Friday, March 9, 2007

गीता-महाभारत



“कामात् क्रोधाद् भयाद् वापि-यदि चेत् संत्यजेत् तनुम्।
सोनन्तं नरकं यादि आत्महन्तृत्वकारणात्।।”

महाभारत-6/145


“यदि कोई काम, क्रोध अथवा भय से शरीर का त्याग करे तो वह आत्महत्या करने के कारण अनन्त नरक में जाता है।” इस मृत्युलोक में दो प्रकार की मृत्यु होती है -एक स्वाभाविक और दूसरी यत्नसाध्य । जो स्वाभाविक मृत्यु है वह अपनी इच्छा से नहीं होती, स्वतः प्राप्त होती है। जो स्वाभाविक मृत्यु है वह अटल है, उसमें कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं होता, किन्तु जो यत्नसाध्य मृत्यु है वह विविध साधन-सामग्री के माध्यम से सम्भव होती है। समर्थ होते हुए भी स्वयं को मारने की इच्छा से स्वशरीर त्याग करने का दूसरा नाम है “आत्महत्या” ।

सृष्टि के प्रारम्भिक चरण से ही पुनर्जन्म और पुनर्मरण नामक यह जीवन-काल चक्र निरन्तर चलता चला आ रहा है। भक्ति की दृष्टि से अभक्ति, अनास्था, अश्रद्धा,अविश्वास, अप्रत्यय, अनिदिंष्ट, अनियत, निश्चय, अप्रसन्नता, अमनोयोग, अन्यमनस्क, अनमना, अनवधान, असावधानी, अवज्ञा, अनादर,अपमान, उदासी, प्रमाद अविद्या, भ्रांति, संदेह, विमुख, विरति, माया तथा मोह के कारण और कर्म की दृष्टि से अकर्म, अकर्मक, अकर्मण्य, अउद्यम, दुष्कर्म तथा कुकर्म के कारण जन्म-मरण होता है। नास्तिकता, अज्ञानता और स्वार्थ परायणता के कारण प्राणी जनम-मरण के कष्टों को बारम्बार झेलता रहा है और रहेगा। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि अमनोयोग अज्ञानांधकार तथा स्वप्रयोजन ही इस भवचक्र के प्रमुक कारण हैं और भक्तिभाव, बुद्धत्व तथा निष्काम कर्मयोग मोक्ष प्राप्ति के प्रमुख साधन।

चूकि अपनी जानकारी के अनुसार अनादरणीय कर्म करने के कारण इस भवसागर के भवजाल में फंसे हुए हैं, इसलिए अपनी जानकारी के अनुसार आदरणीय कर्म करने से ही भवबंधन मुक्त हो सकते हैं। जिस प्रकार कोई हमें सुख देता है तो अच्छा लगता है और दुःख देता हैं। सत्य बोलना ठीक है और झूठ बोलना गलत, ऐसा जानते हुए भी हम स्वार्थ के लिए झूठ बोल देते हैं। उसी प्रकार शरीर आदि सब जाने वाले हैं; रहने वाले नहीं है, ऐसा जानते हुए भी हम इसके जाने में (यत्नसाध्य काल के गाल में समाकर प्रेतयोनि में विश्राम करते हुए चोला बदलते तक) बाधक बनते हैं, इसे रोके रखने की कुचेष्टा करते हैं, यही अपनी जानकारी का अनादर करना है और यही दुःखदायी जनम-मरण का प्रमुख कारण है। आयु प्रतिक्षण समाप्त हो रही है, शरीर प्रतिक्षण जीर्ण हो रहा है और वह प्रतिक्षण मर रहा है। वह क्षण मात्र के लिए भी स्थिर या वक्री नहीं है, प्रतिक्षण मार्गी है। जिस प्रकार युवा होने होने से बालकपन मर जाता है और वृद्धा होने से युवापन, ठीक उसी प्रकार दूसरा शरीर धारण करने से पहला शरीर मर जाता है और तीसरा शरीर धारण करने से दूसरा शरीर । आज दिनांक तक इसने कितने शरीर धारण किये हैं, इसकी गणना कर पाना असम्भव है। जब तक शरीर को अपने वास्तविक स्वरूप का तत्वार्थ बोध नहीं होता तब तक यह शरीर अनन्त काल तक शरीर धारण करता ही रहता है।

