Friday, March 9, 2007

गमनागमन


(विदेश से सदेह की ओर)

वनांचल स्थित एक तावाब के निकट एक छोटा सा गाँव बसा था। उस गाँव में एक छोटा सा कृषक परिवार निवास करता था। सास-ससुर और बेटा-बहु बस कुल चार सदस्य। सास का नाम ‘रमा’, ससुर का नाम नरेश, बहु का नाम दिव्या और बेटा का नाम राजेश था । खेती-किसानी की दृष्टि से सास-ससुर दोनों थक चुके थे ! या यों कहें कि श्रम –परिश्रम की दृष्टि से दोनों सेवा-निवृत्त हो चुके थे। लेकिन सास की जबान अब तक नहीं थकी थी। उसकीजबान कैंची की तरह जबरदस्त चलती थी। विशेष कर बहु पर तो और भी अधिक तेज रफ्तार से । जहाँ तक खेती-किसानी का प्रश्न है सास-ससुर के स्थान पर बेटा-बहु प्रतिस्थापित हो चुके थे।

राजेश रोजाना सूर्योदय पूर्व अपनी कर्मभूमि खेत की ओर चल पड़ता था और सूर्यास्त पश्चात घर वापस आता था। खेती गाँव से काफी दूर था इसलिए बार-बार आने-जाने में उसे असुविधा होती थी इसी कारण वह केवल सुबह जाता था और साँझ ढले वापस आता था। इस बीच दिव्या रोजाना दो बार पूर्वान्ह जलपान और मध्यान्ह भोजन पहुँचाने खेत जाती-आती थी । इसके अतिरिक्त दिव्या को घर के सारे काम करने पड़ते थे। इसके बावजूद दिव्या को उपहार स्वरूप सास की अनेकानेक सीख सीखनी पड़ती, बर्तन-भाड़, मँजाई-धुलाई, सास-ससुर को नहलाना-धुलाना, कपड़ा-लत्ता धोना रँधाई-कुटाई इत्यादि-इत्यादि घर के सारे काम दिव्या के ही सिर पर । उपर से यदि कोई ठीकरा फोड़ना हो तो वह भी दिव्या के ही सिर पर । इतना ही नहीं, और भी; क्रमशः अधिकाधिक। विशेषकर सास की साफ-सुथरी छबि बहु की पूर्व निर्धारित समय-सारिणी पूर्णतः ध्वस्त कर देती थी। यहाँ भाड़ू ठीक से नहीं लगा, वहाँ की लिपाई ठीक से नहीं हुई, यह बर्तन ठीक से साफ नहीं हुआ, वह कपड़ा ठीक से नहीं धुला आदि-आदि । इसका सीधा-सादा अर्थ यह है कि लगभग प्रत्येक काम को दोबारा करना। इस भागमभाग जीवन में सम्पूर्ण घर का काम केवल एक व्यक्ति द्वारा सिर्फ एक बार ही कर लेना ही जी का जंजाल है तब फिर उन्हीं काम को दोबारा करना तो अति है ही। अत्यन्त कष्टप्रद, भारी तकलीफ देह, घुटन भरी जीवन लेकिन क्या करे बेचारी ? इसलिए यही उसकी गति और यही उसकी नियति; यही उसकी जिन्दगी और यही उसकी बंदगी।

दिव्या अपने पति राजेश के साथ कृषि कार्य करने के लिए तीसरी बार दोपहर पश्चात खेत जाया करती थी। तीन-तीन बार खेत आने जाने में काफी समय बर्बाद हो जाता था। इसका दुष्प्रभाव कृषि कार्य पर पड़ता था। कृषि कार्य में राजेश अन्य ग्रामीण भाइयों से पिछड जाता था। इस कारण उसने अपनी पत्नी से कहा कि आज के बाद तुम मेरे लिए मध्यान्ह भोजन लाने के साथ-ही –साथ तुम्हारे लिए भी मध्यान्ह भोजन लेते आना। हम दोनों मध्यान्ह भोजन साथ-साथ लेंगे। कम से कम एक बार आने-जाने के समय का बचत करके हम उस समय का सदुपयोग कृषि कार्य में करेंगे और ऐसा करके हम कृषि कार्य विषयान्तर्गत अन्य ग्रामीण भाईयों के साथ-साथ चलेंगे । तुम सूर्यस्त से एक घंटा पूर्व घर चली जाना और घर का काम काज करना। इस सद्-बुद्धियुक्त समय-सारिणी को पत्नी भी मंजूरी मिलते देर नहीं लगी। इस प्रकार दोनों राजी-खुशी से अपना जीवन निर्वाह करने लगे।

