दो चौथाई खाद्यान उत्पन्न होता है, इसलिए 50 प्रतिशत उत्पादन को ही कुल उत्पादन मानना पड़ता है। जब राजा समूची दण्डनीति का परित्याग कर अयोग्य उपायों द्वारा प्रजा को कष्ट देने लगता है तब उसे कलियुग का नाम दिया जाता है। इस युग में सत्य विलुप्त हो जाता है और दसों –दिशाओं में झूठे, धोखेबाज तथा नालायकों का साम्रांज्य स्थापित हो जाता है। इस युग में लाख प्रयत्न करने के बाद भी सत्य की विजय नहीं होती । सत्य की विजय का तात्पर्य है कलियुग की समाप्ति और सतयुग का प्रारंभ । इस युग में खण्डवृष्टि, अल्पवृष्टि तथा अतिवृष्ट तो होती ही है, इसके अलावा रात-दिन अधिकाधिक परिश्रम व विभिन्न पद्धतियों से जोताई-बोआई, निंदाई-गुड़ाई बोआई-सिंताई करने के बाद भी केवल कहीं-कहीं मात्र एक चौथाई खाद्यान्न उत्पन्न होता है। इसलिए केवल 25 प्रतिशत उत्पादन को ही कुल उत्पादन समझकर कलियुगीन मानव जाति को संतोष करना पड़ता है।

विद्यामान लेखन व प्रकाशन कालावधि ईसवी सन्2006 की स्थिति में यहाँ यह पुनः प्रासंगिक है कि कलियुग की पूर्णायु में से अभी मात्र 5106 वर्ष ही बीता है और अभी 426894 वर्ष शेष है। अर्थात् अभी केवल 1.18 प्रतिशत ही व्यतीत हुआ है और 98.82 प्रतिशत बचा हुआ है। अब प्रश्न उठता है कि वर्तमान में कलियुग ने जब मात्र 1.18 प्रतिशत ही अपना प्रभाव दिखाया है और जब हम इसी से तंग आकर आत्महत्या करने लगे हैं तो तब क्या करेंगे जब कलियुग अपने अन्तिम चरण में रहेगा ? एतएव काल गणना के अनुसार 25 प्रतिशत दण्डनीति के पालन को पूर्ण न्याय मानते हुए वर्तमान संदर्भ में एक सामान्य व्यक्ति के लिए यदि राजा अथवा प्रशासक इस कलियुग में दण्डनीति का कुल मिलाकर 23.82 प्रतिशत परिपालन करता है और 76.18 प्रतिशत उल्लंघन तो वह पूर्णतः न्याय करता है। यदि समाज हमें 76.18 प्रतिशत बाहिष्कृत करता है और अपरादी थी हमें 76.18 प्रतिशत प्रताड़ित करते हैं तो ठीक करते हैं। यही समय की मांग है और यही वक्त की पुकार ।

अतएव हमें मात्र 23.82 प्रतिशत दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं से ही जीवन निर्वाह करना पड़ेगा। इसलिए हमें अभी अपनी वर्तमान शारीरिक व मानसिक शक्ति तथा आत्मबल को 76.18 प्रतिशत और अधिक बढ़ाना है, ताकि हम दैनिक आवश्यकताओं की अन्य वस्तुएं उपलब्ध कर सकें। हमें अभी अपनी सम्पूर्ण क्षमता में 76.18 प्रतिशत की वृद्धि करनी होगा, ताकि हम अपने व्यकितगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं प्रशासनिक समस्याओं का समाधान कर सकें। हमें अभी अपनी अन्तरात्मा को इतना अधिक प्रबल बनाना है कि वह इस मृत्युलोक के 76.18 प्रतिशत अन्याय, अत्याचार, अपराध, दुष्कृत्य तथा पाप को सहन कर सके। हमारी मानसिकता को वर्तमान में 76.18 प्रतिशत आधात झेलने के लिए तैयार रहना ही है। निराश होकर, कायर होकर, आशंका या भय के कारण शरीर को त्याग देना एक प्रकार से पराज.य स्वीकार करना है। इसे हम जीवन द्रोह भी कह सकते हैं । ऐसी ‘आत्महत्या’ अथवा देहद्रोह, देशद्रोह के समान ही दण्डनीय अपराध है, इसलिए इसकी सर्वत्र निन्दा करनी ही चाहिए।

वर्तमान मानव स्वर्ग जाने का इच्छुक नहीं बल्कि स्वर्ग को इस धरती पर उतारने का इच्छुक है। प्रकृति मानव की कृत दासी बनी हुई है । अत्याधुनिक वैज्ञानिक किस क्षण क्या लेकर उपस्थित हो जाएं कोई नहीं बता सकता । एक समय था जब टी.बी. कुष्ठ रोग, हैजा तथा चेचक जैसी बीमारियों को असाध्य रोग समझा जाता था और तत्कालीन चिकित्सा जगत के पास इनका कोई इलाज ही नहीं था। आज ये लगभग सामान्य बीमारी जैसी ही है। अतएव निःसंदेह आज जो रोग हमें असाध्य लगते हैं वे कल साध्य भी हो सकते हैं। इन परिस्थितियों में मृत्युवरण जैसे कुंठित विचारधाराओं को प्रोत्साहन देने का कोई ओचित्य नहीं है।