अणु-आत्मा द्वारा शरीर परिवर्तन एक स्वीकृत तथ्य है। जो आधुनिक वैज्ञानिक आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते और हृदय ये शक्ति साधन की व्यवस्था भी नहीं कर पाते, वही उन परिवर्तनों को स्वीकार करने को विवश है जो क्रमशः भ्रूण, नवज, शिशु, बालक, कुमार, तरूण, नवयुवा, युवा, प्रौढ़, वृद्ध और जरावस्था हो जाता है। भ्रूणावस्था से लेकर दूसरे शरीर तक स्थानान्तरण परम्-पिता परमात्मा की असीम कृपा से ही सम्भव हो पाता है, किसी भी प्राणी की कृपा से कदापि नहीं । जिस प्रकार व्यक्ति बालकपन को पार किये बिना युवावस्था प्राप्त नहीं कर सकता, युवावस्था को पार किये बिना वृद्धावस्था प्राप्त नहीं कर सकता, ठीक उसी प्रकार परमेश्वर प्रदत्त पूर्णायु को पार किये बिना देहान्तर अथवा अन्य शरीर प्राप्त नहीं कर सकता । इस बीच जब कोई यत्नसाध्य काल कवलित होता है अथवा आत्महत्या करता है तब जीवात्मा पूर्णोंयु तक प्रेतयोनि में वास करता है। इस प्रकार वास्तव में आत्महत्या शारीरिक परिवर्तन में बाधक है।

“नहीं स्वर्ग कोई धरावर्ग है, जहाँ का भाव है, स्वर्ग है।
सदाचार ही गौरवागार है, मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है।।”

-राष्ट्रकवि स्व. मैथिलीशरण जी गुप्त


अहिंसा का अभिप्राय केवल हत्या न करना ही नहीं है वरन् तन-मन-धन, मन-वचन,कर्म या फिर अन्य किसी भी प्रकार से 84 लाख योनियों को ही नही, अपितु वनस्पतियों को भी कष्ट न पहुँचाना है। प्राणी मात्र के प्रति अंतस्तल से सद्भावना का दूसरा नाम है अहिंसा । दूसरे शब्दों में अहिंसा अपने क्रियात्मक रुप में सकल जीवधारियों के प्रति दुर्भावना का पूर्णतः अभाव का पर्याय है। जिस प्रकार “अपनी नाम कटे तो कटे दूसरे का सगुन तो बिगड़े” वाली प्रवृत्ति भी निर्विवाद रूप से हिंसा ही है, ठीक उसी प्रकार “अपनी कब्र आप खोदना” अथवा यत्नसाध्य काल को अंगीकार करना भी निःसंदेह हिंसा ही है। चूंकि हिंसा पाप कर्म है, पातक है, गुनाह है, इसलिए आत्महत्या भी अपराध है, दोष है, अन्याय है, अत्याचार है, जुर्म है। चित्त का एक संस्कार जो अनुभव और स्मृति से उत्पन्न होता “भावना” कहलाता है, अच्छा भाव, उच्च विचार और मनभावन चिंतन का प्रबोधक शब्द है सद्भावना। चूंकि आत्महत्या का सद्भावना, सद्विचार, सच्चा भाव, निष्कपट भाव, मैत्री भाव, तालमेल, मेल जोल तथा समन्वय से किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं है, इसलिए यह अनादरणीय है, अपमाननीय है, निंदनीय है, घृणित है, त्याज्य है।

“यः शास्त्रविधइमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोप्ति न सुखं न परां गतिम्”

-श्रीमद्भगवद्गीता-16/23


“जो मनुष्य शास्त्र विधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मानमाना आचरण करता है वह न तो सिद्धि (अंतस्तल की युद्धि) को प्राप्त होता है, न सुख को और न परम गति को ही प्राप्त होता है।”