इधर सास को यह दिनचर्या मंजूर नहीं। पूरा-पूरा चार घंटा वह भी मात्र दिन के समय में पति के साथ गुजारना सास को गँवारा नहीं हुआ। कतई नहीं। हरगिज नहीं । एक दिन बहु सूर्यास्त से लगभग एक घंटा पूर्व उस दिन के लिए अनावश्यक कृषि साज-सामानों अथवा कृषि औजारों को लेकर घर पहुँची सास के मुँह में तो पूर्व से ही खुजली हो रही थी । वह आग बबूला हो गयी।उसने अपना भड़ास निकाली। आव देखी न ताव और कहा-यहाँ सब काम अधूरा छोड़कर पति के साथ रंगरलिया मनाने खेत चली जाती है। यहाँ घर का काम कौन करेगा ? एक नौकर रखकर जाना अपने ससुर के लिए, जो मेरे काम में भी हाथ बटायेगा और एक नौकरानी छोड़ आना अपने पति के लिए जो मेरे बेटे के काम में हाथ बटायेगी और सून ! इन दोनों का भुगतान तुम्हारा बाप करेगा । यहाँ यह साफ नहीं वह साफ नहीं । दाल गीली। भात में बजरी। रोटी अधपकी। सब्जी रख छोड़ी ही नहीं। सब खा गयी । ठीक से काम नहीं करना है और केवल खाना-पीना है तो चली क्यों नहीं जाती अपने बाप के घर या फिर चुलू भर पानी में डूबकर मर क्यों नहीं जाती है।

सास के समक्ष दिव्या की जुबान हिलती तक नहीं थी। बोलना तो कोसों दूर की बात है। वह मन मसोस कर रह गयी । वैसे अन्दर ही अन्दर उसके हृदय में क्रोधग्नि भभक रही थी। उसके आँखों के सामने अँधेरा छा गया था। वह उल्टे पाँव घर से बाहर निकली। उसे कहाँ जाना है स्वयं को मालूम नहीं था। लेकिन चल रही थी। रास्ता नापते-नापते उसे एक तलाब दिखा। उसे सास की कही चुलू भर पानी में डूब मरने वाली बात याद आई । वह तालाब किनारे अपना बोझा उतारी और पानी में प्रवेश की । पता चला कि पूरे तालाब में कहीं भी घुटनों से अधिक पानी नहीं। चुलू भर पानी में डूब मरने सन्बन्धी फार्मूला से वह अनभिज्ञ थी अब वह वापस आयी अपने बोझा के पास । उसमें उसे नागर का जोतार भी दिखा। जोतार अर्थात् हल के जुड़े से बैलों के गले को बाँधने वाली रस्सी । इसे वह उस दिन के लिए अकाम कृषि औजारों के साथ खेत से लेकर आयी थी। वह उस बोझा को ढोते हुए पुनः राह नापते आगे बढ़ी । आगे उसे एक बड़ा वृक्ष दिखा। उस पेड के नीचे वह अपना बोझा उतारकर एक पत्थर पर बैठ गई। वहाँ वह उस जोतार को निकाली और फँसियाने के लिए रस्सी तैयार करने लगी। बाप दिन में तो वह कभी फाँसी चढ़ी नहीं है। वह क्या जाने फाँसी के लिए रस्सी तैयार करना । इधर पेड़ की डगाल भी ऊँची थी। रस्सी फेंकती थी । रस्सी डगाल को छूकर गिर जाती थी। पुनः प्रयास करती थी। रस्सी डगाल को छलांग लगाकर गिर जाती थी। बार-बार प्रयास, बार-बार असफलता । थक-हार कर एक बड़े से पत्थर में बैठ गई और इत्मीनान के साथ फाँसी बनाने के लिए रस्सी को इधर-ऊधर आड़ा-तिरछा घुमाने लगी। वह अपने कार्य में इतना निमग्न थी कि आस-पास क्या कुछ हो रहा है इसका उसे कोई भान नहीं थी।