आज हमारे वैज्ञानिक कैंसर तथा एड्स जैसे अनेक असाध्य रोगों को साध्यि बनाने की दिशा में अनेकानेक शोध कार्य कर रहे हैं, साथ ही जनमानस में नीत-नवीन ज्योति प्रज्जवलित कर रहे हैं। इसके बावजूद यदि इतनी जल्दी हथियार डाल देने से एक तो व्यक्तियों में घोर निराशावादी दृष्टिकोण पैदा हो जाएगा और दूसरा विभिन्न रोगों के निदान हेतु कार्यरत अनुसंधान कर्ता हतोत्साहित होंगे । वर्तमान में चिकित्सा जगत के पास एक से एक दर्दनाशक टेबलेट, केप्सूल एवं इंजेक्शन हैं जिस कारण आज स्थिति यह है कि मरीजों के लिए असहनीय यंत्रणा के अवसर आने की कोई गुंजाइश है ही नहीं। अतएवं चिकित्सकों द्वारा मरीजों को आत्महत्या हेतु सहायता दिया जाना इस शालीन तथा स्वस्थ व्यवसाय के प्रति विश्वासघात व कुठाराघात के अलावा कुछ नहीं है। यह न केवल चिकित्सा व्यवसाय संहिता के विपरीत है वरन अवैधानिक तथा अमानवीय भी है।

चलिए कुछ क्षण के लिए मान भी जाते हैं कि ‘आत्महत्या’ का अधिकार होना चाहिए। अब हमें इसे वैध घोषित करने के लिए विधिवत मानदण्ड का निर्धारण तो करना ही पड़ेगा । सबसे पहले बीमारी को लें, क्योंकि बीमार व्यक्ति सर्वाधिक पीड़ित होता है। अद्भुत किन्तु पूर्णतः सत्य है कि पागल ‘आत्महत्या’ करना नहीं चाहते । यह इस बात से स्पष्ट है कि पागल अपेक्षाकृत बहुत कम या यों कहें कि लगभग नहीं के बराबर ‘आत्महत्या’ करते हैं, तो इन्हें आत्महत्या का अधिकार देना इनके इच्छा के विरूद्ध होगा और मानसिक रूप से मानसिकता के लिए घोर अन्याय । चूंकि प्रबुद्धजन अपेक्षाकृत अधिक ‘आत्महत्या’ करते हैं, इसलिए बुद्धिमान या प्रतिभासम्पन्न व्यक्तियों को ‘आत्महत्या’ का अधिकार देना तर्कसंगत नहीं और मूर्ख तो मूर्ख हैं ही । उन्हें क्या मालूम दयामृत्यु किस चिड़िया का नाम है ? इसके बावजूद वे भी नहीं चाहते-दयामृत्यु । अब इनकी इच्छा के विरूद्ध इन्हें ‘आत्माहत्या’ का अधिकार देना वास्तव मै दयामृत्यु कहां हुआ ? इसके अलावा बंदर के हाथ में उस्तरा देना कहां की बुद्धिमानी है ? यदि हम बहुमत के आधार पर मानदण्ड नियत करें तो एक सर्वेश्रण के अनुसार भारत में प्रतिदिन मात्र। 1-33 प्रतिशत लोग ‘आत्महत्या’ करते हैं और शेष 98.67 प्रतिशत लोग प्राकृतिक मौत मरते है । अब हम अति अल्पमत की इच्छा के आधार पर प्रचंड बहुमत का निरादर कैसे करें ? इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘आत्महत्या’ किसी भी दृष्टिकोण से न्यायसंगत नहीं।

मानव इस प्रकृति की श्रेष्टतम रचना है, इसलिए इस समाप्त करने का अधिकार प्रकृति के अलावा और किसी को नहीं होना चाहिए। स्वयं को भी नहीं । जब हम में किसी मृतात्मा को जीवन दान देने की क्षमता नहीं, तब हमें किसी जीवात्मा अथवा स्वयं का जीवन लेने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए। यदि मनुष्य को अपनी इच्छानुसार मृत्युवरण का अधिकार दे दिया जाए तो बाह्य रूप से दूसरों की दया पर आश्रित एवं अशक्त व्यक्तियों के लिए तथाकथित सुखमय मृत्यु तो होगी, लेकिन इससे आंतरिक कलह पैदा हो जायेगी । यदि ऐसा अधिकार प्राप्त हो गया तो न केवल पारिवारिक, सामाजिक व राष्ट्रीय बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारी विषमता पैदा हो जाएगी । इससे मनुष्यों में मृत्यु से अंतिम दम तक संघर्ष करने की क्षमता का लोप हो जाएगा। अभावग्रस्त, असहाय तथा वृद्धजनों का मृत्यु संख्या में अचानक वृद्धि हो जाएगी। ‘आत्महत्या’ के प्रकरण तो बढ़ेगा ही साथ ही विभिन्न स्वार्थी तत्वों तथा अपराधियों को किसी की हत्या करने का इससे अच्छा और कोई बहाना नहीं मिलेगा। तात्पर्य यह कि दयामृत्यु से स्वयं की इच्छापूर्ति कम और स्वार्थी तत्वों की इच्छापूर्ति अधिक होगी।

अब रहा सवाल कर्मचारी या अधिकारी काम नहीं करना चाहते, कोई भी गृहणी गृहकार्य करना नहीं चाहती अब यदि इनके न चाहने पर इन्हें अपने कर्तव्य पालन से छूट दे दी जाए तो क्या होगा ? लिखने की आवश्यकता नहीं। जुआड़ी भी खुले मैदान में खेल भावना का प्रदर्शन करना चाहता है, पाकिटमार भी असंख्य दर्शकों के बीच अपनी कतरन कलाकारी दिखाना चाहता है और देह व्यापारी तो अपना सर्वस्व दान करने हेतु उतावले हैं ही। यदि इन्हें चाहने पर जहां कहीं भी अपनी इच्छा प्रदर्शित करने का अधिकार दे दिया जाए तो अन्य व्यवसायिकों को अपनी पलकें बंद करनी पड़ेगी और लेखक को अपनी लेखनी।
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