चूंकि शास्त्रविधि की अवहेलना करने से मनुष्य को परम लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह स्वेच्छाचारिता का वर्ताव न करे। इस भवसागर में मानव तन केवल वेदविहित श्रेष्ठ कर्म करके परमपिता को प्राप्त करने के लिए ही मिला है, इसलिए मानव मात्र को चाहिए कि वह इस अवसर को कभी भी किसा भी दशा में वृथा न जाने दे । यद्यपि लोग बाह्य आचरणों को ही विशेष महत्व देते हैं तथापि वास्तव में आंतरिक भावों का ही विशेष महत्व है । जहां तक दान देने का प्रश्न है कितना दिया ? कोई महत्व नहीं, क्यों त्यागा ? इसका विशेष महत्व है । इसी प्रकार जहां तक त्याग का प्रश्न है क्या त्यागा ? इसका विशेष महत्व है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मयस्सर इत्यादि के अज्ञानंधकार में विलुप्त व्यक्ति देना को दान और किसी वस्तु पर से अपने स्वत्व हटा लेने की क्रिया अथवा किसी वस्तु पर से अपना अधिकार छोड़ देने की क्रिया को त्याग समझ लेता है । इस परिधि में यत्नसाध्य देहत्याग देना अथवा यत्नसाध्य प्राणत्याग देना को भी समेट कर मटियामेट कर देता है, जबकि वास्तव में आत्महत्या मनमानी दुष्कृति है, स्वेच्छाचार है, दुराचार है ।

सदाचरण अथवा सभ्य आचरण सदा स्वाभाविक होता है । आचरण की सभ्यता को ही सदाचार अथवा सुसंस्कृत व्यवहार कहते हैं । सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय ही वस्तुतः सनातन सत्य आचरण है । इसलिए जो सबके लिए हितकर और सबके लिए सुखकर हो उसी का नित्य आचरण करना चाहिए । सामाजिक संबंधों में अन्यों के साथ किया जाने वाला आचरण ही वास्तव में व्यवहार है । आचरित अवं विचारित का पर्याय है व्यवह्रत । जो व्यवहार के लिए, बरताव के लिए उचित है वही व्यवहारिक है और जो व्यवहार के लिए, बरताव के लिए अनुचित है वही अव्यवहारिक । इस दृष्टांतित दृष्टि से “आत्महत्या” पूर्णतः अव्यवहारिक है । किसी व्यक्ति, जाति अथवा राष्ट्र की वे सब बातें जो उसके सौजन्य, शिक्षित एवं उन्नत होने की सूचक होती है “सभ्यता” कहलाती है और किसी व्यक्ति, जाति अथवा राष्ट्र की वे सब बातें जो मन, रुचि, आचार-विचार, कला-कौशल तथा सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक विकास की सूचक होती है “संस्कृति” कहलाती है । इस समीक्षाधीन परिधि के अंतर्गत “आत्महत्या” वस्तुतः मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति का पराभव है ।

“समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ।।

समं पश्यन् हु सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परांगतिम् ।।”


श्रीमद् भगवतद् गीता-13/27-28

“जो लोग नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखते हैं, वही यथार्थ देखते हैं, क्योंकि जो लोग सब में समभाव से स्थित परमेश्वर को देखते हुए (अपने द्वारा स्वयं को नष्ट नहीं करते)आत्मा के द्वारा आत्मा ही हिंसा नहीं करते, इसीलिए वे परमगति को प्राप्त होते हैं ।

“तथा शरीर भवति देहाद् येनोपपादितम्।
अध्वानं मतकश्घायं प्राप्तश्घायं गृहाद् गृहम्।।
द्वितीयं कारणं तत्र नान्यत् किन विद्यते ।
तद् देहं देहिनां युक्तं पंचभूतेषु वर्तते ।।”


पराशरगीता -12-13


“जो लोग देह को पाकर हठपूर्वक उसका परित्याग कर देते हैं, उनको पूर्ववत् ही यातनामय शरीर की प्राप्ति होती है। ऐसे लोग मोक्ष के साधन रूप मनुष्य शऱीर को पाकर भी आत्महत्या के कारण उस लाभ से वंचित हो एक घर से दूसरे घर में जाने वाले मनुष्य के समान एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त होते हैं। इनकी उस अवस्था को प्राप्त होने में आत्महत्या रूपी पाप के सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है । उन प्राणियों को उस शरीरों का मिलना उचित ही है, जो कि पंचभूतमय है।
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