उसके इस क्रिया-कलाप को सामने से आया हुआ एक ढोलकिया देख रहा था और भाँप रहा था कि वह क्या करने जा रही है। बुजुर्ग होने के नाते उसे यह भाँपते देर नहीं लगी कि वह क्या करने जा रही है। उसी गाँव का होने के नाते वह उसे नाम से भी और परिवार से भी पहचान रहा था। इनकी सास-बहु की लड़ाई ग्राम विख्यात थी तो इससे वह भी अनभिज्ञ नहीं था। वह ढोलकिया जिसका नाम थनवार था जान गया कि दिव्या फाँसी चढ़ने आयी है। थनवार बाप-दादा के जमाने से चोर-लुटेरा था सजायाफ़्ता था। स्थानीय थानेदार तथा अन्य पुलिस और न्यायलयीन अधिकारी कर्मचारी इसके नाम से भलीभाँति परिचित थे। जब उसने देखा कि गले में सोने की चैन और शरीरांग बेचैन है; कमर में करधन और करों में डोरी की उलझन है तब उसके मुँह में पानी आ गया । टपकते लार को सम्भालते हुए बड़ी मीठी बोली बोला-बेटी दिव्या। तू अकेली यहाँ बैठकर क्या कर रही है; क्यों बैठी है ? तुम्हारा इरादा क्या ? प्रश्नों की झड़ी सुनकर एक बार तो झिझकीं। हड़बड़ाई; किन्तु अविलम्ब सम्भलकर एक साथ बेधड़क सभी प्रश्नों का जवाब दे दी। मैं फाँसी का फंदा बना रही हूँ। मैं फाँसी लगाने के लिए बैठी हूँ । मेरा इरादा केवल फाँसी लगाना है। तो फाँसी क्यों नहीं लगा रही है ? पूछने पर बोली कि मुझे फाँसी लगाना नहीं आता । थनवार ने बड़े उतावले के सात कहा मैं बताऊँ । दिव्या ने भी बड़ी जल्दीबाजी में बोल दी-हाँ बताओ।

थनवार दिव्या से रस्सी लिया डगाल के नीचे उबड़-खाबड़ जमीन के नीचे अपने बड़े भारी ढोल को खड़ा रखा । ढगमगाते ढोल के ऊपर सम्भलकर धीरे-धीरे चढ़ा। दोनों जोतार को एक किया. एक छोर को डगाल से बाँधा और दूसरे छोर को फाँसी का फंदा बनाया। अपने गले को फाँसी के फंदे में डालते हुए कहा कि ऐसे इस फंदे में अपने गले को डाल देना और ऐसे इस प्रकार पैर से ढोल को उसके स्थान से हटा देना। जुबान से इन शब्दों के उच्चारित होने के साथ ही इनके दोनों पैर अनजाने में ऐसे ही हरकत कर बैठे और इनके पैरों तले ढोल खिसक गया। लुढ़कते हुए ढोल काफी दूर चला गया । इधर थनवार तरीका बताते-बताते खुद फाँसी के फंदे पर झूल गया। उसका शरीर बड़ी बेदर्दी के सात छटपटाने लगा। मुँह से कोई आवाज तक नहीं निकली । उस दरमियान कुछ समय के लिए दोनों हाथ ऊपर की ओर उठे तो सही किन्तु दुर्भाग्यवश गले तक पहुँचकर लुढ़क गए । इतना अधिक दर्दनाक छटपटाहट कि पेड़ के इस डगाल के साथ जुड़े अन्य डगाल भी हिलने लगे। सभी सूखे पत्ते झड़ गए और थनवार निष्प्राण हो गया । इतना हृदय विदारक छटपटाहट, इतना दर्दीला दृश्य इससे पूर्व दिव्या ने कभी नहीं देखा था। पहली दफा उसे यह ज्ञात हुआ कि फाँसी पर चढ़ने से इस कदर कष्ट झेलना पड़ता है। उसने सोचा इससे तो लाख गुनी अच्छी है सास की प्रताड़ना। उसका पूर्णतः हृदय परिवर्तन हो गया । उसने निर्णय लिया कि अब कभी भी वह फाँसी पर नहीं चढ़ेगी। इसके अतिरिक्त अन्य किसी साध से भी आत्महत्या नहीं करेगी ।

अब नहीं मरूँगी,अब नहीं मरूँगी कहती-कहती; दहाड़ मार-मार कर; गला फाड़-फाड़कर रोती-चिल्लाती सब कुछ छोड़-छोड़कर बड़ी तेज रफ्तार के साथ दौड़ी चली आई अपना घर और सास के गले में अपना गला मिलाकर जोर-जोर से अपनी सारी दुखड़ा रोने लगी; साथ में वही। शब्द मैं नहीं मरूँगी, मैं नहीं मरूँगी। सास हक्का-बक्का रह गयी । बहुत देर तक बहु के घर वापस नहीं आने के कारण वह भी पूर्व से ही किसी अनहोनी के भय से काँप रही थी। बहु की इस क्रिया-कलाप से स्वयं तो आश्वस्त हुई कि चलो बहु ठीक-ठाक तो घर वापस आ गई। यदि कोई उल्टी–सीधी बात हो जाती तो मुफ्त में मैं मारी जाती । उसे अपनी बहु से कही हुई बात याद आयी कि “चुल्लू भर पानी में डूबकर मर क्यों नहीं जाती ?” यदि वास्तव में पानी डूबकर मर जाती तो उसे जेल की चक्की पीसनी पड़ती। उसकी बहु ने आज उसे जेल जाने से बचा लिया। उसने सोचा कि मेरी बहु ने आज न सिर्फ इस घर के इज्जत को नीलाम होने से बचाया बल्कि मेरे बाप-दादा के इज्जत को भी नीलाम होने से बचाया है। उसने निर्णय लिया कि वह आज के बाद बहु की इस कृपा के प्रति आजीवन कृतज्ञता प्रकट करती रहेगी। सास रमा का पूर्णतः हृदय परिवर्तन हो गया।अब वह बहु को ढाढ़स बंधाने लगी कि तुम्हें कौन कहता है मरने को ।मरे तेरे दुश्मन । हम क्यों मरेंगे। हम नहीं मरेंगे अब चुप हो जा। शान्त हो जा। निश्चिन्त हो जा अब तुम्हें कुछ नहीं होगा । मैं हूँ ना। यह दौड़ने–भागने, रोने-चिल्लाने का दृश्य जिन-जिन ने भी देखा-सुना उन सभी ने सीधा नरेश के घर की ओर डगर भरा। बिन बुलाये नरेश के घर पहुँच कर देखने लगे तमाशा।

काफी देर व्यतीत होने के बाद दिव्या धीरे-धीरे शान्त हुई। कुछ सुनने–सुनाने लायक हुई। उपस्थित उन तमाम जन समुदाय से वह अपनी आप-बीती कह सुनाई । उपस्थित उन सभी ने उसी समय स्थल निरीक्षण किया और दिव्या के कथन को पूर्णतः सत्य पाया। गाँव के कोटवार ने निकट के थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाया। थानेदार ने निकट के महिला थाने में इस घटना की सूचना दी। महिला पुलिस ने दिव्या को गिरफ्तार लिया । दिव्या को विचाराधीन कैटी के रूप में महिला पुलिस हिरासत में रखी । अगली सुबह न्यायालय में प्रकरण प्रस्तुत किया गया। प्रकरण काफी दिनों तक चला। मृतक थनवार सज़ायाफ़्ता होने के कारण साथ ही अन्य अनेक प्रकरण उसके नाम आज भी न्यायालय में लम्बित रहने के कारण जन धनराशि हड़पने के उद्देश्य से उसके द्वारा किये गये इस करतूत को एक तो अन्य की हत्या का प्रयास करने का अपराधी और दूसरा ‘आत्महत्या’ का दोषी प्रमाणित हुआ। स्वयं मृत्यदण्ड भुगतने के कारण न्यायालय उसे कोई सजा नहीं सुनाई गई। बहु दिव्या द्वारा अपराध स्वीकार कर लेने ,प्रत्यक्षदर्शी एक मात्र गवाह होने; ‘आत्महत्या’ करने सम्बन्धी अपनी पलायन वादी विचारधारा को त्यागने और भविष्य में कभी भी ‘आत्महत्या’ न करने की शपथ लेने के कारण अपने स्वयं की इस जीवन रक्षा को देश, समाज और परिवार की एक काम-काजी महिला की जीवन रक्षा मानते हुए उसके तमाम गुनाहों को माफ करते हुए अदालत ने उसे बाइज्जत बरी कर दिया ।
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